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युवा, कट्टरवाद और हिंसा-- संदीप मानुधने

हर तरफ एक घटना स्पष्ट दिखती है- पहले से अधिक संख्या में युवाओं का कट्टरवाद की ओर झुकाव. एक जुड़े हुए विश्व में यह भारी समस्या है, क्योंकि छोटी सी घटना भी सबको दिखने लगती है और तोड़-मरोड़ कर पेश की जा सकती है. एशिया, यूरोप या अमेरिका, सभी जगह नीति-निर्माताओं को चिंता सता रही है कि कैसे इस झुकाव को रोका जाये और सकारात्मकता की ओर मोड़ा जाये. इस समस्या को समझने के लिए हमें इसके आयाम समझने होंगे.

सबसे पहले नजर डालते हैं कि किसी भी युवा के लिए कौन से लक्ष्य सबसे अधिक मायने रखते हैं. मुझे पांच लक्ष्य समझ आते हैं- अच्छी जॉब, बढ़िया सैलरी, समाज में नाम, परिवार की खुशी और अगले दस वर्षों तक स्थिरता व सफलता की उम्मीद. यदि युवा वर्ग इन पांच लक्ष्यों को, या इनमें से कुछ को हासिल करने में खुद को सक्षम मानता है, तो उसका सारा व्यक्तित्व और लगाव सकारात्मक क्रियाकलापों की ओर हो जाता है अन्यथा उसे भटका पाना बहुत आसान होता है. जब-जब राजनीतिक अस्थिरताओं का दौर आता है, युवा अपनी खुद की जमीन तलाशने हेतु नये प्रयोग करने लगते हैं.

किंतु असली समस्या तब पैदा होती है, जब युवाओं को एक पूर्णतः बिखरती हुई व्यवस्था दिखती है.

इसका उदाहरण है- अरब क्रांति का युग (2010 से 2015), जब कई अरब देशों में युवाओं ने उग्र प्रदर्शन कर पुरानी, परिवार-आधारित सत्ताओं को चुनौती दी. कुछ देशों में तो लक्ष्य हासिल हुए भी, मसलन ट्यूनिशिया, किंतु कुछ अन्य में भयानक आपदा आ गयी. कट्टरपंथियों ने युवाओं को भड़का कर आतंकवादी बना दिया. सौ वर्ष पूर्व की ब्रिटेन, फ्रांस और रूस जैसी औपनिवेशिक शक्तियों की गलतियों (जैसे साइक्स-पिको समझौता, जिसने उस्मानी साम्राज्य को काट कर नये देश बना दिये) का हवाला देकर इसलामिक स्टेट ने एक नयी भूमि तैयार की, जहां युवा लड़ाकों से ऐसे अपराध करवाये जा रहे हैं, जो अकल्पनीय हैं.

इस सफल मॉडल को देख कर, अनेकों देशों में कट्टरपंथी सोच वाले प्रचारकों को मानो एक फाॅर्मूला मिल गया. चूंकि सही सक्षमता देनेवाली औपचारिक शिक्षा प्रणाली बदलते जॉब-मार्केट में परिणाम नहीं दे पा रही है, तो अलग-अलग स्तर पर कुंठा चारों ओर वैसे ही फैली हुई है.

एक अच्छे भौतिक जीवन की चाह में मेहनत कर रहे युवाओं को मीडिया ने अपने विज्ञापनों और कार्यक्रमों से जिस प्रकार का आदर्श प्रस्तुत किया, उससे और कुंठा बढ़ी. इन बच्चों ने (15 से 25 के युवा) अपने चारों ओर भारी भ्रष्टाचार देखा, नेताओं को महल खड़े करते देखा, पुलिस का पंगुपन देखा और परीक्षाओं में खुलेआम आदर्शों को बिकते देखा. ऐसे में जब घर के बड़े इन्हें आदर्श पथ पर चलने का पाठ पढ़ाते हैं, तो युवा इसे हजम नहीं कर पाता.

