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मैली होकर बेकार हो जायेंगी नदियां

नदियां हमारी संस्कृति की खेवनहार हैं. ये महज जल का स्रोत नहीं, बल्कि हमारे सुख-दुख की साथी हैं. लेकिन विकास की अंधी दौड़ में हम इन्हें इतना गंदा कर चुके हैं कि अधिकांश नदियां अब किसी काम की नहीं रह गयी हैं. पितृपक्ष पर पितरों को तर्पण के लिए यमुना के केशीघाट पर पहुंचे आइआइटी मद्रास के सेवानिवृत्त प्रोफेसर श्रीश चौधरी का कैसा रहा अनुभव, आइए जानें
श्रीश चौधरी

सेवानिवृत्त प्रोफेसर आइआइटी मद्रास

अभी पितृ पक्ष चल रहा है़ इसकी तृतीया तिथि मेरे लिए पितृ दिवस थी़ मैंने अपने पितरों का तर्पण वृंदावन में यमुना के केशीघाट पर किया, जो अब किसी नाले से ज्यादा नहीं बची है. 

पुरातनपंथी हिंदु मानते हैं कि अश्विन माह के कृष्ण पक्ष में अपने पितरों को उनकी मृत्यु की तिथि पर जल तर्पण जरूर किया जाना चाहिए़ ऐसा नहीं करने पर वे प्यासे रह जायेंगे, जिसे बुझाने के लिए वे अपने बाद की पीढ़ियों के बच्चों के पसीने पीएंगे़ चूंकि मानव शरीर के विविध स्रोतों से निकलनेवाले पानी में से पसीने 

को सबसे अशुद्ध माना जाता है और पितरों को यह न पीना पड़े, इसलिए हर जाति और हर क्षेत्र के हिंदू अपने सामर्थ्य के अनुसार यह रिवाज मनाते हैं.

हिंदुओं का मत है कि पितरों को जल का अर्पण बहते हुए पानी में करना सर्वश्रेष्ठ होता है़ और सीधे शब्दों में कहें तो यह किसी नदी में किया जाना चाहिए़ सौभाग्य से, मैं जिस स्थान पर रहता हूं वह यमुनाजी से मात्र 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है़ इसीलिए निर्धारित तिथि पर मैं वृंदावन में यमुना के केशीघाट पर सुबह-सुबह पहुंच गया़ पौराणिक कथाओं के अनुसार, इसी केशीघाट पर भगवान श्रीकृष्ण ने अनेक सिरवाले कालिया नाग के माथे पर नृत्य किया था और उसे लगभग अधमरा कर दिया था़ वजह यह थी कि यमुना किनारे खेलनेवाले ग्वाल-बाल की गेंद जब नदी में चली जाती थी और वे उसे लेने के लिए नदी में छलांग लगाते थे तो कालिया नाग उन्हें निगल लेता था़ 

लेकिन श्रीकृष्ण के हाथों सजा पाने के बाद कालिया ने अपने कृत्यों के लिए माफी मांगी और भविष्य में ग्वाल-बाल को कभी न सताने की कसम खायी़ 

आज अगर कृष्ण और उनके ग्वाल-बाल यमुना में छलांग लगायेंगे तो निश्चय ही उनके सिर-पैर की हड्डियां टूट जायेंगी, क्योंकि वहां यमुना और केशीघाट तो है, लेकिन पानी बमुश्किल ही बचा है़ यहां यमुना एक नदी से सिमटकर एक कमजोर जलधारा में बदल गयी है़ 

किसी अधूरी और परित्यक्त पुल परियोजना के तहत अर्धनिर्मित खंभों के बीच यमुना का केशीघाट कहीं छिप-सा गया है़ यहां नदी तल सूख चुका है, और जल की जो धारा बह रही है उससे तेज दुर्गंध आती है़ दरअसल, यमुनोत्री और वृंदावन के बीच बने बांधों और नहरों ने यमुना के प्राकृतिक बहाव को कमजोर कर दिया है. इसके अलावा, दिल्ली-नोएडा, मथुरा-वृंदावन और यमुना के किनारों पर बसे छोटे-बड़े शहरों से निकलनेवाले प्लास्टिक, मल-मूत्र, रासायनिक और अरासायनिक कचरे, जो सीधे यमुना में गिरते हैं, उन्होंने यमुना को एक नदी से विलग खुले नाले में तब्दील कर दिया है.

पुरानी और भव्य संरचनाएं, धर्मशालाएं, मुनियों के आश्रम, ढेरों मंदिर, सुंदर घाटों से नदी के तल तक उतरती सीढ़ियां, सारे के सारे या तो खाली पड़े हैं या बंदरों, साधुओं, भिखारियों, शराबियों और नशेड़ियों के कब्जे में जा चुके हैं. अवांछित विकास ने इन संरचनाओं पर जैसे कफन डाल दिया है और इन सबके बीच से यमुना की चीत्कार उठ रही है कि जब तुमने मेरा गला घोंट ही दिया है तो मुझे अब मर जाने दो. लेकिन यह पुकार सुननेवाला कोई नहीं है.

राजनीतिज्ञ और स्थानीय नेता इस नदी को स्वच्छ बनाने और संवारने के वादों पर अपना समय और पैसा खूब खर्च कर रहे हैं. इसी की बानगी दर्शाता है नदी के किनारे लगा एक बोर्ड, जिस पर लिखा है 'हम सबका एक ही नारा, स्वच्छ बने यमुना की धारा'. यह जख्मों पर नमक छिड़कनेवाला लगता है.

यद्यपि यमुना अभी खत्म नहीं हुई है, लेकिन अगर यह हाल रहा तो यह जल्द ही विलुप्त हो जायेगी. मेरा ख्याल है कि इस नदी के घाट पर जिस तरह मैंने अपने पूर्वजों को जल अर्पित किया है, वैसे मेरा पोता नहीं कर पायेगा, क्योंकि तब यह नदी बचेगी ही नहीं.

मेरे साथ मेरे ड्राइवर सोनूजी थे. हम कोई आधा किमी पैदल चले होंगे कि हमें कुछ नाविक मिले. उनमें से एक हमें सौ रुपये के खर्च पर एक किमी दूर नदी के दूसरे किनारे पर ले जाने को राजी हो गया. उसे पता था कि उस जगह नदी में पानी थोड़ा ज्यादा है. वह हमें उस किनारे पर ले गया और मैंने तर्पण की प्रक्रिया पूरी की. इस दौरान करीब एक घंटे तक वह हमारे साथ रुका रहा़ हम जिस नाव में बैठे थे, वह इतनी बड़ी थी कि उसमें 10 लोग आसानी से आ जायें, लेकिन रामजी नाम के उस नाविक का कहना था कि उसके पास अपनी नाव में 20 लोगों को बिठाने का लाइसेंस है. यह नाव एक लंबे बांस के सहारे खेयी जा रही थी. इससे मुझे अपने बचपन की याद आ गयी.

हाल के दिनों तक हम अपने गांव पर बागमती नदी को ऐसे ही पार किया करते थे. यहां तक कि 1960 तक जन्मे सारे पुरुषों को नाव चलाना बखूबी आता था. वहां नदी में हम बच्चे घंटों मस्ती करते थे. 

लेकिन अब बागमती पर पक्का पुल है. वहां नदी के किनारे पर अब चमड़े के कारखाने भी खुल चुके हैं, जो अधिकांश भारत में पड़ते हैं और कुछ नेपाल में भी. इन कारखानों से निकलनेवाले गंदे पानी ने बागमती को किसी काम के लायक नहीं रख छोड़ा है. हालांकि छठ पर्व आज भी इसके किनारों पर मनाया जाता है, लेकिन वह भी इसलिए कि यह सदियों से होता आ रहा है़ पिंडारुच से होकर बहनेवाली बागमती की पवित्रता भूरे, लाल और पीले गादयुक्त पानी और उसपर तैरते मानव मल की वजह से खत्म होती जा रही है.

कुछ भूगर्भीय कारणों से गंगा से अलग यमुना का पानी शुरू से ही कालापन लिये हुए है़ इसके बावजूद कुछ दशक पहले तक आप इसमें कोई बाहरी तत्व या गंदगी नहीं पा सकते थे़ हालांकि अब स्थिति बदल चुकी है़ इसके बावजूद, बहते हुए जल को पवित्र मान कर मैंने इसमें डुबकी लगायी़ दूसरी डुबकी लगाकर मैंने अपना यज्ञोपवीत बदला और मंत्र पढ़ते हुए ईश्वर, मुनियों, पितरों और उन सबको जल अर्पित किया जो मेरे लिए पिता और माता तुल्य थे़ 

आखिर में मैंने सोनूजी के हाथ में कागज पकड़ाया और दोनों हाथों से जल अर्पित किया. मैंने खुद को भरोसा दिलाया कि पर्याप्त हो गया. मैं तैर नहीं सका. हालांकि धार धीमी थी. मगर नदी छिछली थी. मेरे गंजे सिर पर किसी कड़ी चीज से चोट लग सकती थी. इसके बाद हम उन्हीं रामजी की नाव से वापस घाट पर लौट आये. मुझे बताया गया कि हर शाम केशीघाट पर वृहद पैमाने पर यमुनाजी की आरती का आयोजन किया जाता है़ 

जानकर आश्चर्य हुआ कि जिन यमुनाजी को हम इनसानों ने तरह-तरह की गंदगी से भर कर उनका गला घोंट रहे हैं, उनकी आरती भी करते हैं. 

यमुनाजी हमारी रक्षा करें. हमारे पूर्वजों की प्यास बुझे. ताकि हम क्षणभंगुर से ऊपर उठ कर शास्वत को समझ सकें और पूर्वजों की प्यास बुझती रहे. अल्पकालिकता से शाश्वतता की ओर देखने के लिए वे हमारी मदद करें.
(लेखक अभी जीएलए यूनिवर्सिटी, मथुरा में डिश्टिंग्विश्ड प्रोफेसर हैं.)