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म्यांमार के जियावडी गांव में बसता है ‘बिहार’

म्यांमार और भारत के रिश्ते सदियों पुराने हैं। लेकिन कम लोगों को ही पता होगा कि म्यांमार में भी एक ‘बिहार' बसता है। म्यांमार के बगो प्रांत का जियावडी गांव सवा सौ साल पहले धोखा देकर बिहार से लाए गए गिरमिटिया अर्थात अनुबंधित मजदूरों के वंशजों से आबाद है।

ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजों ने बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के हजारों लोगों को दुनिया के अनेक देशों में गिरमिटिया के रूप में भेजा था। गिरमिमिटयों ने अपनी मेहनत से उन देशों को आबाद किया। मारीशस, फिजी, त्रिनिदाद एवं टोबैगो और सूरीनाम जैसे ज्यादातर देशों में उनकी अगली पीढियां ऊंची शिक्षा पाकर राजनीतिक-आर्थिक रूप से प्रभावशाली बन गईं। लेकिन जियावडी लाए गए गिरमिटियों की संतानें शिक्षा के अभाव में कामयाबी से दूर रह गईं।

जियावडी के लोगों का मुख्य काम खेतीबाड़ी है। कई लोग फुटकर व्यापार भी करते हैं। कुछ शिक्षक हैं और कुछ हिंदुस्तानी ढाबे भी चलाते हैं। यहां हिंदू कल्याण सहयोग समिति का औषधालय चलाने वाले डॉंक्टर शिवप्रसाद वर्मा के मुताबिक, जियावडी के भारतवंशियों के पुरखे बिहार के भोजपुर इलाके के थे। 1880 के दशक में आरा जिले के डुमरांव के जागीरदार राजा केशव प्रसाद सिंह की सेवा से खुश होकर अंग्रेजों ने उन्हें तब भारत का हिस्सा रहे म्यांमार में इस इलाके की 20 हजार एकड़ जंगली जमीन 99 साल के पट्टे पर दी थी।

इस जमीन को खेती लायक बनाने के लिए बडी तादाद में मजदूरों की जरूरत थी। इसके लिए डुमरांव रियासत के दीवान रायबहादुर हरिहर प्रसाद सिन्हा ने 1886 में आरा, बिहिया, बक्सर, मोतिहारी आदि क्षेत्रों से साढ़े तीन हजार किसानों को यहां पहुंचा दिया। सिन्हा ने किसानों को खाना, कपड़ा, रिहायशी जमीन और खर्च देने तथा शिक्षा व दवा सुलभ कराने का वादा किया था। इस क्रम में दीवान और तत्कालीन बंगाल सरकार बीच शर्तनामा भी बनाया गया।

उसकी एक एक प्रति किसानों को भी दी गई। फिर उन्हें सपरिवार जहाज से रंगून पहुंचा दिया गया। रंगून में दीवान के ठेकेदारों ने किसानों से शर्तनामा ले लिया। उनसे किए गए वादे भी पूरे नहीं किए गए।

वर्मा ने बताया कि 1902 में लगभग चार हजार किसान और लाए गए। उन्होंने जियावडी को आबाद किया। जंगल काटे और जमीन को समतल करके खेती योग्य बनाया। यहां भी जमींदारी प्रथा चल पड़ी। तब भारतवंशी किसानों की आबादी 20 हजार से ज्यादा थी। लेकिन उनके लिये मात्र एक औषधालय था। स्कूल भी प्राथमिक था और ठेकेदारों ने किसानों के बच्चो ऊंची कक्षा में नहीं जाने दिया। दस-दस, बारह-बारह साल तक पढ़ने के बाद भी उन्हें तीसरी-चौथी कक्षा से आगे नहीं बढ़ने दिया जाता था। उन्हें हिसाब लगाना या भूमि की पैमाइश तो बिल्कुल नहीं सिखाई जाती थी। बाद में एक सामाजिक कार्यकर्ता श्रीराम वर्मा ने जियावडी हाईस्कूल की स्थापना की जहां भारतवंशी समुदाय के बच्चों को ऊंची कक्षाओं तक पढम्ने का मौका मिला। अब यह स्कूल सरकारी हो चुका है।

वर्मा के मुताबिक, विरल आबादी वाले म्यांमार में हर व्यक्ति के पास दसियों एकड़ जमीन है। यहां की मुख्य फसल दलहन, धान और गन्ना है। यहां देश की सबसे पहली चीनी मिल खुली थी। आज यहां दो चीनी मिलें काम कर रही हैं। म्यांमार के निर्यात का बडा हिस्सा दालों का होता है जो यहां पैदा होती है। यहां चार प्रखंडों जयपुर, रामनगर (लबेंजी), साधुगांव और गोपालगंज के अंतर्गत करीब 130 गांवों में भारतवंशियों की आबादी फैली है। करीब 70 हजार भारतवंशियों में 1400 से 1500 मुसलमान व ईसाई हैं। सिख बिल्कुल नहीं हैं। कुछ परिवार तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, ओडिशा, बंगाल और मध्यप्रदेश के भी हैं।


भारतवंशियों की आबादी 70 हजार
जियावडी गांव म्यांमार की पुरानी राजधानी यांगून से करीब पौने दो सौ किलोमीटर की दूरी पर है। यह बगो प्रांत के पेगू डिवीजन के टांगू जिले में पड़ता है। इसका नाम जयवती रखा गया था जो म्यांमार की भाषा के असर से जियावडी हो गया। यह फ्यू टाउनशिप के तहत आता है जिसमें भारतवंशियों की आबादी करीब 70 हजार है। इनमें से लगभग आधे लोग जियावडी में रहते हैं।