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मुद्रास्फीति पर निगरानी की नकेल- जगदीश रतनानी

नीतिगत रेपो दर में वृद्धि के दो चक्रों के बाद, रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने इस बार एक विराम-सा लेकर उसके द्वारा बैंकों को दिये जानेवाले अल्प अवधि के ऋणों हेतु उनसे लिये जानेवाले ब्याज दर को 6.5 प्रतिशत पर अपरिवर्तित ही छोड़ दिया.

ज्ञातव्य है कि इस दर में होनेवाला कोई बदलाव एक अरसे बाद अंततः बैंक से ऋण लेनेवालों को लगनेवाली ब्याज दर में परिवर्तित हो जाता है. देश के बाजारों द्वारा यह उम्मीद की जा रही थी कि इस दर में चौथाई फीसदी की बढ़ोतरी जरूर होगी. पर इसकी बजाय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने अपनी नीति को ‘तटस्थता' से बदलकर ‘नपी-तुली कठोरता' का अनुगामी कर लिया.

उसके रुख में इस बदलाव के बाजारों और आम आदमियों के लिए क्या निहितार्थ होंगे तथा क्यों इसे तब किया जा रहा है, जब बाजार औंधे मुंह नीचे जा गिरे हैं, ये सवाल सिर उठा चुके हैं. और अंत में यह भी कि ‘नपी-तुली कठोरता' ही कौन-सी बला है?

दरअसल, रिजर्व बैंक का संदेश सरल है- निकट भविष्य में नीतिगत रेपो दर में कोई कमी तो नहीं ही होगी, अलबत्ता उसमें ठहराव या फिर थोड़ी-बहुत बढ़ोतरी जरूर हो सकेगी.

इस कठोरता का अर्थ है प्रणाली में मौजूद तरलता पर नकेल कसना, ताकि बाजारों को किसी अतिरिक्त तरलता से खेलने की गुंजाइश न छोड़ी जाये. दूसरी ओर, इसका यह अर्थ भी नहीं होता कि रिजर्व बैंक प्रणाली में तरलता डालेगा ही नहीं. अंततः तो वह शीर्ष साखदाता है ही और अपनी इस भूमिका के अंतर्गत आवश्यकता होने पर वह बैंकों को उनके आरक्षित अनुपात (रिजर्व रेशियो) बनाये रखने में मदद के लिए तैयार ही रहेगा.

सो अब प्रणाली से अतिरिक्त तरलता को क्रमशः कम करते हुए मुद्रा बाजार दरों को नीतिगत दरों के अनुरूप रहने को बाध्य कर दिया जायेगा. सवाल यह भी सामने आता है कि रिजर्व बैंक को ऐसा अभी ही करने की क्यों सूझी, जब मुद्रास्फीति धीमी है और तरलता के निमित्त बाजारों को मदद की जरूरत है?

इसका जवाब यह है कि रिजर्व बैंक की दृष्टि केवल मुद्रास्फीति के नजर आते अंकों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वह और उसकी एमपीसी उन आंकड़ों एवं सूचनाओं को भी पढ़ पा रही है, जिनमें मुद्रास्फीति के भविष्य की आशंकाएं छिपी हैं. इसलिए आरबीआई का रुख उसके इस दायित्व के अनुरूप ही है कि वह अर्थव्यवस्था के उतार-चढ़ाव को दृष्टिगत रखते हुए मुद्रास्फीति को काबू में रखे. यही मुद्रास्फीति प्रबंधन की कला तथा मौद्रिक नीति निर्माण का सारतत्व है.

जहां तक मुद्रास्फीति के अंकों का प्रश्न है, एमपीसी का यह आकलन है कि यह वर्तमान वित्तीय वर्ष के उत्तरार्ध में 3.9 से 4.5 प्रतिशत तक तथा वर्ष 2019-20 के पूर्वार्ध में 4.8 प्रतिशत की सीमा में रहेगी. वैश्विक एवं घरेलू स्रोतों से उपजी परिस्थितियों की वजह से अनिश्चितताएं तथा खुदरा मुद्रास्फीति के चढ़ने का जोखिम मौजूद है, जिनमें सरकार द्वारा किसानों को मुहैया न्यूनतम समर्थन मूल्य के प्रभाव, कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी से उत्पन्न दबाव, चढ़ता-उतरता वैश्विक वित्तीय बाजार, कच्चे माल की लागतों में वृद्धि तथा केंद्रीय और राज्य सरकारों की वित्तीय चूकें शामिल हैं.

अक्तूबर 2018 की मौद्रिक नीति रिपोर्ट में खुदरा मुद्रास्फीति से संबद्ध जोखिमों तथा अनिश्चितताओं का व्यापक एवं समग्र आकलन प्रस्तुत है. शहरी पारिवारिक प्रत्याशा सर्वेक्षण के अनुसार, अगले एक वर्ष के लिए मुद्रास्फीति प्रत्याशा में नरमी आयी है.

आरबीआई ने कच्चे माल की लागतों में वृद्धि की उम्मीद की है. वर्ष 2018-19 में विकास दर के 7.4 प्रतिशत रहने के आकलन को अच्छा माना गया है. पर आगामी चुनावों की वजह से निजी उपभोग के हावी होने एवं केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा संभावित मौद्रिक शिथिलताओं के फलस्वरूप उपजी आशंकाएं अपनी जगह मौजूद हैं.

मगर, तात्कालिक चिंताएं कच्चे तेल की कीमतों को लेकर हैं. कच्चे तेल की आधारभूत कीमतों के लिए 80 डॉलर प्रति बैरल का अनुमान करते हुए यह आकलन किया गया है कि उसमें 10 प्रतिशत का इजाफा मुद्रास्फीति में 20 आधार अंकों की बढ़त ला देगा. इससे भी बढ़कर, यदि भारत द्वारा आयातित कच्चे तेल की विभिन्न किस्मों में 20 प्रतिशत की समग्र वृद्धि होती है, तो मुद्रास्फीति 40 आधार अंकों तक बढ़ सकती है.
हमारी खुदरा मुद्रास्फीति पर वैश्विक विकास परिदृश्य के परिवर्तनों का भी असर पड़ता है, जिनमें बढ़ता संरक्षणवाद एवं व्यापार युद्ध की संभावनाएं शामिल हैं. समग्र रूप से लेने पर, यदि वैश्विक विकास 50 आधार अंक नीचे खिसकता है, तो भी खुदरा मुद्रास्फीति में 10 आधार अंकों की बढ़त आ जायेगी.

विनिमय दरों की गिरावट एक अलग चिंता की वजह है. भारतीय रुपये में आशा से अधिक गिरावट आ चुकी है. यदि रुपया 72 प्रति डॉलर की आधार रेखा से 5 प्रतिशत नीचे आता है, तो यह मुद्रास्फीति में 20 आधार अंकों की वृद्धि ला देगा.

इस रिपोर्ट का आकलन है कि यदि सरकारी एजेंसियों द्वारा फसलों की अनुमान से अधिक खरीद हुई, तो बढ़े हुए समर्थन मूल्य मुद्रास्फीति की दर को 20 आधार अंक चढ़ा देंगे. यही वे सारी संभावनाएं हैं, जिन्होंने रिजर्व बैंक को मौद्रिक नीति के निस्बत अनुशासनपूर्ण रवैया अपनाने को बाध्य कर दिया है.

(अनुवाद: विजय नंदन)