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महिला सरपंचों ने कहा - मैं आजाद हूं... मैंने सीख लिया पति को 'ना' कहना

राधाकिशन शर्मा, बिलासपुर। मेरा दृढ़ मत है कि इस देश की सही शिक्षा यह होगी कि स्त्री को अपने पति से भी 'न" कहने की कला सिखाई जाए। उसे यह बताया जाए कि अपने पति की कठपुतली या उसके हाथों में गुड़िया बनकर रहना उसके कर्तव्य का अंग नहीं है। उसके अपने अधिकार और कर्तव्य हैं...।


गांधी ने यह विचार करीब 80 साल पहले व्यक्त किया था। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में दर्जनों महिलाओं ने यह कला सीख ली है। गांधी जीवित होते तो इन्हें शाबासी जरूर देते। यहां सरपंच पति संस्कृति पर कड़ा प्रहार हुआ है। पंचायत के कामकाज में पतियों के हस्तक्षेप से परेशान महिला सरपंचों ने एकजुट हो बगावत छेड़ दी।


यह आसान काम नहीं था। पति के खिलाफ बगावत करना अपने ही घर में आग लगाने के समान था। घर-संसार उजड़ सकता था। पति ने तो मुंह फुलाया ही, सास-ससुर और पूरे कुनबे का विरोध सहना पड़ा। सहा, लेकिन कर दिखाया। पति को 'न" कह दिया।


मस्तूरी ब्लॉक की 50 महिला सरपंच अब घूंघट से बाहर आकर अपनी जिम्मेदारी बखूब संभाल रही हैं। घर क्या, जो कभी घूंघट से भी बाहर नहीं निकली थीं, अब अपने दम पर पंचायतों का संचालन कर रही हैं। इस घटना से समूचे क्षेत्र में महिला सशक्तिकरण की बयार बह चली है।


छत्तीसगढ़ में ग्राम पंचायत चुनाव बीते तीन वर्ष हो रहे हैं। मस्तूरी ब्लॉक में 125 ग्राम पंचायतों में से 50 में महिला सरपंच निर्वाचित हैं। अमूमन सभी पंचायतों में तीन से चार महिला पंच भी हैं। आरक्षण नियमों के चलते पति व परिजनों ने अपने प्रभाव से चुनाव जितवाकर उन्हें ग्राम पंचायत में प्रतिष्ठित तो कर दिया था, लेकिन मनमुताबिक काम करने की आजादी नहीं दी थी।


पंचायत की बैठक के दौरान घर से पति के साथ जाना और उनके द्वारा बताए विषयों को ही एजेंडे के रूप में बैठक में शामिल कराना, यही इनका काम था। इन्हें ग्रामीणों का ताना भी सुनना पड़ता था। महिला सरपंच इससे तंग आ गईं। अंतत: सभी 50 महिला सरपंच एकजुट हो गईं। उन्होंने पतियों के हस्तक्षेप के खिलाफ बगावत छेड़ दी। नारी शक्ति पंचायत संघ के रूप में एक संगठन भी बना लिया। अपने अधिकारों को पतियों से वापस लेने के लिए जमकर संघर्ष किया और अंतत: इसमें सफल रहीं।


सरपंच पत्नी के नाम पर पति दिखाते थे रौब


जिन ग्राम पंचायतों में महिलाएं सरपंच व पंच हैं, वहां ग्रामीणजन महिला के बजाय उसके पति को सरपंच के रूप में संबोधित करते थे। जनपद व जिला पंचायत से आने वाले अफसर भी महिला सरपंच के बजाय उनके पतियों को सरपंच के रूप में महत्व देते थे। हालांकि यहां अब ऐसा नहीं हो रहा है। आरंभ में इन महिलाओं को पतियों का घोर विरोध झेलना पड़ा, मगर अब शांति है।


अब मैं आजाद हूं:


ग्राम पंचायत लोहर्सी की सरपंच गौर बाई गौड़ कहती हैं,


अब तक पति के बताए अनुसार ही कामकाज कर रही थी। अब मैं आजाद हूं। सरपंच के पद पर काबिज होने के बाद मुझे इस बात का अहसास पहली बार हुआ है कि मैं इतनी बड़ी ग्राम पंचायत की सरपंच हूं। अब मैं खुद पंचायत जाती हूं। साथी पंचों व सचिव के साथ मिलकर ग्राम विकास की चर्चा करती हूूं। वहीं, नारी शक्ति पंचायत संघ की सदस्या हेमलता साहू कहती हैं, संविधान ने महिलाओं को अधिकार संपन्न् तो बनाया, मगर पति व परिजनों के हस्तक्षेप के कारण महिलाएं इससे वंचित ही रहीं। हमने पतियों व परिजनों की दखलंदाजी से परेशान होकर ही विरोध करना शुरू किया। अब हमें अपने अधिकारों और कर्तव्यों से रूबरू होने को मिला है।


खत्म हो सरपंच पति संस्कृति


इस समय देश के 14 राज्यों में शहरी निकायों में और 17 राज्यों में ग्राम पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 फीसद आरक्षण लागू है जबकि शेष राज्यों में 33 फीसद की व्यवस्था है। लेकिन सरपंच पति संस्कृति के चलते नारी सशक्तिकरण का असल मकसद इससे पूरा नहीं हो पाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी सरपंच पति संस्कृति के खात्मे का आह्वान कर चुके हैं।