कश्मीर की समस्या विकराल इसलिए होती गयी, क्योंकि पड़ोसी देश ने लगातार आग लगाने का काम किया, जबकि हमारे नेता न तो शायद सही संवाद कर पाये और न ही बेहतर जीवन हेतु अवसर दे पाये. कश्मीरी युवक भारत के अन्य प्रदेशों में प्रेम से पढ़ते हैं, रहते हैं और शायद किसी को उनसे कोई विशेष शिकायत नहीं होती. किंतु कश्मीर में भारी बवाल मचता है. उसी प्रकार केरल की स्थिति है. मैं दो बार लंबी छुट्टियों में केरल गया, और मुझे कोई स्व-स्फूर्त या दृश्य धार्मिक असहिष्णुता नहीं दिखी. लेकिन आइएस को यहां से लगातार रंगरूट मिल रहे हैं.

भारत जैसे बेहद बहु-सांस्कृतिक देश में, कट्टरपंथ कोई समाधान है ही नहीं. मेरे विचार से इन पांच प्रयासों से हम एक दीर्घावधि योजना बना सकते हैं-

1. धर्म के मामले में राजनीतिक एकमत : सभी पार्टियों को अब एक बात समझ लेनी होगी कि उन्हें धर्म का राजनीतिक शोषण बिलकुल बंद करना चाहिए. इसके हिंसात्मक परिणाम उन्हें भी नहीं बख्शेंगे. एक आक्रामक पंथ-निरपेक्षता अपनाने का समय आ गया है. समाज के नेता राजनीतिक दलों और कट्टरपंथी विचारकों को ये संदेश दें. इतिहास के असली नायकों की कहानियां- जैसे कबीर, शिवाजी, विवेकानंद, सीमांत गांधी आदि- एक आधुनिक फ्लेवर के साथ युवाओं को सुनायी जायें, ताकि वे उसे ग्रहण कर कट्टरपंथ के खतरे को समझें.

2. पुलिस का सामाजिक पहलू : पहले ही स्तर पर, जब कट्टरवाद का बीज कोई बोने का प्रयास करे, तो पुलिस का तंत्र और उसकी स्थानीय समाज में पकड़ इतनी अच्छी और सकारात्मक हो कि उस युवा को काउंसेलिंग प्रदान कर रोक लिया जाये. आज के तकनीकी युग में ऐसे युवाओं को चिह्नित करना संभव है. जिन सोशल मीडिया साइट्स के प्रयोग से आतंकी संगठन इन्हें बरगला रहे हैं, उन्हीं साइट्स का हम भी तो सही इस्तेमाल कर सकते हैं.

3. औपचारिक के साथ रोजगारोन्मुखी शिक्षा : जब डिग्री लेकर कोई युवा बिना काम या लक्ष्य-विहीन भटकता है, तो वह एक अच्छा टारगेट बनता है इन आतंकी संगठनों के लिए. बड़े स्तर पर युवाओं को यदि रोजगार-परक शिक्षा दी जाये और जीवन की कठिनाइयों से ईमानदारी से रूबरू करवाया जाये, तो अपने जीवन की शुरुआत ये कम गुस्से से कर सकेंगे.

4. सॉफ्ट-स्टेट नहीं बने रहना : कैंसर की बीमारी का सही इलाज है तुरंत सबसे प्रभावी दवा देना, न कि उसके बढ़ने का इंतजार करना. एक बेहद विवादास्पद, किंतु प्रभावी तरीका रूस ने अपनाया है, जिसमें आतंकी के निकट के लोगों को कुछ परिणाम भुगतने पड़ते हैं.

हम जैसे एक पारदर्शी और सच्चे लोकतंत्र में निश्चित ही ऐसा नहीं कर सकते, किंतु यदि कोई आतंकी बने, तो उसे यह चिंता तो होनी चाहिए कि उसके काम का अंजाम अन्य लोग शायद भुगतेंगे (सरकारी नौकरी चली जाना, सब्सिडी बंद हो जाना आदि). ये केवल संसद द्वारा पारित विधि-मान्य तरीके से ही हो सकता है.

5. युवा राजनेताओं को सही अर्थों में मौका देना : सभी पार्टियां बातें तो करतीं हैं, किंतु काबिल युवा नेतृत्व उभर नहीं पाता. इसके बिना युवाओं को जोड़ना संभव नहीं है.

वक्त की मांग है कि खूनी खेल खेलनेवालों और उन्हें उकसानेेेवालों को हम एक मुंहतोड़ किंतु शांतिपूर्ण जवाब दें.