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महाराष्ट्र के संदेश को सुनिए-- शशि शेखर

पिछले दिनों आधे से अधिक महाराष्ट्र को जातीय हिंसा की आग ने जिस तेजी से अपनी चपेट में लिया, उससे आशंकित और आतंकित होना लाजिमी है। इस दौरान उन्माद में अंधे हो रहे लोगों ने पाठशाला से घर लौट रहे मासूमों की बसों तक पर पथराव किया। भय से कंपाते बच्चों को अपने सहपाठियों के यहां शरण लेनी पड़ी। उधर, उनके मां-बाप मुंबई महानगर के मुख्तलिफ हिस्सों में बेबसी जीने को अभिशप्त थे। अपने जिगर के टुकड़ों को घर वापस लाने के जरूरी यातायात साधन ठप पडे़ थे, क्योंकि कुछ देर के लिए हुकूमत पंगु हो गई थी। बंद, आगजनी, हिंसा से जो क्षति हुई, उसका समूचा आकलन होने में कुछ वक्त लगेगा, पर इस घटनाक्रम ने कई सवाल जरूर खड़े कर दिए हैं।

 

क्या इस खून-खराबे का प्लॉट बहुत पहले से रचा जा रहा था? या, यह देश में पनपाए जा रहे विद्वेष का अगला चरण है?


जवाब तलाशने के लिए सबसे पहले भीमा-कोरेगांव चलते हैं। यहां हर साल दलित वर्ग के लोग उत्सव मनाते हैं। इसी दिन पेशवा फौज की इस सरजमीं पर हार हुई थी। जीत हासिल करने वाले दस्ते में महार सिपाही बहुतायत में थे और नेतृत्व में कुछ ब्रिटिश, इसीलिए दलित इसे ब्राह्मणवादी सत्ता की पराजय के प्रतीक के तौर पर देखते हैं। सोशल मीडिया के अनियंत्रित महासागर में इस झड़प के बारे में तरह-तरह की जानकारियां तैर रही हैं। मैं इनमें से किसी का पक्षकार नहीं बनना चाहता। यह मुद्दा आजकल तेजी से पनप रही उस प्रवृत्ति की उपज है, जिसके चलते देश भर में स्वघोषित इतिहासकार कुकुरमुत्तों की तरह पनप गए हैं। ऐसे लोग वैज्ञानिक तथ्यों के मुकाबले किंवदंतियों को सच्चा बताते हैं। ऐसा करते वक्त वे चतुराई से इतिहास की यह सीख छिपा जाते हैं कि उसकी मनमाफिक व्याख्याएं इंसानियत के लिए खतरनाक साबित होती हैं। महाराष्ट्र की ताजा घटनाएं इसका उदाहरण हैं।

 

भीमा-कोरेगांव में उस झड़प की वर्षगांठ पर समारोह की परंपरा कोई आज की नहीं है। दशकों से यहां लोगों का जुटान होता है। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने निजी शिरकत के जरिए इस आयोजन को महत्ता प्रदान की थी। इस बार 200वीं वर्षगांठ थी और हमेशा से अधिक भीड़ का जुटना लाजिमी था। यह कोई गोपनीय आयोजन नहीं था। प्रचार हो रहा था और जगह-जगह से लोग न्योते जा रहे थे। प्रदेश सरकार चाहती, तो माकूल इंतजामात कर सकती थी। ऐसा नहीं हुआ। यही नहीं, अराजक भीड़ जब तांडव मचा रही थी, तब भी कई स्थानों पर पुलिस ने कारगर सक्रियता नहीं दिखाई। मुंबई में जिन टीवी पत्रकारों पर हमला हुआ, उनका आरोप है कि घटनास्थल पर मौजूद पुलिस ने उन्हें बचाने की कोई कोशिश नहीं की। ऐसे वाकये संदेह पैदा करते हैं।

 

आप गौर से देखें, तो पाएंगे कि पिछले कुछ सालों में रह-रहकर देश के विभिन्न हिस्सों में जातीय या धार्मिक उन्माद भड़काने की कोशिश की गई। इससे पहले उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में भी संघर्ष हुआ था। वहां ‘द ग्रेट राजपूत' के जवाब में चंद्रशेखर ‘रावण' ने ‘द ग्रेट...' का नारा दिया था। इसका अंजाम क्या हुआ? दो लोग मारे गए, तमाम घायल हुए और करोड़ों की संपत्ति स्वाहा हो गई। महीनों तक समूचा इलाका आतंक से थर्राता रहा।

 

