Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/मातृभाषा-से-संवरेगा-शिक्षा-का-स्वरूप-एम-वेंकैया-नायडू-11959.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | मातृभाषा से संवरेगा शिक्षा का स्वरूप - एम. वेंकैया नायडू | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

मातृभाषा से संवरेगा शिक्षा का स्वरूप - एम. वेंकैया नायडू

भाषा समाज की आत्मा और मानवीय अस्तित्व को एक सूत्र में पिरोने वाला धागा है। यह चिरकाल से ही विचारों और भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम रही है। शब्द मानवता के विश्व-दर्शन को निर्धारित करते हैं। हम शब्दों को अर्थों या उन विचारों से अलग नहीं कर सकते, जिन्हें हम दूसरों तक पहुंचाना चाहते हैं। शायद इसीलिए भारत के सुविख्यात महाकवि कालिदास ने अपनी कालजयी काव्यकृति 'रघुवंशम का आरंभ ही भगवान शिव और माता पार्वती से शब्द और उनके अर्थ समझने की शक्ति प्रदान करने के निवेदन से जुड़ी स्तुति के साथ किया है :- 'वागर्थाविव संपृक्तौ, वागर्थ प्रतिपत्तये। जगत: पितरौ वंदे, पार्वती परमेश्वरौ।

 

यहां कवि ने वाक् और अर्थ का संदर्भ अटूट रिश्ते के रूप में दिया है। वास्तव में भारतीय संस्कृति में वाक् परंपरा वाग्देवी सरस्वती के प्रतीक के रूप में सदियों से विद्यमान है। देवी ललिता के हजारों नामों में से उनका एक नाम 'भाषा रूपा भी है। स्पष्ट है कि हमारे समाज का निर्माण इसी मान्यता के आधार पर हुआ है कि भाषा हमारी संस्कृति की प्राणवायु है, जो सभ्यता को आकार देती है। किसी संस्कृति की संपन्न्ता का एहसास उसके शब्दकोश, व्याकरण और एक-दूसरे से गुंथे हुए शब्दों से होता है जो न केवल सूचनाओं का संप्रेषण करते हैं, बल्कि मानवीय विचारों और भावों के समूचे संसार को भी व्यक्त करते हैं।

 

समय के साथ भाषाएं और समृद्ध होती जाती हैं तथा शब्दकोश में और शब्द जुड़ते जाते हैं। जब वक्ताओं को नए अनुभवों के बारे में बताना पड़ता है तो यह बेहद जरूरी हो जाता है। ऐसे में जीवन के साथ बंधी भाषा की डोर उतनी ही दिलचस्प है, जितना रोचक खुद मानवता का इतिहास है। चूंकि हम अपने दैनिक जीवन में वस्तुओं, स्थानों, व्यक्तियों, भावों और घटनाओं को परिभाषित एवं श्रेणीबद्ध करने की जुगत में रहते हैं तो इस दौरान भाषा हमारी जीवन-यात्रा को प्रतिबिंबित करती है। यह हमें हमारे इर्द-गिर्द घट रही घटनाओं से रूबरू कराने और दूसरों को उससे परिचित कराने में मददगार होती है। नए अनुभव नए भाव उत्पन्न् करते हैं। जैसे ही हमारा विश्व दर्शन परिवर्तित होता है तो भाषा हमें उन परिवर्तनों से एकाकार कराने का प्रयास करती है। आखिर एक दशक पहले तक किसने कल्पना की होगी कि हमारा सामना 'स्टार्टअप, 'उद्यमिता, 'इंटरनेट सर्फिंग या 'टि्वटर जैसे शब्दों से भी होगा? ऐसे में भाषा हमारे आसपास के जीवन की वास्तविकताओं और सांस्कृतिक परिवेश को प्रतिध्वनित करती है। यही वजह है कि कुछ विशेष भाषाओं में कुछ खास शब्द इतने अनोखे होते हैं कि किसी अन्य भाषा में उनका अनुवाद करना लगभग असंभव होता है। इसमें संस्कृत भाषा के 'धर्म जैसे शब्द का ही उदाहरण लें जिसके व्यापक अर्थ और गहराई की किसी अन्य भाषा में थाह लेना बेहद मुश्किल है। इस प्रकार भाषा किसी व्यक्ति की सामूहिक चेतना और संस्कृति की द्योतक है। आधुनिक भारतीय भाषाओं की यात्रा बड़ी समृद्ध रही है, जिसकी शुरुआत मुख्य रूप से शास्त्रीय भाषाओं में उनकी जड़ों से ही हुई है। एक अध्ययन के अनुसार भारत में करीब 780 भाषाओं का अस्तित्व है और 839 भाषाओं वाले पापुआ न्यू गिनी के बाद यह दुनिया में सबसे अधिक भाषाओं के वजूद वाला देश है। हमारी एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है जहां कवियों, उपन्यासकारों, संगीतकारों और कला की विभिन्न् विधाओं के महारथियों ने चतुराई और कुशलता से सभी भाषाओं का उदार भाव से उपयोग किया। हमने अन्य भाषाओं से भी शब्द आत्मसात कर अपनी भाषाओं को और समृद्ध बनाया है। हमें सभी भाषाओं को प्रोत्साहित करने के लिए निरंतर प्रयास करने चाहिए और नई रचनाओं को बढ़ावा देने के लिए विख्यात साहित्यिक हस्तियों को भी इस अभियान से जोड़ना होगा।

 

हालांकि इस परिप्रेक्ष्य में देश का मौजूदा परिदृश्य कुछ चिंतित करने वाला है। इसके लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए जा रहे कि बच्चे स्कूली शिक्षा के दौरान किसी एक विषय में पूरी तरह पारंगत हो जाएं। हालिया सर्वेक्षण दर्शाते हैं कि बच्चे शिक्षा तो हासिल कर रहे हैं, लेकिन उनकी शैक्षणिक क्षमताएं बेहद कमजोर हैं। इससे उच्च अध्ययन के लिए बुनियाद कमजोर हो जाती है। हमें इस स्थिति का निदान तलाशना ही चाहिए।

 

तमाम बच्चे विशेषकर आदिवासी इलाकों के छात्र स्कूल जाने से कन्न्ी काट रहे हैं, क्योंकि उन्हें उस भाषा में नहीं पढ़ाया जा रहा जो वे अपने घर पर बोलते हैं। भाषा अवरोध भी हो सकती है! हम ऐसी व्यावहारिक नीति अपना सकते हैं जहां शुरुआती स्कूल स्तर पर मातृभाषा पढ़ाई जाए और बाद में दूसरी भाषाओं को अपनाया जाए। लचर बुनियादी शैक्षणिक कौशल के दम पर ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था का निर्माण एक बड़ी चुनौती होगी। हमें विश्वविद्यालयों को ऐसे पाठ्यक्रम तैयार करने के लिए प्रोत्साहित करना होगा, जिसमें शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर शैक्षणिक एवं भाषायी कौशल को निखारने पर विशेष ध्यान दिया जाए।

 

अध्ययन दर्शाते हैं कि बच्चों को यदि उनकी मातृभाषा में पढ़ाया जाए तो सबसे बेहतर नतीजे हासिल होते हैं। जापान, स्वीडन, चीन और फ्रांस जैसे तमाम देशों में न केवल स्कूली, बल्कि उच्च शिक्षा भी मातृभाषा में मिलती है। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर इस साल 21 फरवरी को दिए अपने संदेश में यूनेस्को के महानिदेशक ने अध्ययन के माध्यम के रूप में मातृभाषा के महत्व को स्पष्ट रूप से इन शब्दों में रेखांकित किया था- 'अध्ययन, आत्मसम्मान और स्वाभिमान का स्तर सुधारने में मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करना बेहद आवश्यक है जो विकास के सबसे प्रमुख पहलुओं में शुमार है। आज दुनिया एक छोटे-से गांव के रूप में सिमट गई है और तमाम भाषाओं की प्रासंगिकता बनी रहेगी। ऐसे में विचारों के आदान-प्रदान में अध्ययन की विधा के रूप में भाषा, साहित्य और अनुवाद के साथ सांस्कृतिक अध्ययन अपरिहार्य हो गए हैं। हमें ऐसे अच्छे शोधों की दरकार है जिनका लक्ष्य उत्कृष्ट समालोचना, ऐतिहासिक, सैद्धांतिक और सृजनात्मक विद्वता की हमारी परंपरा को सशक्त बनाने के साथ ही इसे और सक्षम बनाए। हमें भाषा और साहित्य में अनुप्रयुक्त शोध पद्धतियों और आधारभूत अवधारणाओं की सोच विकसित करनी होगी। इसके साथ ही शोध और भाषायी अध्ययन एवं अध्यापन के साथ जुड़ी सामाजिक चुनौतियों के बीच सेतु भी बनाना होगा।

 

डॉ. आंबेडकर का दृढ़ विश्वास था कि हम बेहतर शिक्षा के दम पर अपने देश की तकदीर बदल सकते हैं। हर कोई उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ने की स्थिति में नहीं है। वर्तमान में विश्वविद्यालय लचीली व्यवस्था के माध्यम से अधिक से अधिक छात्रों के लिए उच्च शिक्षा के द्वार खोल रहे हैं, जैसे महिलाओं या कामकाजी लोगों के लिए अलग से सत्र संचालित किए जाते हैं। इन पाठ्यक्रमों को भी व्यक्ति की जरूरत के मुताबिक प्रासंगिक बनाने के साथ ही उनके तौर-तरीकों को भी रुचिकर एवं सहभागिता और अंतर्संवाद आधारित बनाना होगा। इसमें पाठ्यक्रम की गुणवत्ता व प्रासंगिकता सर्वाधिक महत्वपूर्ण होगी। इस शिक्षा अभियान को संभव बनाने के लिए विश्वविद्यालय तकनीकों का भी हरसंभव उपयोग कर रहे हैं। हालांकि हमारे विश्वविद्यालयों को निरंतर नवीनता-नवाचार की दिशा में काम करते रहना चाहिए और इस बात के उपाय तलाशने चाहिए कि अपने राज्य के और उससे इतर छात्रों को उनकी पसंदीदा भाषा में कैसे पढ़ाया जा सकता है।

 

-लेखक उपराष्‍ट्रपति हैं।