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मुसीबतों के फंदे में उलझा किसान - संजय गुप्‍त

बीते बुधवार को दिल्ली में जंतर-मंतर पर आम आदमी पार्टी की किसान रैली के दौरान राजस्थान के किसान गजेंद्र सिंह की जिस ढंग से मौत हुई, उसने न केवल लोगों को झकझोरा, बल्कि दशकों पुरानी किसानों की समस्याओं को एक बार फिर सतह पर ला दिया। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल समेत 'आप" के अन्य बड़े नेताओं की उपस्थिति में गजेंद्र पहले एक पेड़ पर चढ़े और फिर उन्होंने अपने गले में फंदा डाल लिया। लोगों के देखते-देखते गजेंद्र इस फंदे पर झूल गए। यह कहना कठिन है कि वह खुदकुशी करना चाह रहे थे या फिर ऐसा दिखावा करने की कोशिश में जान से हाथ धो बैठे, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि मार्च और अप्रैल में बेमौसम बारिश के कारण फसलों की बर्बादी से हताश-निराश किसानों की आत्महत्या का सिलसिला कायम है। गजेंद्र की मौत ने संसद के दोनों सदनों को किसानों की समस्याओं पर चर्चा करने के लिए मजबूर किया। राजनीतिक दलों ने इस घटना पर अपनी संवेदना जताने के साथ किसानों की बदहाली के लिए एक-दूसरे पर दोष भी मढ़ा।

अच्छा होता कि वे इसकी तह में जाते कि किसानों की आर्थिक स्थिति क्यों बिगड़ती चली जा रही है और इसे दूर करने के क्या उपाय होने चाहिए? पिछले दस-बारह सालों में करीब एक लाख किसानों ने किसी न किसी कारण अपनी जान दी है। यह आंकड़ा भयावह है। आर्थिक प्रगति के दौर में भी किसान यदि अपनी जान देने के लिए विवश हैं तो फिर हमारे नीति-नियंताओं को चिंतित होना चाहिए। दो-तीन दशक पहले तक किसान अपने संकट को सहन करने की क्षमता रखते थे। एक-दो फसलों की बर्बादी के कारण वे जान देने जैसे फैसले नहीं करते थे। आखिर आज ऐसी परिस्थितियां क्यों बन गईं कि किसानों के सब्र का बांध टूट रहा है?

पहले के दौर में किसान खेती के लिए पारंपरिक तरीके अपनाते थे, लेकिन अधिक उत्पादकता की होड़ में वे फसलों की लागत बढ़ाने के लिए विवश हुए हैं। महंगे उर्वरक और बीज के साथ-साथ उन्हें पानी की समस्या से भी जूझना पड़ रहा है। रही-सही कसर कर्ज के दुश्चक्र ने पूरी कर दी। आज किसान केवल खेती-किसानी के कामों के लिए ही कर्ज लेने के लिए विवश नहीं हैं, बल्कि अपने बच्चों की पढ़ाई तथा अन्य आवश्यकताओं के लिए भी उन्हें कर्ज लेना पड़ रहा है। यद्यपि केंद्र और राज्य सरकारें किसानों को सस्ते कर्ज उपलब्ध कराने के लिए कुछ योजनाएं चलाती हैं, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि किसानों का एक बहुत छोटा हिस्सा ही संस्थागत कर्ज ले पाता है। शेष किसान अभी भी साहूकारों-सूदखोरों से कर्ज लेने के लिए विवश हैं। साहूकारों और सूदखोरों से लिया जाने वाला कर्ज किसानों का पीछा नहीं छोड़ता। सत्ता का संचालन करने वाले इस तथ्य से अच्छी तरह परिचित हैं, लेकिन वे ऐसे पुख्ता उपाय नहीं कर सके हैं जिससे किसानों को सूदखोरों के चंगुल में न फंसना पड़े।

राजनीतिक दल खुद को किसानों का हमदर्द साबित करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ते, लेकिन उनकी यह हमदर्दी दिखावटी ही अधिक होती है। उनकी दिलचस्पी इसमें नहीं है कि किसानों की परेशानियों का ठोस हल निकले। वे यह देखने से भी इनकार कर रहे हैं कि किसानों पर आर्थिक दबाव किस तरह बढ़ता जा रहा है। यह किसानों का अधिकार है कि वे भी अपने जीवन-स्तर को उठाएं और मध्यम वर्ग की तरह कुछ सुख-सुविधाओं का लाभ उठाएं, लेकिन उनकी आर्थिक दशा इसकी अनुमति नहीं देती। वे जब भी इन सुविधाओं को पाने की कोशिश करते हैं, तब-तब गहरे आर्थिक संकट में पड़ जाते हैं। किसानों के हितों के नाम पर किस तरह राजनीति की जाती है, इसका ताजा उदाहरण भूमि अधिग्रहण विधेयक पर कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों का रवैया है। भूमि अधिग्रहण विधेयक के विरोध के नाम पर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की आक्रामकता वोट बैंक की राजनीति के अलावा और कुछ नहीं। वे यह कहकर खुद को किसानों का मसीहा साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि विकास जरूरी है तो लेकिन किसानों की कीमत पर नहीं। वे गलत तरीके से यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि विकास और किसानों का हित एक-दूसरे के विरोधी हैं।

