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मौत आती है पर नहीं आती - अनुराग चतुर्वेदी

'मरते हैं आरजू में मरने की/मौत आती है पर नहीं आती।" 7 मार्च 2011 को अरुणा रामचंद्र शानबाग बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य के मुकदमे का फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने मिर्जा गालिब के इस शे"र को याद किया था। सोमवार को जब अरुणा ने आखिरी सांस ली, तब काटजू ने एक बार फिर यह शे"र दोहराया। इस दर्दनाक कहानी की शुरुआत 26 नवंबर 1973 को होती है, जब जहरीली मिठाई खाकर बीमार हुए कई बच्चों को मुंबई महानगरपालिका के केईएम अस्पताल में लाया गया था। उन बच्चों की दिनभर देखभाल करने के बाद 25 वर्षीय अरुणा अस्पताल के तलघर में पहुंची, जहां एक कुत्ते पर परीक्षण चल रहा था। अरुणा को शक था कि कुत्ते के लिए लाए जाने वाले मांस को कोई चुरा रहा है। उसे वार्डबॉय सोहनलाल पर शक था। उधर सोहनलाल के मन में भी अरुणा के प्रति खुन्नस थी, क्योंकि वह उससे दूरी बनाकर रखती थी। इसी पृष्ठभूमि की परिणति थी वह घटना, जिसने अरुणा का जीवन बर्बाद कर दिया। सोहनलाल ने कुत्ते को बांधने वाली चेन से अरुणा के गले को इस तरह बांध दिया कि उसके मस्तिष्क में ऑक्सीजन का पहुंचना रुक गया। माहवारी के दौर से गुजर रही अरुणा के साथ सोहनलाल ने अप्राकृतिक कृत्य किया।

अगले दिन सुबह मैट्रन नर्स को एक सफाई कर्मचारी का संदेश मिला कि एक नर्स फटे हुए कपड़ों में बेसमेंट में है और उसके गले में कुत्तों को बांधने वाली चेन बंधी हुई है। सोहनलाल ने अरुणा के गले की सोने की चेन और सगाई की अंगूठी भी चुरा ली थी। अरुणा इस पाशविक हमले के बाद कोमा में चली गई। यहां से शुरू होती है 42 साल लंबी वह दर्दनाक दास्तान। इसमें कई पात्र हैं, कई संस्थाएं, कई अदालतें हैं। कानून हैं, अस्पताल हैं। सेवा के रूप हैं, करुणा है, हिंसा है, संयुक्त परिवार है, गरीबी है। अपनी जड़ों से कटकर नौकरी के लिए पलायन है। इच्छामृत्यु का कानूनी सवाल है। अंधेरे, पीड़ा और क्रूरता की इस कहानी ने भारतीय समाज को झकझोर दिया। दुनिया के मेडिकल इतिहास में 42 वर्ष तक कोमा में रहने का अनचाहा रिकॉर्ड भी बना गई अरुणा शानबाग।

जब अरुणा के साथ बलात्कार की घटना हुई थी, तब भारतीय कानून और नागरिक समाज इतना परिपक्व नहीं हुआ था। हमारा समाज उसके बाद मथुरा केस, विशाखा केस और निर्भया कांड का भी साक्षी हुआ। मथुरा केस के बाद सूर्यास्त के बाद महिलाओं को पुलिस थाने बुलाने पर कानूनी रोक लगा दी गई थी, विशाखा केस के बाद कामकाजी महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर यौन शोषण के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने की बाकायदा व्यवस्था की गई और निर्भया कांड के बाद बलात्कार से जुड़े सभी कानूनों पर पुनर्विचार किया गया, कई टेलीफोन लाइनों के मार्फत महिला सुरक्षा की गारंटी राज्य व्यवस्था ने दी।

लेकिन 42 वर्ष पहले क्या हुआ था? अरुणा शानबाग के मामले में कई संस्थाओं ने गलतियां कीं। केईएम अस्पताल के अधीक्षक ने अरुणा के साथ हुए बलात्कार की बात जांच अधिकारियों से छिपाई। पुलिस ने केवल दो मामले दर्ज किए : हिंसा की कोशिश और लूट। इन दोनों मामलों में सोहनलाल को सात-सात वर्ष की सजा हुई, पर न्यायाधीश ने दोनों सजाओं को एक साथ जारी रखा और मात्र 7 वर्ष में वर्ली की बीडीडी चॉल में रहने वाले मूलत: उत्तर प्रदेश के सिकंदराबाद जिले के गांव दादूपुर निवासी सोहनलाल को रिहा कर दिया गया। लेकिन उसके दुराचार के कारण निष्प्राण-सी हो गई अरुणा अपनी आवाज खोने के कारण सोहनलाल के खिलाफ बलात्कार के आरोप में गवाही नहीं दे सकी। कानून सबूतों से चलता है, संवेदनाओं से नहीं। आरोपी को एक अपराध के लिए दो बार सजा नहीं मिल सकती। यही कारण है कि सोहनलाल सस्ते में छूट गया।

अरुणा के साथ घटे हादसे को तो अब तक कानूनी परिणति तक नहीं पहुंचाया जा सका, पर भविष्य में अगर इस तरह का मामला सामने आए तो क्या हमारा तंत्र कानूनी रूप से इसके लिए तैयार है? इस मामले में कानूनविद् यह भी मानते हैं कि अस्पताल के अधिकारियों, पुलिस और न्याय-तंत्र ने इस मामले में पर्याप्त गंभीरता नहीं दिखाई। पुलिस ने सोहनलाल को जरूर कोशिश करके पुणे से गिरफ्तार किया पर उस पर वे धाराएं नहीं लगा सकी, जिसके तहत उसे आजीवन कारावास की सजा हो सकती थी। भारतीय समाज का पाखंडी रूप भी इस घटना से सामने आया, जहां अरुणा के मंगेतर ने ही बलात्कार की रिपोर्ट न लिखाने की बात कही।

उत्तर कर्नाटक के हल्दीपुर गांव की अरुणा शानबाग को दो महत्वपूर्ण वजहों से याद रखा जाएगा। उसके मामले में भारतीय न्याय प्रणाली ने पहली बार इच्छामृत्यु को माना। यह अलग बात है कि अरुणा के मामले में उसकी सेवा करने वाली नर्सों ने इसे अस्वीकार कर दिया और 42 वर्षों तक मन लगाकर अपनी सहयोगी की सेवा की। यह सेवा इतनी जबर्दस्त थी कि इन वर्षों में अरुणा की पीठ पर एक भी फफोला नहीं पड़ा। बिस्तर पर लेटे-लेटे मरीज के शरीर में कई रोग हो जाते हैं, वे भी उन्हें नहीं हुए। केईएम अस्पताल में वार्ड नंबर 4 की मरीज अरुणा की सेवा सभी नर्सों ने अपनी परंपरा के अनुसार करते हुए न केवल अपने नर्स होने को सार्थक किया, बल्कि कई उन अस्पतालों के समक्ष यक्षप्रश्न भी खड़ा कर दिया, जो सेवा की जगह स्वास्थ्य सेवाएं चला रहे हैं।

क्या उदारीकरण के इस युग में यदि किसी प्राइवेट अस्पताल में किसी नर्स के साथ यह घटना घटी होती तो वहां का प्रबंधन 42 वर्ष तक उसके लिए वार्ड में कोई जगह रखता? क्या सर्वोच्च अदालत के आदेश का किसी निजी अस्पताल द्वारा पालन किया जाता? केईएम अस्पताल की नर्सों ने न केवल अपनी सहयोगी की स्मरणीय सेवा की, बल्कि उसे जब परिवार, मंगेतर और समाज ने भुला दिया, तब भी उसकी सेवा का अपना कर्तव्य निभाती रहीं। इतना ही नहीं, अस्पताल की नर्सों ने ही भोईवाड़ा श्मशान गृह में अरुणा का अंतिम संस्कार किया। उन्होंने अंतिम समय में अरुणा के परिजनों के आने का विरोध किया। उन्होंने मशहूर अंग्रेजी लेखिका पिंकी विरानी को भी आड़े हाथों लेते हुए कहा कि वे सिर्फ पुस्तक लिखने के लिए ही अरुणा से मिलीं। दूसरी तरफ पिंकी विरानी का यह कहना भी जायज है कि अरुणा तो 27 नवंबर 1973 को ही मर गई थी, उसे पीड़ा और भय में क्यों जीवित रखा गया।

भारत में जीने के अधिकार को संवैधानिक दर्जा दिया गया है, लेकिन इच्छामृत्यु को मान्य नहीं किया गया है। यह बहस जारी है, क्योंकि कई समाजों में इस बहस को कानूनी दर्जा दिया जा चुका है। अरुणा की मृत्यु के बाद अब यह बहस फिर से सामने आ गई है। अरुणा की त्रासदी ने जिस तरह के सार्वजनिक और गोपनीय सवालों को भारतीय समाज के सामने ला खड़ा कर दिया है, उसके जवाब पिछले 42 वर्षों में नहीं मिले हैं, पर इस त्रासदी ने कानून और समाजशास्त्र के दायरे में अनेक विमर्शों को जन्म दे दिया है। पता नहीं, उनका जवाब कभी मिल सकेगा या नहीं?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व 'महानगर" (मुंबई) के पूर्व संपादक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)