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योजना आयोग के गरीब- तवलीन सिंह

जब भी दिल्ली के सरकारी भवनों में आला अधिकारी बैठकर भारत के गरीबों का हिसाब लगाने बैठते हैं, तो मुझे सख्त तकलीफ होती है। इसलिए कि ये लोग ऐसा करते हैं, सिर्फ अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए। अगर आंकड़ों से साबित कर सकते हैं योजना भवन के अधिकारी कि राजनेताओं की समझदारी, उनकी आर्थिक नीतियों से देश में गरीबी हट रही है देश में, तो राजनेता दोबारा सत्ता में आने के सपने देखना शुरू करते हैं और इन सपनों के टूटने तक खुश रहते हैं।

सो पिछले सप्ताह योजना भवन से घोषणा हुई कि 2004 से 2009 के दरम्यान पांच करोड़ से ज्यादा गरीब भारतीय गरीबी की रेखा के ऊपर निकल आए हैं। ऐसा सुनकर बेशक, प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी खुश हो गए होंगे, लेकिन हम जैसे राजनीतिक पंडितों ने जब आंकड़ों का विश्लेषण करना शुरू किया, तो मालूम यह हुआ कि गरीबी इसलिए कम हुई है, क्योंकि गरीबी रेखा ही बदल दी गई है। योजना भवन ने अब तय कर लिया है कि जिन लोगों की दैनिक कमाई शहरों में 29 रुपये है, वे अब गरीबी रेखा पार कर चुके हैं और देहातों में जिनकी दैनिक कमाई 22 रुपये है, वे अब गरीब नहीं माने जाएंगे। यानी गरीबी कम करने का नया तरीका यह है, गरीबी रेखा को कम करते रहना।

पिछले साल जब योजना भवन ने गरीबी रेखा को शहरों में 32 रुपये बताया था, तो हंगामा हो गया था, क्योंकि हम सब जानते हैं कि दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में भिखारी भी 100 रुपये कमा लाते हैं एक दिन में। तो भी इनकी सारी कमाई खर्च हो जाती है भोजन पर। मुंबई शहर में मेरी जानकारी में ऐसे कई लोग हैं, जिनकी दैनिक कमाई 100 रुपये है, इसलिए यकीन के साथ कह सकती हूं कि दो वक्त का भोजन करने के बाद इनके पास कुछ नहीं बचता है। जब दवा-दारू की जरूरत होती है, तो मेरे दरवाजे पर पहुंच जाते हैं और जब कपड़ों की जरूरत पड़ती है, तो किसी दानी संस्था से लेकर आते हैं।

ऐसे लोगों का सबसे बड़ा सपना है कि कभी एक दिन ऐसा आएगा, जब उनके पास इतने पैसे जमा हो जाएंगे कि वे किसी झुग्गी बस्ती में एक झोपड़ा 'बांध' सकें। लेकिन ऐसा करने के लिए पगड़ी का पैसा ही लाखों में होता है, तो इनकी तमाम जिंदगी गुजर जाती है मुंबई के फुटपाथों पर। अगर ये लोग गरीब नहीं हैं, तो समझना मुश्किल है कि गरीबी क्या चीज है योजना भवन की नजरों में। कैसे शर्म नहीं आती है इनको, जब 29 रुपये की बनाते हैं गरीबी रेखा? कैसे शर्म नहीं आती है इनको अपने राजनीतिक आकाओं के सामने बार-बार झूठ बोलने के बाद? इन आला अधिकारियों से अगर आप चुपके से बात करें, तो बेझिझक कहने को तैयार हो जाते हैं कि मनरेगा जैसी योजनाएं बेकार हैं, क्योंकि आधा पैसा भ्रष्ट अफसर खा जाते हैं।

योजना भवन के एक आला अधिकारी ने मुझसे तो एक बार यह भी कहा था कि ऐसी योजनाओं के बदले अगर देश के हर गरीब परिवार को हम मनीऑर्डर द्वारा गरीबी हटाने की योजना का पैसा भेज दें, तो उनको हर महीने 8,000 रुपये से ज्यादा मिल जाएंगे और वे खुद ब खुद गरीबी की रेखा के ऊपर निकल आएंगे।

मैंने जब पूछा कि ऐसा हम करते क्यों नहीं हैं, तो उसने मुसकराकर कहा कि कारण राजनीतिक हैं। जबसे सोनिया- मनमोहन सरकार दोबारा सत्ता में आई है, गरीबी हटाने की योजनाएं बनाई हैं सोनिया जी की राष्ट्रीय सलाहकार समिति ने। मनरेगा इनकी देन है और खाद्य सुरक्षा विधेयक भी इन्हीं की देन है। सोनिया जी के सलाहकार हैं तो ईमानदार और अच्छे लोग, लेकिन शासन के तौर-तरीकों की जानकारी कम है इनको। नहीं समझते कि उनकी महान योजनाओं पर जब अमल होना शुरू होता है, तो कितना सारा पैसा रिसना शुरू हो जाता है।

हजारों करोड़ रुपये इस तरह रिस चुके हैं गरीबों तक गरीबी हटाने का पैसा पहुंचाने से पहले। लेकिन किसी की हिम्मत है ऐसी बातें सोनिया जी और उनके सलाहकारों के सामने करने की? परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री की तरह तो वही काम कर रही हैं, सो मंत्रियों से ज्यादा ताकत उनके सलाहकारों के हाथों में क्यों न हो?

इसलिए योजना भवन के अधिकारियों को आजकल गरीबी हटाने के आंकड़े पेश करते समय छोड़ा छल, थोड़ा कपट करने की जरूरत पड़ती है। गरीबी हटे या न हटे, उन्हें इससे क्या मतलब? उनका काम है अपने राजनीतिक आकाओं को खुश रखना, सो ऐसा करते आए हैं और ऐसा करते रहेंगे। अगले आम चुनाव के बाद अगर राजनीतिक आका बदल भी गए, तो क्या। इन बड़े साहब लोगों को तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है, क्योंकि जब नए मंत्री आएंगे, तो उनकी सेवा में लग जाएंगे दिल लगाकर, कुरसी बचाकर। जनता की सेवा से उन्हें क्या मतलब। इस देश के बेहाल बेरोजगार, बेघर, बेइज्जत गरीब लोगों से उन्हें क्या मतलब। गरीबी हटे या न हटे, उन्हें क्या मतलब।