कांग्रेस और अन्य दलों की कोशिश किसानों और उद्योग-व्यापार जगत को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की है। भूमि अधिग्रहण विधेयक के संदर्भ में कांग्रेस और अन्य दल यह प्रचार कर रहे हैं कि मोदी सरकार किसानों के हितों को चोट पहुंचाकर उद्योग-व्यापार जगत को फायदा पहुंचाना चाहती है। यह वह मिथ्या प्रचार है, जिसने किसानों का सबसे अधिक अहित किया है। यह आश्चर्यजनक है कि इस तरह का दुष्प्रचार उस कांग्रेस की ओर से किया जा रहा है जिसने अपने लंबे शासनकाल में बड़े पैमाने पर जमीनें उद्योग घरानों को दे दीं और इसका कोई लाभ देश को नहीं मिला। सच्चाई यह है कि मोदी सरकार कांग्रेस द्वारा बनाए गए भूमि अधिग्रहण कानून को ही आगे बढ़ा रही है और उसकी ओर से जो बदलाव किए गए हैं, वे इस कानून के अनुपालन में आने वाली व्यावहारिक दिक्कतों को दूर करने के लिए किए गए हैं। रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा समेत कुछ अन्य जरूरतों के लिए उस ढंग से भूमि अधिग्रहण नहीं किया जा सकता जैसे कि औद्योगिक आवश्यकताओं के लिए किया जाता है।

भूमि अधिग्रहण विधेयक पर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल जिस तरह की राजनीति कर रहे हैं, उससे यह साबित हो रहा है कि उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के विकास में कोई रुचि नहीं है। हर कोई जानता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत ढांचा बिल्कुल चरमराया हुआ है। वहां न तो सड़कें हैं और न ही स्कूलों, अस्पतालों और बिजली जैसी सुविधाएं। यह स्थिति तब है जब ग्रामीण विकास के नाम पर अरबों-खरबों रुपए खर्च किए जा चुके हैं। सच्चाई यह है कि शहरों से अधिक ग्रामीण क्षेत्र अनियोजित विकास की भेंट चढ़ रहे हैं। गांवों में विकास के जो भी काम किए जाने हैं, उनके लिए जमीन की आवश्यकता है। यदि जमीन ही उपलब्ध नहीं होगी तो गांवों का विकास कैसे होगा? क्या शहरों का विकास जमीनों पर नहीं हुआ है?

भारत मूल रूप से एक कृषिप्रधान देश है। यहां की दो तिहाई आबादी अभी भी किसी न किसी रूप में कृषि से जुड़ी हुई है। देश के विकास के लिए जरूरी है कि कृषि और किसानों का भी उत्थान हो, लेकिन यह काम केवल कृषि पर निर्भर रहकर नहीं किया जा सकता। देश का सही मायने में विकास तभी होगा जब कृषि लाभ का व्यवसाय बने और लोगों की आजीविका के लिए कृषि पर निर्भरता भी घटे। सरकार की नीतियां इस तरह होनी चाहिए जिससे

कृषि में लगे परिवारों के सदस्य उद्योगों और सेवा क्षेत्रों में रोजगार के लिए जाएं। आज तो स्थिति यह है कि एक बड़ी संख्या में किसान दूसरे क्षेत्रों में इसलिए नहीं जा पा रहे हैं, क्योंकि उनके पास जरूरी शैक्षणिक योग्यता नहीं है। यह स्थिति इसीलिए आई है, क्योंकि कभी भी किसानों के उत्थान के लिए सही प्रयास नहीं किए गए। यह विडंबना ही है कि एक तरफ किसानों की अनदेखी हुई और दूसरी ओर उद्योगों का भी सही ढंग से विकास नहीं किया जा सका। हो सकता है कि जंतर-मंतर पर 'आप" की रैली के दौरान एक किसान की मौत के बाद देश जागे और कृषि से संबंधित नीतियों में बुनियादी बदलाव हो।

(लेखक दैनिक जागरण समूह के सीईओ व प्रधान संपादक हैं)