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मेरी, आपकी और उनकी कार-- हरजिंदर

मध्य वर्ग के लिए कार सिर्फ कार नहीं होती। महानगरों से लेकर छोटे शहरों और कस्बों तक, वह एक ऐसे सपने का परिणाम भी होती है, जिसे लंबे समय तक संजोया जाता है। इस सपने को पूरा करने के लिए न सिर्फ जी-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है, बल्कि तरह-तरह के जुगाड़ भी बिठाने पड़ते हैं- मार्जिन मनी, कार लोन वगैरह। इस वर्ग के लिए यह सपना कितना महत्व रखता है, इसे सबसे अच्छी तरह महानगरों में समझा जा सकता है, जहां अपनी कार का सपना अपने घर के सपने को बहुत पीछे छोड़ चुका है। हालांकि इसके कारण भी हैं।

जायदाद की कीमतें इतनी बढ़ चुकी हैं कि दिल्ली या मुंबई जैसे शहरों के अड़ोस-पड़ोस, यहां तक कि दूर-दराज में भी घर खरीदने की बात सोचना अब मध्य वर्ग के बूते के बाहर की बात होती जा रही है। इसके मुकाबले कार ज्यादा आसानी से खरीदी जा सकती है। फिर इन महानगरों में पिछले कुछ दशकों में ऐसे लोग आ बसे हैं, जो छोटे शहरों और गांवों से आए हैं। उन्होंने अपना बचपन आंगन वाले घर में नीम के नीचे खेलते हुए बिताया है, इसलिए पांचवीं मंजिल पर माचिस की डिबिया जैसे आकार वाले टू-बेडरूम फ्लैट उनकी जरूरत भले बन जाएं, लेकिन वे उन्हें ज्यादा गौरव बोध नहीं देते। इसके विपरीत कार एक गौरव बोध देती है, क्योंकि उनके गांव के ज्यादातर लोग उस जमाने में साइकिल पर या बहुत हुआ, तो मोटर साइकिल पर ही आसपास के पांच जिले नाप आते थे। तब वहां पर कार दूर देश के किसी सपने की तरह थी। महानगर ने उन्हें इसी सपने को पूरा करने के अवसर दिए हैं।

लेकिन अवसरों वाले इन महानगरों ने उन्हें सिर्फ कार मालिक बनने का गौरव बोध ही नहीं दिया, बहुत कुछ और भी दिया है। कुछ को डायबिटीज, तो कुछ को ब्लड प्रेशर। कुछ को अस्थमा भी दिया है, जो खुद उन्हीं की कार से निकले धुएं के साथ घटता-बढ़ता रहता है। साथ ही ढेर सारी ऐसी बीमारियां भी मिली हैं, जिन्हें हम लाइफ स्टाइल डिजीज कहते हैं। पता नहीं, महानगरों में इन बीमारियों की संख्या ज्यादा है या फिर कारों के मॉडल। और अक्सर हर महीने आमदनी का एक बड़ा हिस्सा कार की ईएमआई में जाता है, तो एक अन्य हिस्सा नियमित रूप से डॉक्टर और मेडिकल स्टोर की भेंट चढ़ जाता है।

ईएमआई तो एक दिन खत्म हो जाएगी, लेकिन यह भेंट तो कभी न खत्म होने वाला सिलसिला बन जानी है। महानगर में सिर्फ इतना ही नहीं है। कारों की बढ़ती संख्या वाले हर शहर में वह आधे घंटे का सफर दो घंटे में पूरा करके शाम में जब घर पहुंचता है, तो उसके पास न उन बच्चों के लिए ज्यादा समय होता है, जो पापा की कार देखकर खुशी से फूले नहीं समाते, और न उस पत्नी के लिए, जिसके दो कंगन गिरवी रखकर कार की मार्जिन मनी का जुगाड़ किया गया था।

मगर महानगर में कार सिर्फ मुसीबत ही नहीं देती, सहूलियत भी देती है। लोगों को कार हासिल करने के अवसर देने वाला महानगर अक्सर इसी बहाने अच्छी सार्वजनिक परिवहन प्रणाली देने या विकसित करने की जिम्मेदारी से खुद को मुक्त मान लेता है। फिर आपकी आन-बान-शान की सवारी कार ही अकेला ऐसा साधन बचती है, जिससे आप आश्वस्त होकर कहीं आ-जा सकते हैं; भले ही इसके लिए आपको ट्रैफिक जाम में डेढ़ घंटा अतिरिक्त ही क्यों न बिताना पड़ा हो। कम से कम आप इससे ऑटो और टैक्सी वालों की किचकिच या बसों व मेट्रो की भारी भीड़ से तो बच ही जाते हैं।

मध्य वर्ग को ऐसी सार्वजनिक परिवहन प्रणाली चाहिए, जो भरोसेमंद हो, सुविधा संपन्न हो व सम्मानजनक भी, लेकिन हमारे महानगरों की परिवहन प्रणालियों में ये तीनों ही चीजें अक्सर गायब होती हैं। दिल्ली की बहु-प्रचारित मेट्रो भी इस काम को एक हद से ज्यादा नहीं कर पाई है। वैसे भी मेट्रो जैसी व्यवस्था अपने आप में कोई संपूर्ण परिवहन प्रणाली नहीं है, आगे के सफर के लिए आपको दूसरे साधनों पर निर्भर होना ही पड़ेगा। दिल्ली में भी जिन लोगों ने कार छोड़कर मेट्रो को अपनाया है, उनके लिए भी यह कार्यस्थल तक आने-जाने का ही साधन है। ट्रेड फेयर, मामा की बेटी की शादी, चुन्नू की बर्थ डे पार्टी- जहां भी आपको पूरे परिवार के साथ जाना है, कार निकालनी ही पड़ेगी, क्योंकि इसके लिए यही एक भरोसेमंद साधन है। कार सामाजिक प्रतिष्ठा देती है, लेकिन उतनी ही यह हमारी सामाजिक जरूरत भी है।

इसलिए प्रदूषण से हांफती दिल्ली जब कारों के बेतहाशा इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने की बात सोचती भर है, तो कुछ ही घंटे में उसके प्रस्ताव राष्ट्रीय चुटकुला बनकर पूरे देश में छा जाते हैं। सड़कों पर कारों की संख्या कम करने के लिए दिल्ली की सरकार के सामने जितनी समस्या मोटर वाहन अधिनियम या पुलिस के सहयोग की है, उससे कहीं ज्यादा मध्य वर्ग के मनोविज्ञान की है। केंद्र सरकार को पता है कि दिल्ली के प्रदूषण की समस्या क्या है और कितनी है? हो सकता है कि उसे कुछ समय की तनातनी के बाद दिल्ली सरकार की कोशिशों के प्रति अपना रवैया नरम करना पड़े, लेकिन मध्य वर्ग का रवैया इतनी जल्दी नरम होगा, इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती।

प्रदूषण विज्ञान के लिहाज से की जा रही दिल्ली सरकार की गणनाएं सही हो सकती हैं, लेकिन उसका मुकाबला कार के समाजशास्त्र से है। बेशक यह फैसला काफी कठिन है, क्योंकि दिल्ली सरकार को इस बार उस मध्य वर्ग की सोच और जीवन शैली से टकराना है, जिसने उसे दिल्ली की सत्ता सौंपी थी। फिर दिल्ली सरकार और मध्य वर्ग, दोनों ही यह जानते हैं कि जो समाधान सुझाया जा रहा है, वह अल्पकालिक ही है। कुछ समय में ही यह अपना प्रभाव खो बैठेगा। उसके बाद क्या होगा- यह किसी को ठीक से नहीं पता! एक सच यह भी है कि दिल्ली सरकार के फैसले की आलोचना करने वालों के पास भी अल्पकालिक समाधान का कोई वैकल्पिक फॉर्मूला नहीं है।

दिल्ली सरकार के सामने इस समय भले ही सामाजिक चुनौती हो, लेकिन उसके राजनीतिक परिणाम भी बहुत बड़े हो सकते हैं। लेकिन आने वाले कुछ महीनों में दिल्ली प्रदूषण की समस्या से कैसे निपटती है, इसका असर देश के दूसरे महानगरों पर ही नहीं, तमाम छोटे-बड़े शहरों पर भी पडे़गा। दिल्ली में अगर कोई समाधान नहीं निकलता है, तो उन्हें भी खांसते-खंखारते भविष्य के लिए तैयार हो जाना चाहिए। विकास की कीमत आखिर उन्हें भी तो चुकानी ही पड़ेगी।