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मौत के बाद भी ‘दुधारू’ रह जाती है गाय-- प्रेम कुमार

दुधारू गाय की हत्या की बात सोचना भी पाप है. जो गाय दूध, दही, मिठाइयां, पनीर, खीर से लेकर गोबर, गोमूत्र देने और खेती-किसानी में काम आती हैं, घर के सदस्य जैसी होती हैं, घर की आमदनी होती है उस गाय को कोई मारे तो यह उसकी मूर्खता होगी. सवाल ये है कि फिर ऐसी मूर्खता हो क्यों रही है?

गाय पर निर्भर लोग नहीं सोचते गोकशी की बात
जो लोग गाय पालते हैं, उससे होने वाली आमदनी पर निर्भर करते हैं वो वाकई गाय की पूजा ही करते हैं, मारने की नहीं सोचते. लेकिन, इसी समाज में एक तबका गाय के साथ नहीं रहता, उससे दूर रहता है और गाय के फायदों को अप्रत्यक्ष रूप से भोगता है. यह तबका गाय पर निर्भर भी नहीं है. उनके लिए गाय स्वाभाविक रूप से गोमाता वाले रूप में नहीं होती. इसी तबके में वे लोग भी शामिल होते हैं जो गाय को खुराक समझते हैं. यानी गाय को माता मानने वाले और उन्हें अपनी खुराक समझने वाले इसी समाज की सच्चाई हैं.

गायों को माता मानना भी पेशेवर नजरिया
गाय से जुड़ा सबसे अहम पहलू ये है कि देश की कृषि आज भी इन्हीं गायों पर निर्भर है. बैलों से ही खेत जोते जाते हैं. इसके अलावा डेरी फार्म उद्योग के लिए भी गायें जरूरत बन चुकी हैं. प्रकारांतर से देखें तो गाय को माता मानना भी पेशेवर नजरिया है. गो माता है तो इसी समाज में गो धन भी है. हालांकि गाय को चारा समझना भी पेशेवर नजरिए को ही बयां करता है लेकिन यह नजरिया संकीर्ण है. इस तबके के जीवन में गाय परिवार के सदस्य की तरह नहीं होतीं. लिहाजा भावना और उपयोगिता की अहमियत समझने का स्तर भी वो नहीं रहता. ऐसे में गोवंश चारा बनकर उनके लिए गोकशी के व्यापार का हिस्सा बन जाता है.

गोकशी से होती है मोटी कमाई
जब गोकशी का विरोध होता है, तो विरोध करने वाले लोग गाय की उपयोगिता और उसके गोमाता का दर्जा होने की बात जोर-शोर से कहते हैं. लेकिन सच ये भी है कि ये गाएं उन्हीं लोगों से खरीदी जाती हैं जो इन्हें पालने वाले होते हैं, जो इन्हें परिवार के सदस्य की तरह पालने का दावा करते हैं. इसलिए गाय से कमाई करने की शुरुआत तो दरअसल गाय को माता मानने वाला तबका ही करता है. बाद में गोवध को उद्योग रूप देने वाला तबका इससे मोटी कमाई करते हुए इसका निर्यात करता है.

अगर गोकशी ना हो तो....

जेएनयू के प्रोफेसर विकास रावल ने इस बारे में जो अध्ययन सामने रखा है उसके मुताबिक हर साल देश में 3.4 करोड़ गायों की संतानें जन्म लेती हैं. 8 साल में इनकी संख्या 27 करोड़ हो जाएगी, अगर इस दौरान कोई वध ना हो. अगर एक गाय/बैल के लिए 9 बाइ 9 फीट जगह भी मानी जाए, तो 5 लाख एकड़ जमीन की जरूरत केवल इनके रहने के लिए होगी. अगर शेड बनाते हैं तो शेड बनाने की लागत 10 लाख करोड़ आएगी. इन गायों/बैलों के लिए चारे पर खर्च 5.4 लाख करोड़ रुपये होंगे. इसका मतलब ये हुआ कि केवल बैलों का चारा हमारे देश की रक्षा बजट यानी 2.7 लाख करोड़ का दुगुना होगा. इन तथ्यों की रोशनी में भी क्या आप कहेंगे कि देश गायों के वध नहीं करने के बाद की स्थिति को झेल लेगा?

गोकशी पर हल्ला, भूख से गायों की मौत पर क्यों नहीं?
गोशालाओं में लगातार भूख से पशुओं की हो रही मौत यह बताती है कि गोकशी के बावजूद बचे हुए गोवंश के लिए हम चारे का इंतजाम नहीं कर पा रहे हैं, हालांकि भूख से इंसानों की भी मौत हो रही है. इसका ये मतलब कतई नहीं है कि देश में चारे की कमी है लेकिन मुनाफे पर टिकी समाज व्यवस्था अनाज को सड़ने के लिए छोड़ सकती है, इंसान या जानवर को मरने के लिए छोड़ सकती है लेकिन अपना फायदा नहीं छोड़ सकती, या कहें, कि घाटे का सौदा नहीं कर सकती,

गायों की मौत के लिए राजनीतिक दल नहीं, व्यवस्था दोषी

गायों की मौत बीजेपी शासित हरियाणा में हो रही हो या गुजरात में, यह विषय राजनीतिक नहीं है. तथ्यात्मक रूप से भूख और अव्यवस्था से मौत की बानगी है, जिसके लिए कोई खास राजनीतिक दल जिम्मेदार नहीं है. हां, राजनीतिक व्यवस्था जरूर जिम्मेदार है और इसलिए सभी राजनीतिक दल इसके लिए दोषी हैं.

राजनीतिक मुद्दा है गायों की भूख और अव्यवस्था से मौत

क्या वाकई गायों की भूख और अव्यवस्था से मौत राजनीतिक मुद्दा नहीं है? चूकि राजनीति गोमाता, गोहत्या जैसी शब्दावलियों का इस्तेमाल करती आयी है, इन भावनाओं के जरिए लाभ-हानि से जुड़ी रही है इसलिए अगर बीजेपी शासित राज्य की गौशालाओं में गायों की मौत होती है तो यह सवाल राजनीतिक रंग लिए बगैर नहीं रह सकता. जब सरकारें गायों को चारा देने तक की स्थिति में नहीं है, रहने का वातावरण नहीं दे पा रही है तो सरकार को क्या हक है गोकशी रोकने का?

राजनीतिक नजरिये से मरने के बाद भी दुधारू रही है गाय

दरअसल राजनीतिक नजरिए से भी गाय दुधारू रही हैं. इसलिए राजनीति में गायों का जिन्दा रहना अपरिहार्य बन चुका है. यह गाय कभी गो माता बनकर जिन्दा रहती हैं, कभी बुचड़खाने में मौत के बाद जिन्दा रहती हैं तो कभी गौशालाओं में भूख से तड़प-तड़प कर जान देने के बाद जिन्दा रहती हैं.

(21 साल से प्रिंट व टीवी पत्रकारिता में सक्रिय, prempu.kumar@gmail.com )