इससे पहले गुजरात के ऊना में दलितों की पिटाई और रोहित वेमुला के मामले को जान-बूझकर सार्वदेशिक जामा पहनाया गया। हरियाणा का हिंसक जाट और राजस्थान का गुर्जर आंदोलन आज भी लोगों के दिल में थर्राहट पैदा करते हैं, पर उनका असर इलाका विशेष तक सीमित था। आप याद करें, तो पाएंगे कि इस वितंडावाद ने सार्वदेशिक तेजी पकड़ी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की एक घटना से, जब कुछ लोगों ने अफजल गुरु की स्मृति में भारत विरोधी नारे लगाए थे। इन सारे मसलों को प्रशासनिक तौर पर निपटाने की बजाय जरूरत से ज्यादा तूल दिया गया। यह सोती बारूद को तीली दिखाने जैसा था। इसके दुखद नतीजे सामने आने लगे हैं।

 

जेएनयू से भीमा-कोरेगांव तक नफरत का व्यापार जिस तरह सुव्यवस्थित रणनीति का आकार लेता नजर आ रहा है, वह डरावने प्रश्न खड़े करता है। भारत अनेकता में एकता का देश है। हमारे पूर्वजों ने हजारों वर्षों के अनुभव के आधार पर इस सिद्धांत को अमली जामा पहनाया था। इसीलिए अतीत में जब भी कहीं धार्मिक अथवा जातीय उन्माद पसरते, हम उन पर राख डालने में कामयाब हो जाते। सोशल मीडिया (या, शोषण मीडिया) के इस दौर में अब परंपराएं शांति से अधिक अशांति रचने के काम आने लगी हैं। राजनीतिक महत्वाकांक्षा इन्हें जानलेवा विस्तार दे देती हैं।

 

 

मैं जिस शहर, आगरा से आता हूं, वह खुद राजनीतिज्ञों के लिए लुभावने सामाजिक द्वंद्व की प्रयोगशाला रहा है। भरी-पूरी ‘शू इंडस्ट्री' होने के कारण यहां जाटव समुदाय की भरमार है। मैंने अनेक बार यहां जाटव बनाम सवर्ण अथवा जाटव बनाम मुस्लिम संघर्ष देखे हैं। जब ऐसा द्वंद्व उपजता, न जाने कहां से कुछ लोग दलित-मुस्लिम एकता की बात करने लगते। ऐसे परचे नमूदार हो जाते, जो इस गठबंधन को शताब्दियों की ‘जलालत' से उबरने का दरवाजा बताते, पर रोजमर्रा की सामाजिक जिंदगी में यह गठबंधन कभी सिरे नहीं चढ़ सका। यह बात अलग है कि राजनेता चतुराई से इसका लाभ उठाने में सफल होते रहे हैं। मेयर के पिछले चुनाव में यहां बहुजन समाज पार्टी इसीलिए दूसरे नंबर पर रही, क्योंकि जाटव और मुस्लिम एक हो गए। मेरठ और अलीगढ़ में तो बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी इसी समीकरण के चलते जीत भी गए। क्या समूचा पश्चिमी उत्तर प्रदेश धार्मिक और जातीय द्वैत की रसायनशाला बनने की ओर अग्रसर है?



चुनावों में कोई किसी को वोट दे, कोई कैसा भी गठबंधन बनाए, उससे तब तक फर्क नहीं पड़ता, जब तक सामाजिक सद्भाव बना रहे। अगर मतदान के बाद भी लोगों के दिलो-दिमाग पर इन गठबंधनों का प्रभाव कायम रहता है, तो उसके दूरगामी दुष्परिणाम हो सकते हैं। यह आशंका तब और बलवती हो जाती है, जब जान-बूझकर संघर्ष पैदा किए जाएं, ताकि लोगों की नफरत किसी दल विशेष के लिए वोटों का जुगाड़ साबित हो सके। हमें इस प्रवृत्ति से बचना होगा।

 

समय आ गया है, जब यह आवाज बुलंद की जाए कि हमें हमारे बीच सामाजिक ध्वंस के मुजफ्फरनगर, आजमगढ़ अथवा दरभंगा मॉडल नहीं चाहिए। ये शहर और समूची हिंदी पट्टी अपनी सांस्कृतिक चेतना के लिए जाने जाते थे। हमारी मूल पहचान आतंक और अलगाववाद के पोषक में तब्दील नहीं की जा सकती।

 

राजनेताओं की सोच शायद इस विचार से मेल नहीं खाती। भरोसा न हो, तो संसद की कार्यवाही पर नजर डाल देखिए। एक तरफ महाराष्ट्र जल रहा था और दूसरी तरफ वहां आरोप-प्रत्यारोप की आंधी चल रही थी। ऐसा करते वक्त वे भूल गए कि महाराष्ट्र के तकलीफजदा लोग उनकी ओर उम्मीद से निहार रहे हैं। हमारे माननीय सांसद उस समय यह भी बिसरा बैठे कि ऐसा हर हादसा सामाजिक एकता के चेहरे को दागदार बना देता है।
वैश्विक महाशक्ति के तौर पर उभरते भारत को यह शोभा नहीं देता।