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यह कैसी शिक्षा व्यवस्था?-- अनुपम त्रिवेदी

पिछले दिनों जब एक न्यूज चैनल ने बिहार-बोर्ड के टाॅपर्स का साक्षात्कार किया, तो न केवल उन टाॅपर्स की, बल्कि पूरी शिक्षा-व्यवस्था की पोल-पट्टी खुल गयी. समाचार पत्रों से लेकर सोशल मीडिया तक बिहार के शिक्षा-तंत्र की बखिया उधेड़ दी गयी.

राजनीतिक दलों ने भी इस मौके को खूब भुनाया. लेकिन, सब यह भूल गये कि बिहार का यह नंगा सच केवल बिहार का ही नहीं, बल्कि लगभग पूरे देश का भी है. इक्का-दुक्का अपवाद छोड़ दें, तो सारे देश की शिक्षा-व्यवस्था का हाल यही है. रेट कम ज्यादा हो सकता है, पर शिक्षा सब जगह बिक रही है. स्कूल, काॅलेज विद्या के मंदिर नहीं दुकानों में तब्दील हो चुके हैं. नंबर, ग्रेड और डिग्री की ऐसी होड़ मची है कि इनसानों और भेड़ों में फर्क करना मुश्किल हो गया है.

आज देश की लगभग आधी आबादी 25 वर्ष से कम उम्र की है. हमारे सामने चुनौती है कि हम अपनी इस नयी पीढ़ी को अच्छी शिक्षा दें और उन्हें आनेवाले समय के लिए तैयार करें. लेकिन, अपनी जर्जर और भ्रष्टाचार में डूबी शिक्षा-प्रणाली से यह कार्य कैसा करेंगे, यह एक बड़ा प्रश्न है.

देश में शिक्षा की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है. आजादी के 69 साल बीत जाने के बाद भी सरकारी नियंत्रण वाले स्कूलों में न तो शिक्षा का स्तर सुधर पा रहा है और न बुनियादी सुविधाएं मिल पा रही हैं. 2013-14 की सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, प्रतिवर्ष पूरे देश में आठवीं तक आते-आते करीब 31 लाख बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं. करीब 1,800 विद्यालय पेड़ के नीचे या टेंटों में चल रहे हैं. 

24 हजार विद्यालयों में पक्के भवन नहीं हैं. संभव है कि पिछले दो सालों में कुछ सुधार हुआ हो, पर फिलहाल आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं.
अगर प्राथमिक शिक्षा का हालत खराब है, तो उच्च-शिक्षा भी अच्छी स्थिति में नहीं है. कभी नालंदा और तक्षशिला का दंभ भरनेवाले इस देश के पास एक भी नामी विश्वविद्यालय नहीं बचा है. दुनिया की टॉप 200 यूनिवर्सिटी में एक भी भारतीय नाम नहीं है. हमारे अधिकतर स्नातक, इंजीनियर, डाॅक्टर व एमबीए डिग्रीधारक नौकरी पाने के लायक नहीं हैं.

क्या ऐसी अधकचरी शिक्षा-प्रणाली से हम 21वीं सदी को भारत की सदी बना पायेंगे? संयुक्त राष्ट्र के मानव-विकास के मानक (ह्यूमन डेवेलपमेंट इंडेक्स) में दुनिया में हमारा 130वां स्थान हमारी असलियत का आईना हमें दिखाता है. 

सरकार के द्वारा शिक्षा को आम-आदमी तक पहुंचाने और गुणवत्ता सुधारने के लिए 2009 में ‘शिक्षा के अधिकार' (आरटीइ) का अधिनियम लागू किया गया. इसके द्वारा शत-प्रतिशत साक्षरता प्राप्त करने के उद्देश्य से 6 से 14 वर्ष के बच्चों की शिक्षा अनिवार्य कर दी गयी. 

स्कूलों में ढांचागत सुविधाएं मुहैया कराने के लिए 2012 तक की और गुणवत्ता संबंधी शर्तें पूरी करने के लिए 2015 की समय-सीमा रखी गयी. आज अधिनियम को लागू हुए सात साल होने को आये हैं, मगर कानून के मुताबिक न तो स्कूलों में शिक्षकों की पूरी नियुक्ति हुई है और न ही बुनियादी सुविधाओं का सम्यक विस्तार ही हुआ है. हम कमोबेश वहीं खड़े हैं, जहां से चले थे.

