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यूपी में समाजवादी राजनीति का पतन - एमजे अकबर

जब आप आग से खेलते हैं तो निश्चित ही एक समय ऐसा आता है, जब आग आपके साथ खेलने लग जाती है। मुलायम सिंह यादव ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत डॉ. राम मनोहर लोहिया के शिष्य के तौर पर की थी, जिन्होंने जाति को भारतीय समाज के महत्वपूर्ण वर्गों के आर्थिक सशक्तीकरण के लिए जोड़ने वाली आंतरिक व्यवस्था के तौर पर स्वीकार किया था। यदि हम इसे आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से देखें तो इसके कई लाभ होने के साथ-साथ इसकी कई सीमाएं अथवा कमियां भी हैं। इसमें लोहियावादी समाजवाद ने आम लोगों के प्रति महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। इसकी शुरुआत 1967 के चुनावों में हुई और इसके बाद विधायिका में लगातार इसका प्रसार हुआ।

किसी समस्या को बहुत अधिक समय तक छिपाए अथवा दबाए नहीं रखा जा सकता, यह तर्क आपको कुछ सहारा दे सकता है, लेकिन बहुत दूर नहीं ले जा सकता। यही कारण था लोहियावादी समाजवाद की अपील के प्रति कुछ ऐसी जातियों के मन में बेरुखी का भाव उत्पन्न् हुआ, जो इसके बुनियादी आधार से बाहर थीं। उच्च जातियां, दलित एवं अल्पसंख्यक और विशेषकर मुस्लिम समुदाय ने लोहियावादी समाजवाद की छतरी के नीचे आने के प्रति खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। यूपी में डॉ. लोहिया के मुख्य उत्तराधिकारी मुलायम सिंह यादव बने, जिन्होंने बहुत होशियारी से इस मौके को अपने पक्ष में किया। इस तरह बेहद मजबूत कांग्रेस वोट बैंक 1980 के उत्तरार्ध में राम मंदिर व मंडल आंदोलन के कारण उनके पाले में आ गया। कुछ ऐसा ही रास्ता कांशीराम और मायावती ने भी अपनाया।

हालांकि इसमें एक फांस भी थी। वह यह कि मुलायम राजनीतिक समर्थन के बदले में मुस्लिमों को आर्थिक पुरस्कार अथवा मदद देने के लिए बहुत इच्छुक नहीं थे। मुस्लिम युवाओं को रोजगार देने के लिए उन्होंने कोई इच्छा नहीं जताई और आज तक हालात बदले नहीं हैं। उन्होंने जहां तक संभव हो सका, अपने मुख्य जनाधार वर्ग को रोजगार दिया, जबकि मुस्लिमों को महज सब्जबाग दिखाए। मुलायम अपने राज्य को अच्छी तरह समझते हैं। उन्होंने मुस्लिम लीग की राजनीति को तीन स्तरों पर फिर से खड़ा किया। पहला एजेंडा भावनात्मकता का था, जिसे हालात के मुताबिक समूचे मुस्लिम समाज में फैलाया गया। दूसरा एजेंडा सुरक्षा के आश्वासन का था। तीसरा स्तर इस आश्वासन को मुस्लिमों के एक थोड़े-से कुलीन वर्ग को खुश करने के लिए प्रयोग करने का था। सुरक्षा का यह विचार दंगों के समय उपयोगी साबित हुआ, लेकिन यह भी एक विरोधाभास है कि लंबे समय तक शांति के संदर्भ में यह व्यर्थ साबित हुआ। किसी भी तरह का उकसावा एक खतरनाक खेल है। यह एक छोटा-सा कदम होता है, जो हिंसा से महज कुछ ही दूरी पर होता है। मुलायम सिंह ने दूरी पैदा करने की इसी राजनीति के तहत मुस्लिम मतों का दोहन किया। इसके लिए उन्होंने बनावटी मतभेदों पर बल दिया और अपनी जमीन से जुड़े वफादार भारतीय मुस्लिम समुदाय के बजाय उन्होंने एक अलग मुस्लिम समुदाय को प्रोत्साहन दिया।

लेकिन यह सारी कवायद तेजी से बदलते भारत में ढहनी शुरू हो गई है। यह 21वीं सदी का भारत है - बढ़ती अपेक्षाओं का भारत। हर जातीय और मजहबी समुदाय का आंतरिक संतुलन युवाओं की ओर केंद्रित हो गया है और युवा भविष्य चाहते हैं, अतीत नहीं। युवा नौकरियां चाहते हैं, अपनी थाली में चार रोटी चाहते हैं। उनके माता-पिता को दो रोटी ही नसीब हुई थीं। उन्हें टीवी चाहिए और उसे चलाने के लिए बिजली भी। वे अब झूठे वादों पर भरोसा नहीं करने वाले।

कितना विचित्र है कि इस बदलाव की सबसे स्पष्ट झलक पिछले विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव की जीत में ही मिली थी, जब इस युवा राजनेता ने परंपरागत शब्दकोष से अलग एक नई भाषा में बोलने की कोशिश की, जब उन्होंने लोगों को आधुनिकता के प्रतीक कंप्यूटर बांटे, जब उन्होंने लोगों को यह भरोसा दिलाया कि उनके पास नए मॉडल होंगे। युवाओं का उत्साह उनके साथ गया। सभी तरह के युवा चाहे वह हिंदू हों या मुस्लिम, उन्होंने भरोसा किया कि वे पीढ़ियों के बदलाव के बजाय विचारों का परिवर्तन देख रहे हैं।

निराशा की गहराई हमेशा अपेक्षाओं की ऊंचाई के समानुपातिक होती है। मुलायम के नेतृत्व में राजनीति मूर्च्छित थी, अखिलेश के युग में यह मृत है। आर्थिक जड़ता अपने साथ बड़े नुकसान लेकर आती है। तनाव बढ़ता है। आप इस प्रवृत्ति को अखिलेश यादव सरकार के तीन वर्ष की छोटी-सी अवधि में ही देख सकते हैं। जैसे ही आशाएं-अपेक्षाएं मुरझाईं, तनाव बढ़ने लगा। यह प्रक्रिया इस वर्ष के आम चुनाव के पहले ही आरंभ हो गई थी। चुनाव के नतीजे इसी का फल थे, न कि एक कारण।

जब दरारें बढ़ती हैं, तो इसका असर कई स्तरों पर पड़ सकता है। कुछ ऐसे घाव उभर आते हैं, जो सामाजिक ताने-बाने को क्षति पहुंचाते हैं। पश्चिमी यूपी में हिंदू-मुस्लिम टकराव में कुछ जातीय पहलू भी हो सकते हैं। लखनऊ में शिया और सुन्नी समुदायों ने अपना ऐतिहासिक संघर्ष नए सिरे से उभार दिया और एक तीसरे स्थान में दो अल्पसंख्यक समुदाय मुस्लिम व सिख आमने-सामने आ गए। जब अर्थव्यवस्था गलने लगती है तो युवाओं की निराशा एक लावा का रूप ले लेती है। यूपी को शांति व भरोसा चाहिए। यह राज्य सुशासन की आस में है। यदि अखिलेश यादव यह मुहैया नहीं करा सकते तो बेहतर होगा कि वे किसी और के लिए जगह खाली कर दें।

(लेखक ख्‍यात स्‍तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं