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मुद्दे ही प्रतीक बन गए- दीपांकर गुप्ता

चुनावी विमर्शों में 'व्यक्तित्व बनाम मुद्दे' की बहस होती रही है। मगर चुनाव व्यक्तित्व के आधार पर लड़ा जाना चाहिए, या मुद्दों के आधार पर, यह सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ है। हमारे देश में व्यक्तित्व आधारित राजनीति नई बात नहीं है। बीच-बीच में ऐसे दौर जरूर आए, जब व्यक्तित्व का जोर कम हुआ, मगर फिर इसने वापसी भी की। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू हों, या इंदिरा गांधी, या फिर राजीव गांधी- इन सबका व्यक्तित्व राजनीति पर हावी था। उसके बाद कुछ समय के लिए अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व का भी जोर दिखा। बीच में चंद्रशेखर, देवेगौड़ा और नरसिंह राव भी राजनीतिक पटल पर उभरे, पर खास प्रभाव नहीं छोड़ पाए। जबकि मनमोहन सिंह से ठीक उलट सोनिया गांधी मजबूत शख्सियत रखती हैं।

फिलहाल भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का वक्त चल रहा है। साफ है कि राजनीति में व्यक्तित्व का प्रभुत्व भारत के संदर्भ में नया नहीं है। अगर व्यक्तित्व का कोई सार्थक और मजबूत विचारात्मक आधार भी हो, तो इसमें कुछ गलत भी नहीं है। दिक्कत यह है कि 'गरीबी हटाने', 'इंडिया शाइनिंग' या 'देश को सुधारने' जैसे दावों के बीच इस पर चर्चा नहीं होती कि यह सब होगा कैसे? राजनीतिक दलों की तरफ से जनता के भरोसे की मांग तो की जा रही है, मगर उसमें स्पष्ट नीतिगत आश्वासन मिलता नहीं दिखता। अभी मोदी जनता से अपील कर रहे हैं कि कमल पर पड़ने वाला हर वोट सीधे उनके पास आएगा। यह व्यक्तित्व आधारित राजनीति का ही नमूना है।

कांग्रेस गरीबी हटाने की, तो आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार के खात्मे की बात कहती है। इसमें दोराय नहीं कि भ्रष्टाचार खत्म होना चाहिए, लेकिन देश में क्या भ्रष्टाचार के सिवा कोई मुद्दा नहीं है? हमारी आदत है कि हम एक ही मुद्दे को पकड़कर बैठ जाते हैं। फिर यह भी समझना होगा कि व्यक्तित्व तभी उभरता है, जब प्रतीकात्मक मुद्दा राजनीति पर हावी होने लगता है। अगर एक व्यक्तित्व के तौर पर मोदी उभरे हैं, तो इसके पीछे भ्रष्टाचार को लेकर मनमोहन सिंह और गांधी परिवार से नाराजगी प्रमुख वजहें हैं। मुद्दों को प्रतीक बनाना हमारी फितरत है। परेशानी यहीं से पैदा होने लगती है। राजनीति में प्रतीकों पर जितना जोर होगा, नीतिगत मसलों पर चर्चा की संभावनाएं उतनी ही धूमिल होती जाएंगी।

यूपीए के पहले दौर का शासन व्यक्तित्व आधारित नहीं था। जैसा कि मनमोहन सिंह खुद मानते हैं कि उनका प्रधानमंत्री बनना 'एक्सीडेंट' था। इसके उलट यूपीए की दूसरी पारी में सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह, दोनों का व्यक्तित्व हावी था। इसी तरह अभी राहुल, मोदी और केजरीवाल छाए हुए हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि जनता यह क्यों नहीं सोचती कि चुनाव कुछ दिनों का खेल है। गौर करने लायक वे नीतियां हैं, जिनका असर अगले पांच वर्ष तक आम आदमी की जिंदगी पर पड़ेगा। देश में 93 फीसदी मजदूर असंगठित क्षेत्र से हैं, कोई उनके हितों की बात क्यों नहीं करता? कहने को हमने वैज्ञानिक अनुसंधान में झंडे गाड़े हैं, मगर आज भी मशीनरी का हमारा आयात बढ़ता ही जा रहा है। आयात के मामले में हम कच्चे तेल और सोने के बाद सबसे ज्यादा खर्च मशीनरी पर ही करते हैं। तेल की बात समझी जा सकती है, मगर आईआईटी जैसे संस्‍थान होने के बावजूद हमें छोटी-छोटी चीजें चीन से आयात करनी पड़ती हैं, तो यह हमारे लिए शर्म की बात है।

लोगों को नेहरू को कोसने में बड़ा मजा आता है। बेशक उनमें कमियां थी, मगर वह एक भविष्यद्रष्टा थे। आज जो बांध, शिक्षा व विज्ञान के उत्कृष्ट संस्‍थान हम देख रहे हैं, वे नेहरू की सोच का ही नतीजा हैं। विभाजन के बाद जो लोग पाकिस्तान से दिल्ली आए, उनमें कांग्रेस के खिलाफ गुस्‍सा था, पर जब वोट देने की बारी आई, तो उन्होंने कांग्रेस को हिंदू महासभा जैसे दलों पर तवज्जो दी। लोग जानते थे कि ये संगठन भले देशभक्त हों, मगर ये आगे की नहीं सोचते। लोगों ने भविष्य पर नजर रखने वाले नेहरू पर भरोसा जताया। अफसोस की बात है कि आज के नेताओं में यह गुण नहीं दिखता। सत्ता में आना ही इनका उद्देश्य रह गया है। अब मनरेगा कानून को ही लें। इसका उद्देश्य है, अकुशल लोगों को आजीविका चलाने का जरिया मिले। अच्छा है, पर अब इसके आगे सोचना होगा। समय आ गया है कि लोगों को पैसा बांटने के बजाय उनके कौशल विकास पर जोर दिया जाए। एकल खिड़की व्यवस्‍था की बात हो रही है। क्या सारी समस्याओं का समाधान यही है? जब तक प्रतीकात्मक चीजों पर राजनीति का जोर होगा, तब तक पक्का मान लीजिए कि भविष्य के बारे में कोई नहीं सोच रहा। तत्कालिक फायदों पर नजर रखने से देश का भला नहीं होने वाला। हमारी चुनावी बहसों में भविष्य को लेकर सोच नदारद है। इस मामले में नेताओं को नेहरू से सबक लेना चाहिए।

अगर मोदी के संदर्भ में चुनाव का विश्लेषण करें, तो देखना होगा कि लोगों में मोदी लहर ज्यादा है या कांग्रेस से नाराजगी। कांग्रेस से ज्यादा नाराजगी की सूरत में लोग कांग्रेस और भाजपा से अलग किसी दल को वोट दे सकते हैं। ऐसे में, भाजपा के 180 सीटों के इर्द-गिर्द सिमट जाने की आशंका होगी। मेरा मानना है कि यह चुनाव भाजपा बनाम मोदी ज्यादा है। तकरीबन 180 सीटें पाने पर यह भाजपा की जीत होगी, वहीं अगर 220-230 सीटें मिलती हैं, तो जीत मोदी की होगी। और अगर ऐसा होता है, तो इससे भाजपा के संगठनात्मक ढांचे को वैसा ही नुकसान पहुंचने की आशंका है, जैसा कभी इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को पहुंचाया था।

(प्रोफेसर एवं निदेशक, सेंटर फॉर पब्लिक अफेयर्स ऐंड क्रिटिकल थ्योरी, शिव नडार यूनिवर्सिटी)