आखिर शिक्षा की दुर्दशा का जिम्मेवार कौन है? क्यों लगातार प्रयासों के बाद भी शिक्षा की हालत जस-की-तस है? इसका उत्तर ढूंढने के लिए मूल समस्याओं को देखना होगा.

सबसे बड़ी समस्या है सरकारी नौकरी, जिसमें काबिलियत नहीं मेरिट को आधार बनाया जाता है. उन्हीं का चयन होता है, जिनके ज्यादा नंबर होते हैं. नंबर का खेल यह है कि हाइस्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षा में खुलेआम नकल होती है. ऐसे नकल करनेवाले नंबर भी ले जाते हैं और नौकरी भी.

गिरते शिक्षा-स्तर का एक प्रमुख कारण शिक्षकों की कमी भी है. हालत यह है कि कहीं-कहीं तो 200 बच्चों पर 1 शिक्षक ही तैनात है और कहीं पूरा का पूरा विद्यालय शिक्षामित्र के सहारे चल रहा है. पूरे देश में करीब 1.5 लाख विद्यालयों में 12 लाख से भी ज्यादा पद खाली पड़े हैं. इस कारण करीब 1 करोड़ से ज्यादा बच्चे स्कूलों से बाहर हैं.

दरअसल, शिक्षा अब ऐसा पेशा बन चुकी है, जहां लोग अब सिर्फ मजबूरी में आते हैं. जिसको कहीं नौकरी नहीं मिलती, वह शिक्षक बन जाता है. इसको ध्येय के रूप में लेनेवालों की संख्या अब बहुत कम रह गयी है. इसकी एक वजह यह भी है कि शिक्षा के क्षेत्र में पर्याप्त पैसा नहीं है. इसी के चलते पैसा कमानेवाले कोचिंग-संस्थानों की बाढ़ आ गयी है. स्कूलों में पढ़ाने के बजाय शिक्षक ट्यूशन पढ़ाने में ज्यादा रुचि लेते हैं.

अच्छे शिक्षकों के अभाव का ही परिणाम है कि बच्चों के सीखने व समझने के स्तर में लगातार गिरावट हो रही है. कई विद्यालयों के कक्षा छ: तक के बच्चे ठीक से जोड़-घटाना और गुणा-भाग तक नहीं कर पाते हैं. पर ऐसा नहीं है कि सारे शिक्षक नाकाबिल हैं. बहुत सारे अच्छे शिक्षक भी हैं, पर सरकारी स्कूलों में उनको गैर-शिक्षकीय कार्य जैसे चुनाव, सर्वे, जनगणना, पल्स-पोलियो इत्यादि में लगाया जाता है, जिससे उनके अध्यापन का क्रम टूट जाता है. अनेक शिक्षकों का समय मध्याह्न-भोजन कैसे बनना है, उसके लिए अनाज-सब्जी लाना, गैस-तेल आदि का इंतजाम, बच्चों की पुस्तकों को बांटने, छात्रवृत्ति के लिए खाता खुलवाने आदि में निकल जाता है.

अन्य क्षेत्रों की तरह शिक्षा में भी हर स्तर पर भ्रष्टाचार है. हालात कैसे हैं, इसकी बानगी इसी से मिलती है कि इस समय हरियाणा और मध्य प्रदेश के पूर्व शिक्षा मंत्री जेल में हैं. जब इतने बड़े व्यक्ति भ्रष्टाचार में संलिप्त होंगे, तो छोटे अधिकारियों से क्या उम्मीद रखी जाये? सरकारी स्कूलों की दुर्दशा का फायदा प्राइवेट स्कूल जम कर उठा रहे हैं. मोटी फीस और अन्य उगाही से इन्होंने निजी-शिक्षा को धंधा बना दिया है. समृद्ध बच्चे तो इनमें पढ़ पा रहे हैं, पर गरीब बच्चे छोटे-मोटे काम कर अपनी पढ़ाई-लिखाई के दिनों को जाया कर रहे हैं. इस तरह गरीब-अमीर के शैक्षणिक स्तर में गहरी विषमता उत्पन्न हो रही है.

दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी वाला हमारा देश अगर अब भी नहीं चेता, तो हमारी युवा-शक्ति कब बोझ में बदल जायेगी, यह पता भी नहीं लगेगा.