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मोदी-शाह की भाजपा ने देश के युवाओं को नाउम्मीद तो किया ही, उससे लड़ने पर भी उतारू हो गई

प्रतिस्पर्धी खेलों में लीग, सीनियर, जूनियर आदि कई स्तर की प्रतिस्पर्धाएं होती हैं. खिलाड़ी का रुतबा इस बात से तय होता है कि वह किस स्तर की प्रतिस्पर्धा में खेलता है. जो नीचे उतरकर निचले स्तर की प्रतिस्पर्धा में ‘बच्चा’ खिलाड़ियों से मुक़ाबला करता है वह अपना रुतबा ही घटाता है. यहां हम इस कसौटी पर अपनी सियासत को कसेंगे, खासकर भाजपा की सरकार को, कि वह छात्रों के आंदोलन से किस तरह निबट रही है.

इसे समझने का एक सीधा-सा तरीका यह है कि हम अपने महान दिवंगत पहलवान-अभिनेता दारा सिंह को देखें कि वे मुक़ाबले में उतरे नये पहलवान से किस तरह कुश्ती लड़ते थे. वे उससे कहते थे कि पहले मेरे भाई रंधावा से लड़ो, उसे हराओ तभी चैंपियन से लड़ने के हकदार बनोगे. मैंने उनसे पूछा था कि आप ऐसा क्यों करते हैं, तो उनका जवाब था कि ‘हर लल्लू-पंजू यह हेकड़ी जताना चाहता है कि वह दारा सिंह से कुश्ती लड़ चुका है. उसे खुश करने के लिए मैं अपना रुतबा क्यों घटाऊं?’

अब खालिस राजनीति की बात करें. ताकतवर भाजपा सरकार एक महीने से यही कर रही है. बड़े, ताकतवर लोग बच्चों से लड़ रहे हैं. उनकी नीतियों के कारण देशभर के कैम्पसों में आग लगी हुई है. और हर जगह, खासकर जहां भाजपा की सरकार है, वे इसका लगातार एक ही तरह से मुक़ाबला कर रहे हैं. सत्तातंत्र की पूरी ताकत झोंक दी, इंटरनेट और टेलिकॉम पर रोक लगा दी, और उत्तर प्रदेश में तो सामूहिक जुर्माना भी ठोक दिया.

अगर भारी बहुमत से चुनी गई सरकार अपने छात्रों की बात सुनने की जगह उससे लड़ने लगे तो इसके तीन नतीजे उभरते हैं—

सबसे पहले तो यह धारणा बनती है कि एक आततायी निरीह जमात पर जुल्म ढा रहा है.

दूसरे, इस टकराव की जो तस्वीरें सामने आती हैं उनसे ‘ब्रांड इंडिया’ की छवि दुनियाभर में खराब होती है. और इन तस्वीरों को ‘सामने आने’ से आप रोक नहीं सकते.

तीसरा, और सबसे महत्वपूर्ण यह कि इससे युवाओं में बच्चे बनाम अंकल/आंटी वाला मूड बनता है. इसे मैं स्पष्ट करना चाहूंगा.

2014 और 2019 के चुनावों में हरेक एक्ज़िट तथा ओपिनियन पोल ने यही बताया था कि देश के युवाओं, खासकर इस सहस्राब्दी में जन्मे और पहली बार वोटर बने युवाओं ने नरेंद्र मोदी का भारी समर्थन किया था. 2019 के चुनाव अभियान के दौरान देशभर की अपनी यात्राओं में मैंने युवाओं से जो बातचीत की थी वे मेरे रेकॉर्ड में दर्ज़ हैं. उनमें जिस एक नेता का नाम उभरा था वे थे मोदी. उनमें से दो बातचीत की यहां चर्चा करूंगा. नयी दिल्ली में ‘सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च’ द्वारा आयोजित परिचर्चा में मैंने मोदी की जोरदार जीत के कारणों की चर्चा की थी. खास तौर से इस बात को रेखांकित किया था कि युवाओं ने जाति, भाषा, स्थानीयता और कई जगह तो धर्म से जुड़ी अपनी पहचान को किस तरह परे रखकर मोदी को अपनाया था. उनकी आंखों में उम्मीद, जोश, और कथित ‘अच्छे दिन’ की आहट की चमक थी. वे अपने परिवार की राजनीतिक निष्ठाओं को इसलिए नहीं तोड़ रहे थे कि उन्हें किसी से नफरत थी या वे किसी से डर रहे थे. 2014 का चुनाव अगर बेहतर जीवन की उम्मीद का चुनाव था, तो 2019 का चुनाव उस वादे पर इस अपेक्षा के साथ दोबारा यकीन करने का चुनाव था कि उसे पूरा करने के लिए इतना समय तो देना ही चाहिए.
 
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