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महाशक्ति बनने की सही राह - सीताराम येचुरी

द इकोनॉमिस्ट ने भारत पर एक कवर स्टोरी की है। इसी अंक में ‘बिजनेस इन इंडिया’ पर पूरे 34 पृष्ठ की एक विशेष रिपोर्ट है। यह रिपोर्ट भारत के संबंध में कहती है कि, ‘यह एक उभरती हुई महाशक्ति है, जिसके समाज में जोश है, जिसकी फर्मो के चेहरे पर खून की लाली है और जो विश्व मंच पर चढ़ रही हैं।’ यह वास्तव में विश्व पूंजीवाद की इस इच्छा को ही दिखाता है कि भारत को अपना सहारा बनाएं और उसकी मदद से मंदी के उस गहरे गड्ढे में से निकल आएं, जिसमें वह ज्यादा से ज्यादा खिसकता जा रहा है। लेकिन वहीं द इकोनॉमिस्ट  इस मामले में ज्यादा मुगालते न पालने के लिए आगाह भी करता है। यह दूसरी बात है कि उसकी इस चेतावनी के पीछे यह नजरिया काम कर रहा है कि भारत में अब भी ऐसे सुधार पर्याप्त रूप से आगे नहीं बढ़ाए जा सके हैं, जो अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी तथा घरेलू कंपनियों के लिए अपने मुनाफों को अधिकतम करने के मौके मुहैया कराए।

इस तरह के अतिरंजित प्रचार के पीछे की वास्तविकता यह है कि उनमें भारत की इस बुनियादी सच्चााई की पहचान ही नहीं की गई है कि अब यहां एक देश की सीमा में दो देश बन चुके हैं। ‘शाइनिंग इंडिया’ और ‘बुझते भारत’ के बीच की बढ़ती खाई की सच्चााई की ओर बार-बार ध्यान खींचा गया है। यहां तक कि इस सच्चााई की अब और अनदेखी करने में असमर्थ भारत के शासक वर्ग के प्रतिनिधियों ने खुद भी ‘इंडिया बनाम भारत’ की बात करनी शुरू कर दी है।

इस अतिरंजित प्रचार के प्रतिबिंब हम देश के अंदर भी देख सकते हैं। राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक के एक रोज पहले ही योजना आयोग ने अपनी मानव विकास रिपोर्ट जारी की थी। इंडिया इंक ने इस रिपोर्ट के नतीजों की ऐसी व्याख्याओं के अंबार लगा दिए, जो द इकोनॉमिस्ट  के अतिरंजित प्रचार को सच साबित करने की ही कोशिश करती हैं। एक राष्ट्रीय दैनिक ने तो मुखपृष्ठ पर बहुत बड़े-बड़े अक्षरों में यह सुर्खी ही लगा दी, ‘भारत, इंडिया के करीब आया।’ इसी अखबार ने लिखा : ‘ऐसा लगता है कि ‘समावेशी विकास’ शायद सिर्फ नारा ही नहीं है।’

इस तरह के शेखी भरे निष्कर्ष का आधार क्या है? सिर्फ इतना कि कुछ सूचकों के मामले में अनुसूचित जातियों-जनजातियों तथा मुसलमानों की स्थिति में जरा-सा सुधार दिखाई देता है। शासक प्रतिष्ठान के ये हिस्से इसी को, ‘अंतत: शेष भारत के करीब आने’ के रूप में पेश कर रहे हैं। विडंबना यह है कि अन्य पिछड़े वर्ग के साथ मिलकर यही तबके हमारे देश की आबादी का प्रचंड बहुमत हैं। वास्तव में, भारत की ‘कामयाबी कथा’ का इस तरह का अतिरंजित प्रचार खुद योजना आयोग के आंकड़ों से सामने आने वाली सच्चााई को ढकने का काम करता है। यही मुगालतों का ठिकाना है।

यह रिपोर्ट दिखाती है कि आज (2004-05 का वर्ष ही वह आखिरी वर्ष है, जिसके आंकड़े उपलब्ध हैं) करीब 31 करोड़ भारतवासी गरीबी की सरकारी परिभाषा के हिसाब से गरीबी-रेखा के नीचे रह रहे हैं। जब भारत आजाद हुआ था, तब उसकी समूची आबादी करीब 35 करोड़ थी। 1973-74 में भारत में गरीबी का आकलन शुरू होने के बाद से 2004-05 तक सरकारी परिभाषा के हिसाब से गरीबी-रेखा के नीचे जीने वालों की संख्या में कुल एक करोड़ 90 लाख की कमी आई थी। गौर कीजिए , यह वही गरीबी-रेखा है, जिसके संबंध में अब यह बाकायदा साबित हो चुका है कि यह जनता के जीवन-स्तर के आकलन की तो बात ही छोड़ दी जाए, किसी तरह से जिंदा रह रहे लोगों की सही गिनती बताने के लिए भी अपर्याप्त है।

एक मायने में तो योजना आयोग की रिपोर्ट उसी सच्चाई की पुष्टि करती है, जो राष्ट्रीय नमूना सर्वे, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे तथा अन्य ऐसे ही सर्वेक्षणों की रिपोर्टो के जरिये पहले से ही हमारे सामने मुंह बाए खड़ी रही है। योजना आयोग की रिपोर्ट दिखाती है कि हमारे देश में ग्रामीण गरीब दो दशक पहले जितना पोषण आहार पा लेते थे, आज उन्हें वह भी हासिल नहीं हो पा रहा है। 1983 से 2004-05 के बीच ग्रामीण इलाकों में कैलोरी व प्रोटीन के कुल आहार में आठ प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई है और शहरी इलाकों में 3.3 प्रतिशत की। भूख की चिंताजनक दशा का अंदाजा इस तथ्य से लग जाता है कि हमारे देश में एक भी ऐसा राज्य नहीं है, जिसका भूख सूचकांक दहाई अंक से नीचे हो।

हमारे देश में तीन वर्ष से कम आयु के आधे बच्चों कुपोषित हैं, जो कि सब-सहारा क्षेत्र के औसत से भी खराब स्थिति है। आधे बच्चों को जीवन रक्षक व रोग निरोधक सभी टीके नहीं लगते हैं और इस तरह वे ऐसी बीमारियों के ग्रास बन रहे हैं, जिन्हें पूरी तरह से रोका जा सकता है। जहां तक हमारे देश की जनता के स्वास्थ्य का सवाल है, स्वास्थ्य क्षेत्र पर हमारा कुल खर्च (जिसमें सार्वजनिक व निजी, हर तरह का खर्च शामिल है) सकल घरेलू उत्पाद के पैमाने से अफ्रीकी महाद्वीप के औसत से भी कम है। आजादी के 64 साल बाद भी हमारे देश में सफाई की दशा दयनीय है और यहां तक कि करीब 50 फीसद घरों में तो शौचालय तक नहीं हैं।

इसके बावजूद, इस रिपोर्ट के जारी किए जाने के अगले ही दिन जब राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक हुई, तो ऐसा लग रहा था कि जैसे सरकार अपनी ही रिपोर्ट के निष्कर्ष पूरी तरह से भुला चुकी हो। अगर भारत को सचमुच एक महाशक्ति के रूप में उभरना है, तो यह तभी हो सकता है, जब देश के विपुल मानव संसाधन को उन्नत बनाया जाए। इसके लिए हमें अपनी जनता की जिंदगी बेहतर बनाने पर ध्यान केंद्रित करना पड़ेगा। ऐसा करने के लिए संसाधन हमारे पास हैं। वास्तव में अगर ऐसा नहीं हो रहा है, तो इसकी वजह सिर्फ इतनी नहीं है कि ऐसा करने की राजनीतिक इच्छा नहीं है। ऐसा नहीं हो रहा है, क्योंकि हमारे शासक वर्ग की यह सोची-समङी नीति है और यही उनकी नवउदारवादी नीतियों की दिशा है कि देश के संसाधनों का उपयोग, आम जनता की कीमत पर, पूंजीपतियों के मुनाफे ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने के लिए किया जाए। ये वर्ग स्वार्थ ही है, जो सोचे-समझे तरीके से हमारे देश को अपनी निहित संभावनाओं को सामने लाने और उसके बल पर दुनिया के स्तर पर एक सच्ची विश्व शक्ति बनकर उभरने से रोक रहे हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)