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युवा, लाभांश और देश का भविष्य- संदीप मानुधने

देश में कहीं भी जाइये, चारों ओर अगर चुनौतियों के अलावा कोई और चीज साफ नजर आयेगी, तो वह है युवा! हर युवा की आंखों में एक चमक है- कोई अपना स्टार्टअप करके देश बदलने का स्वप्न देख रहा है (आखिर इस साल की ताजतरीन मिठाई जो ठहरी!), कोई विदेश जाने का (इतनी अच्छी लाइफ यहां कैसे मिलेगी!), तो कोई आइएएस बन कर प्रशासनिक क्रांति लाने का सपना देख रहा है. किसी को एमबीए कर भारी-भरकम कंपनी में भारी सैलरी चाहिए, तो किसी को समाज सेवा का ऐसा जुनून चढ़ा है कि एमबीए करने के बाद सब कुछ छोड़ कर वह ग्रामीण भारत कूच कर गया है.

जो भी है, युवा इस देश का परम सत्य है और अगले बीस वर्षों तक रहेगा. फिर से जान लें- जनसांख्यिकीय आंकड़े बताते हैं कि आज मोटे तौर पर 60 प्रतिशत भारतीय 15 से 64 वर्ष के हैं और कुल लगभग 35 प्रतिशत भारतीय 15 से 34 वर्ष के हैं, अर्थात् सबसे अधिक उत्पादक उम्र के. भारत की विशाल आबादी का 35 प्रतिशत अर्थात् कम-से-कम 42 करोड़ युवा कुछ कर सकने की भौतिक क्षमता तो रखते ही हैं.

मुझे अच्छे से याद है, जब मैं 1993 में आइआइटी दिल्ली से पढ़ कर निकला था, तब का भारत बहुत अलग था. प्रधानमंत्री राव ने अर्थव्यवस्था को अभी खोला ही था और सब ओर एक अजीब सी खुशी थी- समाजवाद से पल्ला छूटने की खुशी, टेलीफोन लाइन के लिए बरसों इंतजार न करने की खुशी, अलग-अलग प्रकार के प्रोडक्ट्स से पटे हुए बाजार देखने की खुशी! तब वाकई ऐसा लगने लगा था कि अब अगले 10 से 15 बरसों में भारत महाशक्ति बन ही जायेगा. एक बहुत अलग प्रकार का आशावाद उग आया था. फिर एक नया शब्द मार्केट मे आया- डेमोग्राफिक डिविडेंड अर्थात् जनसांख्यिकीय लाभांश. मैंने यह शब्द पहली बार शायद किसी राजनेता के मुंह से 1997 में सुना था. बड़े जोश से ये शब्द बारंबार मीडिया में आने लगा. जनता को बताया गया कि विशाल जनसंख्या केवल तभी समस्या होती है, जब वह बूढ़ी हो, अन्यथा नहीं.

तो बताया यह गया कि स्वतः कुछ ऐसा कमाल होगा कि हमारे युवा तमाम मुश्किलों को तोड़ कर, लालफीताशाही को फोड़ कर, वैश्विक दृष्टिकोण अपना कर एवं नये-नये प्रोडक्ट्स बना कर खुद का और देश का कल्याण करेंगे और भारत को वाकई सोने की चिड़िया बना देंगे.

लेकिन एक भी पार्टी ने, एक भी नेता ने, या किसी भी नीति-निर्माता ने स्पष्ट रूप से यह नहीं बताया कि औपचारिक श्रम बाजार में जो केवल 8 से 9 प्रतिशत का श्रमबल नियुक्त है, उसे बढ़ा कर 50 या 60 प्रतिशत कैसे करेंगे. या जो 5 प्रतिशत से भी कम भारतीय श्रमिक सही टेक्निकल ट्रेनिंग पाते हैं, उसे बढ़ा कर हम 80 या 90 प्रतिशत कैसे करेंगे. या फिर जो 65 प्रतिशत आबादी कृषि में फंसी पड़ी हैं ('फंसी' इसलिए कि करोड़ों लोगों में बंटे छोटे-छोटे खेतों और भूमि सुधार कानूनों की विफलता से पैदा हुई ढांचागत गरीबी चारों ओर है) उनमें से हम कैसे करोड़ों युवाओं को बाहर निकालेंगे. अचानक से पैदा हुए सूचना प्रौद्योगिकी अर्थात् आइटी बाजार ने इतने करोड़ डॉलर कमा कर दे दिये (और दिये जा रहें हैं) कि शायद विश्वास हो गया कि लाभांश मिलने लगा है.

पर आइटी बाजार में कितने युवा नियुक्त हैं? कुछ लाख. जी हां- केवल कुछ लाख. वह बाजार (या सेक्टर) गरीबी कम कर समता बढ़ाने के बजाय उसका ठीक उल्टा कर रहा है- मैं उनकी आलोचना नहीं कर रहा सिर्फ इतना बता रहा हूं कि आइटी हमारी भारी-भरकम आबादी को उत्पादक बना ही नहीं सकता. ये तो भला हो हमारे लोगों की स्वतः उद्यमिता का, कि करोड़ों लोगों ने खुद को रोजगार दे रखा है- या तो छोटी-छोटी दुकानें खोल कर, या अनेक प्रकार के शहरी श्रम कर, या खेती कर (चाहे वो कितनी ही अलाभप्रद हो) और इन करोड़ों लोगों ने (जिनमें अधिकतर युवा हैं) कभी विद्रोह नहीं किया, न कभी सड़क पर उतर कर औपचारिक क्षेत्र में नौकरियां मांगीं.

आज हम एक ऐसे मोड़ पर आ चुके हैं, जहां एक भीमकाय समस्या हमारे सामने मुंह बाये खड़ी है- नौकरियों का सृजन हो ही नहीं रहा है और टेक्नोलॉजी धीरे-धीरे प्रति इकाई जीडीपी कम लोगों को नौकरियां देने की स्थिति निर्मित कर चुकी है. एक गोल्डन युग शायद हम पीछे छोड़ आये, जिसमें यदि कोई समग्र नीति बनायी जाती तो न केवल जनसंख्या कम होती वरन् औपचारिक क्षेत्र में अधिक नियोजन होता. मुझे कई बार ऐसा लगता है कि आरक्षण के नाम पर सक्षम जातियों द्वारा फायदे की मांग करना इसी समस्या का एक पहलू है.

देश की संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था का पुनर्निर्माण जरूरी हो गया है. जो व्यवस्था छात्रों को आज के हिसाब से तैयार नहीं कर पा रही, क्या उस पर एक गहरी नजर नहीं डालनी चाहिए? केवल औद्योगिक निवेश से ज्यादा कुछ नहीं होगा. हमें जड़ से शिक्षा और प्रशिक्षण की परिभाषा पुनः देखनी होगी. तकनीक के भरपूर प्रयोग से करोड़ों युवाओं को स्किल्स ट्रेनिंग देकर डिग्री के मायाजाल से अलग कुछ देना होगा. इस हेतु आवश्यकता है एक राष्ट्रीय सहमति की. यदि अब भी हम एक राष्ट्र के रूप में, अपने तमाम विरोधाभासों को दरकिनार कर, इस एक समस्या से निपटने में नहीं जुटे, तो 2020 के बाद यह समस्या ऐसा विकराल रूप ले लेगी, जो शायद नियंत्रण के बाहर हो जाये.

प्रति माह 10 लाख से ज्यादा लड़के और लड़कियां नौकरी की तलाश में आ रहे हैं. न तो उतनी नयी नौकरियां बन रही हैं, न नौकरी की चाह रखनेवाले उन स्किल्स से लैस हैं, जो एक नियोक्ता को तुरंत प्रभावित कर दे. और जनसंख्या नियंत्रण की भी कोई चर्चा देश में नहीं हो रही है. यह मान लिया गया है कि 2060 तक 165 या 175 करोड़ हो जाना हमारी नियति है!

भारत ने हमेशा बड़ी से बड़ी समस्या को हल करने का जज्बा दिखाया है. हम चाहें, तो इस समस्या को भी सही तरीके से अगले 10 वर्षों में नियंत्रित कर सकते हैं. किंतु वाकई में अब बड़े निर्णय लेने का और एक सामंजस्यपूर्ण नीति बना कर अमल करने का समय आ गया है.