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महिला आरक्षण पर हो गंभीर चर्चा - डॉ. एके वर्मा

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महिला आरक्षण विधेयक को लोकसभा में पारित कराने के लिए पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर इस मुद्दे को एक बार फिर राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में लाने की कोशिश की है। इस विधेयक को राज्यसभा मार्च 2010 में पारित कर चुकी है, लेकिन लोकसभा से पारित होने की नौबत नहीं आ रही है। सोनिया गांधी के अनुसार मोदी को अपने दलीय बहुमत का लाभ उठाते हुए इसे लोकसभा से पास कराना चाहिए, लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि इसे तब लोकसभा में पारित क्यों नहीं कराया गया जब 2014 तक उनकी पार्टी की सरकार थी और कांग्रेस के पास लोकसभा में बहुमत भी था? आधी आबादी के प्रति सोनिया गांधी का आरक्षण प्रेम अचानक कहां से जाग गया? यह 2019 के लोकसभा चुनावों की तैयारी का आगाज तो नहीं? क्या आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस महिलाओं पर अपना दांव तो नहीं लगा रही? महिलाएं पहले भी चुनावों में अहम भूमिका निभाती रही हैं, लेकिन शिक्षा और सोशल मीडिया द्वारा चेतना बढ़ने से अब वे अपने परिवार की गिरफ्त से निकलकर भी मतदान कर रही हैं। यूपी में हाल के विधानसभा चुनावों में कुछ मुस्लिम महिलाओं द्वारा भाजपा के पक्ष में मतदान करना इस बात को दर्शाता है।

 

 

देश में करीब 60 करोड़ महिलाएं हैं। 2014 के लोकसभा चुनावों में महिला मतदाताओं की संख्या लगभग 40 करोड़ थी। यह संख्या 2019 में और बढ़ जाएगी। ऐसे में कोई एक मुद्दा जो महिलाओं के मनोविज्ञान को प्रभावित कर सके, बेहद प्रभावी चुनावी औजार हो सकता है। क्या सोनिया गांधी इसी औजार की धार को तेज कर रही हैं? जो भी हो, क्या हम चुनावों में जीत-हार से आगे निकलकर देशहित में भी कुछ सोचेंगे? स्वतंत्रता-पर्व पर 1947 में हमने एक प्रयोग किया था। अपनी सामाजिक संरचना को लोकतांत्रिक बनाए बिना हमने राजनीति का लोकतांत्रिक स्वरूप स्वीकार कर लिया था। उसके दुष्परिणाम आज 70 बरस बाद हम महसूस कर रहे हैं। वर्ष 1992 में हमने दूसरा प्रयोग किया और समाज में महिलाओं को बिना स्वतंत्रता दिए उनको स्थानीय राजनीति में धकेल दिया। गांव-शहर में पंचायतों और नगरपालिकाओं में 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी गईं। हम कितना भी गौरव करें, जमीनी हकीकत यही है कि 25 बरस के बाद आज भी स्थानीय निकायों में चुनी गई अधिकतर महिलाओं के पिता, पति या भाई एक 'छद्म जनप्रतिनिधि के रूप में काम करते हैं और महिलाओं का नाम केवल कागज में चलता है। इसके अपवाद भी हैं और इस स्थिति में कुछ परिवर्तन भी आया है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति काफी कुछ जस की तस है।

 

 

महिला आरक्षण के पक्ष में बात करना सुविधाजनक है। इसका विरोध आपत्तिजनक है, लेकिन इस मुद्दे पर देश में कभी गंभीर बहस हो नहीं पाई, क्योंकि यह न केवल राजनीतिक, वरन पारिवारिक और सामाजिक दृष्टि से भी संवेदनशील मसला है। महिला आरक्षण विधेयक को प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा (1996), प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल (1997) और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (1998) की सरकारों ने भी प्रस्तुत करने का असफल प्रयास किया। उस समय यादव ब्रिगेड 'शरद-मुलायम-लालू ने महिला आरक्षण का जबर्दस्त विरोध करते हुए कहा था कि इससे 'परकटी (अर्थात अभिजात्य वर्ग की) महिलाओं का ही प्रभुत्व बढ़ेगा। उनकी मांग थी कि 33 प्रतिशत महिला आरक्षण में दलित व पिछड़े वर्ग की महिलाओं को अलग से आरक्षण मिले। बात केवल हिस्सेदारी पर अटक गई, उसके औचित्य और परिणाम पर किसी का ध्यान ही नहीं गया। यह कैसी लोकतांत्रिक राजनीति है कि समाज के प्रत्येक वर्ग को उसकी जनसंख्या के अनुपात में हिस्सेदारी दे दी जाए, चाहे वह उसका पात्र हो या न हो? इससे केवल अयोग्यतावाद ही पनपेगा और उसका खामियाजा देश को उठाना पड़ेगा। क्यों हमें हर समस्या का समाधान आरक्षण में ही दिखाई देता है? क्या लैंगिक समानता स्थापित करने का कोई और तरीका नहीं?

 

 

जिन देशों में लैंगिक समानता और महिला सशक्तीकरण एक प्रतिमान के रूप में स्थापित हैं, क्या उन्हें आरक्षण के माध्यम से प्राप्त किया गया? अमेरिका, यूरोपीय और अन्य देशों से हम क्यों नहीं सीख सकते? केवल भारत की गौरवशाली परंपरा का गुणगान करने से तो कुछ होगा नहीं। भारत में जब स्त्री-पुरुष समता थी, तो कौन सा आरक्षण था? क्यों नहीं हमारा पूरा ध्यान इस बात पर जाता कि शिक्षा, स्वास्थ्य व वित्तीय समावेशन में महिलाओं की भागीदारी बढ़-चढ़कर हो, क्योंकि इससे शेष सब स्वत: ठीक हो जाएगा। आज महिलाओं का समाज में जो योगदान बढ़ा है वह किसी आरक्षण से नहीं, वरन शिक्षा से संभव हुआ है।

 

 

संभव है कि संसद व विधानसभाओं में महिला आरक्षण के बाद आरक्षित सीटों पर केवल वे ही महिलाएं प्रत्याशी बनें, जो स्थापित राजनेताओं के घर की हों। दूसरा आपत्तिजनक पक्ष यह है कि महिलाओं के लिए 'आरक्षित सीटें अगले दो चुनावों में आरक्षित नहीं होंगी। इसका दुष्परिणाम यह होगा कि महिला जनप्रतिनिधियों के पास अपने निर्वाचन क्षेत्र में काम करने का कोई 'इंसेंटिव नहीं होगा, क्योंकि अगली बार उसकी सीट गैर-आरक्षित हो जाएगी। क्या महिला आरक्षण से महिला सशक्तीकरण, लैंगिक न्याय और समानता तक पहुंचा जा सकता है? क्या कुछ हजार महिलाओं को संसद और विधानसभाओं में पहुंचाकर 60 करोड़ महिलाओं के सशक्तीकरण की परिकल्पना की जा सकती है? यह न केवल महिलाओं, वरन पूरे समाज को धोखे में रखने वाली बात है, क्योंकि संसद और विधानसभाओं में महिलाएं पार्टी लाइन से हटकर कुछ नहीं कर सकेंगी। संविधान का 52वां संशोधन उन्हें इसकी इजाजत भी नहीं देता, जिसके अनुसार पार्टी-सचेतक के निर्देशों का पालन करना प्रत्येक पार्टी के सांसद या विधायक के लिए अनिवार्य है। शासन एक गंभीर विषय है और इसे उन लोगों के हाथों में नहीं सौंपा जा सकता, जो अनिच्छुक हैं। बेहतर यह होता कि पहले हम कानून द्वारा पार्टियों को बाध्य करते कि वे पार्टी संविधान में सभी पदों पर महिला आरक्षण लागू करें और महिलाओं को उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण दें। कुछ राज्यों जैसे बिहार ने पंचायतों और नगरपालिकाओं में 50 प्रतिशत महिला आरक्षण का पहले ही प्रावधान कर दिया है। सवाल यह भी है कि महिला आरक्षण लागू होने पर उसका लाभ मुस्लिम महिलाओं को कैसे मिलेगा? यदि संसद व विधानसभाओं में महिला आरक्षण का मॉडल वही रहा जो पंचायत और नगरपालिकाओं में है, तब तो मुस्लिम महिलाएं उसके लाभ से वंचित रह जाएंगी, जबकि सबसे ज्यादा सशक्तीकरण की जरूरत मुस्लिम महिलाओं को ही है। इसलिए 73वें और 74वें संविधान संशोधन में सुधार किया जाए कि किस तरह स्थानीय सरकारों के स्तर पर मुस्लिम महिलाओं को भी उसका लाभ मिले।

 

 

यह देखना होगा कि महिला आरक्षण से समाज में महिला-पुरुष के बीच की खाई और गहरी न हो जाए तथा गिरती राजनीतिक संस्कृति के कारण आरक्षित पदों या सीटों पर महिलाओं के चयन में राजनीतिक दलों द्वारा महिलाओं के शोषण की प्रवृत्ति को बढ़ावा न मिले। कुल मिलाकर यह जरूरी है कि इस विषय पर आगामी चुनावों में राजनीतिक लाभ लेने का मोह छोड़कर गंभीर बहस होनी चाहिए।

 

 

(लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक व राजनीतिक विश्लेषक हैं)