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ये किस देश के लोग हैं!-- कुमार प्रशांत

अल्लामा इकबाल ने एक नज्म लिखी थी- ‘मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है!' मैं जितनी बार इस नज्म को पढ़ता हूं, उतनी बार भीतर से कोई पूछता है कि इकबाल ने तो अपने वतन की पहचान कर ली थी, तुम अपने वतन की पहचान क्या अौर कैसे करते हो? मैं जवाब नहीं दे पाता.

मैं किस तरह अपने वतन को समझूं (या समझाऊं) कि जहां अकारण स्वामी अग्निवेश की पिटाई हुई, शशि थरूर के घर पर हमला हुअा अौर सरकार नाम का जो सफेद हाथी हमने पाल रखा है, उसकी कोई अावाज सुनायी ही नहीं दी? अगर देश ऐसे ही चलना है, तो किसी चलानेवाले की जरूरत ही क्यों है?

प्रधानमंत्री कहीं ललकारते हुए पूछ रहे थे कि कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमान नामदार बताएं कि उनकी पार्टी मुसलमान पुरुषों की ही पार्टी है कि उसमें मुसलमान स्त्रियों की भी जगह है?

मुझे मालूम नहीं कि प्रधानमंत्री ने ‘नामदार' विशेषण का इस्तेमाल किस भाषाविशेषज्ञ की सलाह से किया, लेकिन यह उनका अपना ‘दिव्यांग' हो, तो भी मुझे कहना चाहिए कि राहुल गांधी के अपमान का यह तरीका निहायत ही कुरूप था. मुझे ‘नामदार' का मतलब भी नहीं पता है. जवाब में कांग्रेस की एक प्रवक्ता कह रही थीं कि प्रधानमंत्री की भाषा अौर तर्क अब सारी मर्यादाएं खो रहे हैं. यह तो जवाब नहीं हुअा! बताना तो पड़ेगा न कि कांग्रेस इस देश में रहनेवाले सभी नागरिकों की पार्टी है!

कांग्रेस समझ नहीं पा रही है कि वह राजनीतिक जमीन हड़पने की बेजा कोशिश में अपनी जमीन खो रही है. कांग्रेस जितना जनेऊ पहनेगी, मंदिरों में माथा टेकेगी, मुसलमानों को अपना बतायेगी, उतनी ही खोखली होती जायेगी.
हम देख रहे हैं कि 2014 से जो दल भाजपा के साथ कदमताल कर रहे थे, वे अचानक ‘पीछे मुड़' करने लगे हैं. कुछ वहां से निकल अाये हैं, कुछ निकलने के चक्कर में हैं. तो क्या यह डूबते जहाज से चूहों का भागना है? बिखरा विपक्ष भी अपना सिर जोड़कर एक मंच पर अाने की कोशिश कर रहा है.

इस कोशिश की सफलता इस पर निर्भर है कि कोशिश कौन अौर कितनी कर रहा है? राजनीति में जो दिखता नहीं है, वह होता नहीं है, ऐसा मानना खतरनाक है, फिर भी विपक्ष पर पूरा भरोसा है. विपक्षी दल इतने कूढ़मगज हैं कि एक-दूसरे का रास्ता काटने में यह देख ही नहीं सकेंगे कि उनके अपने सारे रास्ते बंद हो रहे हैं.

घबराये प्रधानमंत्री विपक्ष पर ‘गंभीर अारोप' लगा रहे हैं कि ये सब मुझे हटाने के लिए एक हो रहे हैं.' तो मैं जानना चाहता हूं कि श्रीमान प्रधानमंत्री जी, इसमें गलत क्या है? क्या यह उनका जायज, संविधानसम्मत अधिकार नहीं है? क्या यही वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं है, जिस पर चलकर प्रधानमंत्री बनने के लिए आपने भी कितने ही दलों से समझौते किये थे अौर मनमोहन सिंह को कुर्सी से हटाया था?

‘कांग्रेस मुक्त भारत' का नारा तो आप ही ने दिया था न? विपक्षी दलों के एक होने में हम तो इतना ही देखेंगे कि ऐसा करने में विपक्ष कोई अनैतिक या असंवैधानिक काम तो नहीं कर रहा है? हम यह भी देखेंगे कि सत्ताधारी दलों का गठजोड़ भी कोई अनैतिक या असंवैधानिक कार्य तो नहीं कर रहा है?

एक सजग लोकतांत्रिक जनता के लिए यह सब देखना इसलिए जरूरी है कि राजनीतिक दलों का अंतिम सत्य एक ही है- सत्ता और जनता का अंतिम सत्य भी एक ही है- संस्कार अौर संविधान. इसलिए प्रधानमंत्री की यह अापत्ति कि विपक्षी दल मिलकर उन्हें सत्ता से हटाना चाहते हैं, बचकानी है अौर भयभीत मन की चुगली खाती है. ये लोग अपनी सत्ता के ख्याल से इतने भयभीत हैं कि जनता अौर उसके सवाल अब गलती से भी इनकी जबान पर नहीं अाते.

उत्तर प्रदेश जाकर कोई एनार्की की बात न करे, सारे देश में महिलाअों के साथ हो रहे अकल्पनीय दुराचार की बात किये बिना कोई अपनी उपलब्धियों का बखान करे, खेती-किसानी को दी जा रही ‘रिकाॅर्ड छूट' के लिए अपनी पीठ ठोंकते लोग पल भर भी न झिझकें कि पिछले 90 दिनों में 600 से ज्यादा किसानों ने अात्महत्या कर ली है, तो पूछना ही पड़ता है- ये किस देश के लोग हैं?

किसान-मजदूर, छोटे व्यापारियों और नागरिक जीवन विकृतियों अौर विद्रूपताअों से ऐसा बजबजा रहा है कि सामान्य जीवन जीना ही महाभारत लड़ना बन गया है. अाप भले सड़क पर न चलते हों (क्योंकि अाप तभी चलते हैं जब सड़कें बंद कर दी जाती हैं), लेकिन सड़क पर चलनेवाला अाम नागरिक बेहद परेशान है. जीविका भी नहीं बची है, जीवन भी नहीं बचा है. उन सारी चीजों के दाम बढ़ते ही चले जा रहे हैं, जिनसे उसका घर चलता है.

परेशान अाम अादमी अपने धैर्य की अंतिम बूंद तक निचोड़कर जीने की कोशिश में लगा है, पर अाप कानूनी, गैर-कानूनी तमाम रास्तों को अंतिम हद तक निचोड़कर अपनी सरकार बनाने में लगे हैं. अापकी सभाअों और अायोजनों में, अापकी जीवन-शैली में अौर अापकी चिंताअों में कहीं यह देश है भी क्या, यह पूछने का मन करता है, लेकिन कहीं पूछने की जगह ही नहीं बची है.

गांधीजी ने हमारे शासकों को एक ताबीज दी थी- ‘कोई भी फैसला करने से पहले अपने अहंकार का शमन करो अौर उस सबसे गरीब व्यक्ति का चेहरा सामने रखो, जिसे तुमने देखा हो अौर फिर खुद से पूछो कि तुम जो फैसला करनेे जा रहे हो, उससे उस गरीब की किस्मत में कोई फर्क पड़ेगा?

जवाब हां हो, तो निर्द्वंद अागे बढ़ो, जवाब ना हो, तो उस फैसले को रद्द कर दो.' लेकिन, अब यह ताबीज बेअसर हो गयी है, क्योंकि अब अापकी स्मृति में वह गरीब ही नहीं बचा है.