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यूपीए तथा एनडीए का अर्थशास्त्र- डा. भरत झुनझुनवाला

विकास दर में वर्तमान गिरावट का कारण सरकारी राजस्व का रिसाव, भ्रष्टाचार में वृद्घि एवं चौतरफा कुशासन है. यह रिसाव बंद हो जाये तो उद्यमी निवेश करने लगेगा, उत्पादन बढ़ेगा, टैक्स की वसूली होगी और वित्तीय घाटा नियंत्रण में आ जायेगा.

अपने चुनावी घोषणापत्र में एनडीए ने एफडीआइ का विरोध तो किया है, पर एनडीए मूल रूप से अर्थव्यवस्था में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश का स्वागत करता है. उनका विरोध खुदरा रिटेल तक सीमित है. यूपीए तथा एनडीए के बीच बाजार की भूमिका के मूल प्रश्न को लेकर पूर्ण सहमति है. दोनों मानते हैं कि बड़ी कंपनियों के माध्यम से देश का विकास होगा. दोनों की विचारधारा में अंतर आम आदमी को लेकर है.

एनडीए का मानना है कि आम आदमी तक विकास पहुंचाना चाहिए. आम आदमी अपनी रोजी रोटी कमा सके ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए. इस कार्य में कुछ समय लगे तो चलेगा. परंतु समाधान स्थायी होना चाहिए. यूपीए का ध्यान आम आदमी को सीधे एवं तत्काल राहत पहुंचाने का है, जैसा कि मनरेगा और ऋण माफी में दिखता है. इन दोनों विचारधाराओं में सुधार की जरूरत है. एनडीए को समझना चाहिए कि खुले बाजार और आम आदमी की जीविका में मौलिक अंतर्विरोध है. खुले बाजार में बड़ी कंपनियों के द्वारा ऑटोमेटिक मशीनों से निर्मित माल बिक्री होता है और छोटा स्वरोजगारी मारा जाता है. 

अपने देश में जुलाहों का स्वाहा इसी मॉडल के तहत हुआ है. अत: बड़ी कंपनियों पर प्रतिबंध लगाये बगैर आम आदमी को स्वरोजगार दिलाना संभव नहीं. गुजरात में ‘विकास’ शहरी मध्यम वर्ग तक ही सीमित है. एनडीए को चाहिए कि उन क्षेत्रों में बड़ी कंपनियों का विरोध करे, जहां रोजगार की संभावना ज्यादा है. जैसे टेक्सटाइल मिलों पर प्रतिबंध लग जाये, तो करोड़ों लोगों को कपड़ा बुनाई में रोजगार मिल जायेगा.

यूपीए की आइडियोलॉजी में समस्या दूसरे स्थान पर है. मानना है कि बड़ी कंपनियों को मशीनों से माल बनाने की छूट देनी चाहिए. इनसे टैक्स वसूल कर आम आदमी को मनरेगा तथा खाद्य सुरक्षा के माध्यम से राहत पहुंचानी चाहिए. एनडीए की तुलना में यूपीए की सोच अच्छी है, क्योंकि इससे निश्चित रूप से गरीब को कुछ राहत मिलती है. 

परंतु समस्या यह है कि बड़ी कंपनियों द्वारा छोटे उद्योगों को बंद कराया जा रहा है. लोग बेरोजगार हो रहे हैं. बड़ी कंपनियों का माल नहीं बिक रहा है और उनसे उत्तरोत्तर अधिक टैक्स नहीं वसूला जा सकता है. इसलिए यूपीए को ऋण लेकर इन योजनाओं को पोषित करना पड़ रहा है. फलस्वरूप महंगाई बढ़ रही है और विकास दर गिर रही है. रोजगार भक्षक अर्थव्यवस्था से टैक्स वसूल कर रोजगार नहीं बनाया जा सकता है.

यूपीए की मंशा है कि बड़ी कंपनियों में भी बहुराष्ट्रीय कंपनियां आगे बढ़ें तो उत्तम है. ये विदेशी पूंजी लेकर आती हैं. वही निवेश यदि घरेलू कंपनियां करें तो विदेशी मुद्रा नहीं आती है. परंतु यह आत्मघाती है, चूंकि शीघ्र ही विदेशी निवेशकों के द्वारा लाभांश प्रेषण शुरू हो जाता है. तब मजबूरी हो जाती है कि हम उत्तरोत्तर अधिक विदेशी निवेश को आकर्षित करें. जैसे एक बार तंबाकू की लत लग जाये, तो बढ़ी हुई मात्र में इसका सेवन जरूरी हो जाता है. यूपीए को चाहिए कि घरेलू निवेशकों पर ज्यादा ध्यान दे और बड़ी कंपनियों के रोजगार-भक्षण पर शिकंजा कसे.

यूपीए और एनडीए के बीच दूसरा अंतर बुनियादी संरचना में निवेश को लेकर है. यूपीए इसको निजी कंपनियों पर छोड़ देना चाहता है. जबकि एनडीए इसमें जरूरत के अनुसार सरकारी निवेश का पक्षधर है. तीसरा अंतर शासन प्रणाली का है. एनडीए ने गुजरात में कानून व्यवस्था में अप्रत्याशित सुधार किया है. कुछ माह पहले गुजरात जाना हुआ. 

टैक्सी चालक ने बताया कि पहले कई मोहल्लों में जाने से डर लगता था, लेकिन अब नहीं. एनडीए ने विकेंद्रीकरण की नीति को अपनाया है और अधिकारियों को खुले हाथ काम करने दिया है, जबकि यूपीए की नीति केंद्रीकरण की है. नेशनल इन्वेस्टमेंट बोर्ड के जरिये पर्यावरण एवं अन्य मंत्रलयों के अधिकारों को वित्त मंत्रलय को सौंपने की कोशिश हुई थी.

अर्थ का मूल सुशासन है. मेरी समझ से विकास दर में वर्तमान गिरावट का कारण सरकारी राजस्व का रिसाव, भ्रष्टाचार में वृद्घि एवं चौतरफा कुशासन है. आम आदमी पार्टी को मिली सफलता इसका प्रमाण है. यह रिसाव बंद हो जाये तो उद्यमी निवेश करने लगेगा, उत्पादन बढ़ेगा, टैक्स की वसूली अधिक होगी और वित्तीय घाटा नियंत्रण में आ जायेगा. इन कदमों की जानकारी न हो तो भी यह सुपरिणाम अपने आप आयेगा. 

यूपीए की समझ है कि आम आदमी को सुशासन से सरोकार नहीं है. उसे रोटी-कपड़ा-मकान दे दिया जाये, तो वह संतुष्ट हो जायेगा. परंतु ऐसा है नहीं. यूपीए कुशासन को ढकना चाहता है. दादी को सहज ही समझ में आता है कि शुद्घ भोजन से स्वास्थ ठीक रहता है. बीपी कितना होना चाहिए, इसकी जानकारी दादी को नहीं होती है. इसी प्रकार जनता को लोकपाल की नियुक्ति के संवैधानिक दावं-पेंच से सरोकार नहीं होता है. उसे चाहिए सुशासन. यूपीए को सुशासन पर ध्यान देना चाहिए. कुशासन से अजिर्त रकम से रोटी बांटने से काम नहीं चलेगा.