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मानवाधिकारों पर चंद खरी बातें - मृणाल पांडे

वर्ष 1950 में संयुक्त राष्ट्र संगठन ने विश्व स्तर पर मानवाधिकारों की व्याख्या करते हुए विश्वयुद्धों से घायल दुनिया को 10 दिसंबर के दिन सालाना मानवाधिकार दिवस मनाने का संदेश दिया था। उस व्याख्या का मसौदा बाइबिल के बाद दुनिया का सबसे अधिक अनूदित दस्तावेज बताया जाता है। लेकिन मानवाधिकार दिवसों की छह दशक से लंबी श्रंखला और उस पर तमाम गहन चिंतन-मनन के बाद भी दुनिया में मानवाधिकारों की, खासकर महिला, बच्चों तथा हाशिये के समूहों के मानवाधिकारों की चिंदियां उड़ाया जाना जारी है।

भारत भी अपवाद नहीं। संयुक्त राष्ट्र की व्याख्या का लब्बोलुआब यह है कि दुनिया का हर मनुष्य, स्त्री हो या कि पुरुष, कुछ सहज मानवाधिकारों का बुनियादी हकदार है और उसे जन्मना किसी तरह की हिंसक दमनकारिता से रहित वातावरण में अपनी मानवीय गरिमा बनाए रखने, समुचित शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाएं तथा कमाई की सुविधा पाने का अधिकार मिलना चाहिए। उपनिवेशवादी शोषण और दो-दो विश्वयुद्धों के दौरान हर तरह की अमानवीय हिंसा और भेदभाव झेल चुकी दुनिया के लिए यह बड़ा क्रांतिकारी विचार था, खासकर उन नवोन्मेषी देशों के लिए, जो भारत की तरह लोकतंत्र की खुली हवा में सांस लेना सीख ही रहे थे।

लिहाजा भारत ने इसे एक रूमानी उछाह के साथ अपनाया। पर आजादी के शुरुआती दिनों में जब कोई देश इस तरह का नया मानवीय विचार ग्रहण करे तो यह ईमानदार आग्रह भी अनिवार्यत: साथ चला आता है कि देश खुद अपनी पुरानी विचार-परंपराओं और राज-समाज चलाने की शैली को नए विचार की रोशनी में परखेगा और जरूरत हुई तो उनको नए सिरे से सिरजेगा।

सिर्फ मसौदे को भारतीय भाषाओं में अनूदित कर देने से कारगर नीतियां नहीं बनतीं। हाशिए पर सिमटी महिलाओं, बच्चों और तमाम तरह के अल्पसंख्य समूहों के मानवाधिकारों को बहुसंख्य समाज, सवर्णों, पुरुषों के हकों के समतुल्य मानते हुए उनकी बहाली पर गंभीर ईमानदार पहल विज्ञापनी नारेबाजी से इतर बहुत कम हुई है, उलटे यह हमको कई बार दिखता है कि आज भी उपरोक्त समूहों की हक-बहाली की संभावना से अब तक अपनी लाठी से हर भैंस को हांकते आए ताकतवर समूह तथा जातीय पंचायतें महिलाओं, बच्चों, दलितों, अल्पसंख्यकों को संसद से सड़क तक और घर से कार्यक्षेत्र तक में बराबरी के अधिकार देने की बातों पर भड़क पड़ते हैं।

अपने वास्तविक अर्थ में मानवाधिकार शब्द, खासकर जब वह परंपरागत रूप से वंचित रहे समूहों के संदर्भ में इस्तेमाल किया जाए, भारतीय भाषाओं के लिए एक अजूबा, एक उत्तर आधुनिक किस्म का विचार है। पारंपरिक तौर से भारतीय मनीषा राज-समाज और शासक की परिकल्पना ही नहीं, स्त्री-पुरुष, बच्चों-अभिभावकों, शिक्षक-छात्रों के आपसी रिश्तों के अनुक्रम और उम्मीदों को भी अपरिवर्तनीय ईश्वरीय न्याय की ही उपज मानती आई है। यह बात कि हमारा लोकतंत्र हर भेदभाव के परे हमारे तमाम नागरिकों की इच्छाओं और आकांक्षाओं से बनना और संचालित होना चाहिए, कि किस तरह हर जाति, लिंग, समुदाय के नागरिकों के हकों पर हमला लोकतंत्र पर हमला बन जाता है, हमारे कई नागरिकों और उनके चुने जनप्रतिनिधियों के लिए आज भी बिलकुल नए तरह का खयाल है। यह बात उनके दिए भौंडे वक्तव्यों से निर्भया कांड के दौरान भी उजागर हुई तो दादरी के बाद भी। हालांकि उन बयानों पर प्रबुद्ध जनता तथा मीडिया में हुई तीखी प्रतिक्रिया ने जिस तरह फतवेबाजों को माफी मांगने पर मजबूर किया, वह इस बात का शुभ सूचक है कि आज भारत का मीडिया और नागरिक मानवाधिकारों और महिला सुरक्षा के विषय में जरूरत हुई तो हर कालातीत मानी जाती परंपरा को सर के बल खड़ा करने के हिमायती हैं।

हर मनुष्य के पास एक जैसे मानवाधिकार हैं, यह दर्शन सामाजिक-राजनैतिक विषमता को यथावत स्वीकार नहीं करता, उसकी आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक वजहों को टटोलता है। जब यह होता है तो कई ऐसे मानव निर्मित नियमानुशासन दिखने लगते हैं, जो विषमता बढ़ाते हैं। वे जानबूझकर एक विशिष्ट वर्ग को लिंग, जाति, आयु तथा आयवर्ग के आधार पर दूसरों से अधिक रेवड़ियां बांटते आए हैं और उनके भेदभाव को राज-समाज ने चतुर प्रतीकात्मक तौर से ओट दी है। कभी नारी को देवपरिवार की शक्ति का दर्जा देते हुए पूजनीय बनाकर वास्तविकता पर पर्दा डाला गया तो कभी जरूरत के हिसाब से उसी नारी को मनु के हवाले से पुरुषों की अधीनता में रहने को कहा गया। जरूरत पड़ी तो स्थिति के अनुसार उसे 'ताड़न का अधिकारी" कहते हुए हिंसा को एक किस्म की सांस्कृतिक स्वीकृति तक दिला दी गई।

उधर जब लोकतांत्रिक सत्ता में बराबरी की भागीदारी का सवाल उठा तो महिलाओं, दलितों, पिछड़ों को पंचायतों में कोटा तो दिला दिया गया, पर शिक्षा या स्वास्थ्यसेवा तक सहज पहुंच नहीं सुनिश्चित की गई। नतीजतन उनका प्रदर्शन उम्मीदों से कमतर रहा, जिसे उनकी कुदरती अक्षमता का प्रमाण मानकर उनको आरक्षण न देने का तर्क पुष्ट किया गया। यही इस हाथ दे उस हाथ ले का रुख बच्चों के मानवाधिकारों के संदर्भ में भी दिखता है। सबके लिए शिक्षा सरीखे अभियानों के बाद भी शिक्षा जगत की बढ़ी जरूरतें उपेक्षित रहीं, बाल मजूरी पर कानूनी रोक लगी, पर गरीबी बनी रही। उसके कारण कई भूमिहीन माता-पिता आज भी बच्चों को बंधुआ मजूर बनाने को मजबूर हैं। जब-तब उनको मुक्त किए जाने की खबर तो आती है, पर पहले छुड़वाए गए बाल मजूरों के बारे में अक्सर कोई जानकारी नहीं कि मुक्त होने के बाद वे कहां हैं कैसे हैं?

संयुक्त राष्ट्र ने मानवाधिकारों की जो व्याख्या की है, वह केवल कमजोर वर्गों के मानवाधिकार हनन का निषेध नहीं करती, उनके लिए एक बेहतर नई स्थिति गढ़ने का भी आग्रह करती है। इसलिए जरूरी है कि हम मानवाधिकारों के नाम पर सालाना विज्ञापन छपाने और जमीनी तौर से भारतीय परंपरा का ढोल पीटने से आगे जाकर उस नई दुनिया को बनाने के जतन में लगें, जिसकी सुबह का सुहाना-सा सपना सिर्फ संयुक्त राष्ट्र संगठन की बहियों ही नहीं, अधिकतर दमित समूहों के अवचेतन में भी मौजूद है। यह सही है कि जो नई दुनिया धीमे-धीमे आकार लेगी, वह भी दंद-फंद से रहित कोई इंद्रलोक नहीं होगी, लेकिन वह सौ फीसदी ठोस वर्तमान न सही, वर्तमान की उन इच्छाओं, खुशियों और सपनों का प्रसन्न् आईना तो होगी, जिसमें जीने का अरमान सीने में लिए जाने वंचितों की कितनी पीढ़ियां आजादी के बाद खप रहीं। बिना किसी भी स्थिति की ईमानदार समझ के उसका सार्थक विरोध नहीं किया जा सकता। और मानवाधिकारों की विषमता और उनके हनन की समझ भले ही हममें से कई को शर्म या गुस्से से भरे, अंत में उसी समझ से सार्थक बदलाव की इकलौती राह निकल सकती है।

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं