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यौन हिंसा की जड़ें- रुचिरा गुप्ता

जनसत्ता 4 सितंबर, 2013 : कुछ दिन पहले जब मैंने मुंबई में एक तेईस वर्षीय फोटो पत्रकार के साथ बलात्कार की घटना के बारे में पढ़ा, तो कुछ पुरानी घटनाएं सामने घूमने लगीं। यानी फिर से वही सब! करीब उनतीस साल की उम्र में छह दिसंबर, 1992 को जब मैं एक रिपोर्टर की हैसियत से उत्तर प्रदेश में बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना की खबर जुटा रही थी तो मुझ पर हमला किया गया। हालांकि मेरे साथ बलात्कार नहीं हुआ, लेकिन मुझ पर यौन हमला हुआ और इसके बाद मेरी हत्या करने की भी कोशिश की गई। किसी ने मुझे मस्जिद के बाहर एक नाले में घसीट लिया और मेरी कमीज फाड़ दी थी। लेकिन संयोग से वहां से गुजरते एक व्यक्ति ने उस नाले में कूद कर मुझ पर हमला करने वालों का मुकाबला किया और मुझे बचा लिया।
जब मैं उन हमलावरों के खिलाफ बयान देने के लिए अदालत में पेश हुई, तो उनके वकील ने मुझसे ऐसे-ऐसे सवाल किए, जिनसे ऐसा लगता था कि उस हमले के लिए मैं ही जिम्मेदार थी। कुछ सवालों ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया था। मसलन, एक अच्छे घर की लड़की मस्जिद तोड़ने की घटना की खबर जुटाने कैसे जा सकती है? क्या मैं सिगरेट पीती हूं? मैंने उस वक्त कैसे कपड़े पहने हुए थे? क्या मैं भगवान को मानती हूं? इस तरह के सवाल करने वालों को उस अदालत में बैठे न्यायाधीश ने भी नहीं रोका।
मेरे लिए यह एक मनोबल तोड़ने वाला और विषाक्त अनुभव था। लेकिन भारत की वैसी तमाम महिलाएं इस तरह के अनुभव से अनजान नहीं होंगी, जो अपने खिलाफ हुए यौन हमलों का विरोध करने का फैसला करती हैं। उन्हें शर्म, डर और अपराध-बोध से भर देने वाली ऐसी ही प्रक्रियाओं के जरिए खामोश कर दिया जाता है।
सन 1992 में राजस्थान के ग्रामीण इलाके में काम काम करने वाली और निचली कही जाने वाली जाति की एक सामाजिक कार्यकर्ता भंवरी बाई द्वारा लगाए गए बलात्कार के अभियोग को एक न्यायाधीश ने खारिज कर दिया था। भंवरी का कहना था कि चूंकि वह उच्च कही जाने वाली जाति के परिवारों में बड़े पैमाने पर हो रहे बाल विवाहों के खिलाफ अभियान चला रही थी, इससे नाराज होकर उन परिवारों के कुछ पुरुषों ने उसका सामूहिक बलात्कार किया। भंवरी के आरोप को निरस्त करते हुए खुद न्यायाधीश ने कहा कि जिन लोगों को कठघरे में खड़ा किया गया है वे दोषी नहीं हैं, क्योंकि ‘यह संभव ही नहीं है कि भारतीय गांव में रहने वाला एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति अपने भतीजे की उपस्थिति में सामूहिक बलात्कार जैसे कुकृत्य में शामिल हो।’
हालांकि किसी अदालत में इस तरह की टिप्पणी पर विश्वास करना मुश्किल है। लेकिन यह एक न्याय-व्यवस्था में अपने ऊपर हुए अत्याचारों के खिलाफ लड़ती किसी महिला को फैसले के रूप में सुनना पड़ सकता है। इस तरह के फैसले न केवल अन्य पीड़ित महिलाओं को बलात्कारियों के विरुद्ध बयान देने से रोकते हैं, बल्कि हमलावर तत्त्वों की आपराधिक मनोवृत्ति को और बढ़ावा भी देते हैं। दरअसल, इस तरह के अपराधी जानते हैं कि वे आसानी से बच निकलेंगे।
ज्यादातर महिलाएं कहती हैं कि वे अपने ऊपर होने वाले हमले के बारे में पुलिस को बताने के लिए सोच भी नहीं सकतीं, क्योंकि उन्हें इस बात का डर होता है कि पुलिस वाले न केवल अनदेखी करेंगे, बल्कि उलटे उन्हें ही दोषी ठहराएंगे या फिर उनके साथ दुर्व्यवहार करेंगे। इसी साल जून में बलात्कार की लगातार घटनाओं के विरोध में प्रदर्शन कर रहे तेरह लोगों को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के निवास के बाहर गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें आठ घंटे से अधिक समय तक हिरासत में रखा गया।
यहां गौरतलब है कि ये विरोध जताने वाले लोग सिर्फ राज्य में महिलाओं के लिए सुरक्षा मुहैया करा सकने में पुलिस की उस नाकामी के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे, जिसके चलते एक बीस वर्षीय छात्रा का बलात्कार हुआ और उसके बाद उसकी हत्या कर दी गई। उसकी लाश कोलकाता के बाहरी इलाके में एक नदी में पड़ी मिली थी। इसके चौथे दिन ही कोलकाता से नब्बे मील दूर गेडे कस्बे में एक चौदह साल की नाबालिग लड़की से बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी गई थी।
भारत में बलात्कार की घटनाओं में पिछले साठ सालों के दौरान आठ सौ तिहत्तर फीसद की बढ़ोतरी हुई है। देश में हर दिन औसतन तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है। 2001 से 2010 के बीच बलात्कार के मामलों में आरोपी को दोषी करार दिए जाने की दर महज छब्बीस फीसद थी। हालांकि अनुमानों के मुताबिक बलात्कार के दस मामलों में से एक ही सामने आ पाता है। मुसलमानों और दलित समुदाय की महिलाओं के खिलाफ हुए यौन अपराधों के मामलों में तो दोषियों को सजा दिए जाने की दर लगभग नहीं के बराबर है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की वार्षिक रिपोर्ट भी इस अपराध के परेशान करने वाले आंकड़े पेश करती है। इसके मुताबिक भारत के किसी न किसी हिस्से में हर बीस मिनट में एक महिला बलात्कार का शिकार होती है। पिछले दस सालों में बलात्कार का शिकार होने वाले बच्चों की संख्या में तीन सौ छत्तीस

फीसद का इजाफा हुआ है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस अपराध का सामाजिक दायरा कहां तक फैल चुका है और इस पर काबू करने में हमारी सरकारें और व्यवस्था किस हद तक नाकाम हैं।
अपराधियों को उचित और सख्त सजा न मिल पाना यहां एक तरह की संस्कृति बन चुकी है और यही कारण है कि बलात्कार या किसी भी तरह का यौन-उत्पीड़न कुंठाग्रस्त पुरुषों के लिए एक हथियार बन चुका है। ये पुरुष कार्यालयों में महिलाओं की बढ़ती संख्या को अपनी बेरोजगारी के लिए दोषी ठहराते हैं और उम्मीद करते हैं कि महिलाओं को ऐसी यौन हिंसा से डरा कर वापस घरों में बिठा देने से उन्हें फिर से नौकरियां मिलने लगेंगी। इस स्थिति के लिए महिलाओं को जिम्मेदार ठहराए जाने का चलन कॉरपोरेटों और उन राजनीतिकों-नेताओं द्वारा पोषित और संवर्द्धित मर्दानगी की धारणा से प्रेरित है, जो बाकी समाज के लिए एक ‘आदर्श’ की भूमिका निभाते हैं।
सच तो यह है कि भारत में बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की शिकार बहुत कम महिलाएं अदालत में पेश होना चाहती हैं, क्योंकि वहां आरोपियों के बजाय उलटे उन्हें ही लांछन और अपमान का सामना करना पड़ता है। जबकि बलात्कार के आरोप में कठघरे में खड़े अपराधी को इस तरह का कोई डर नहीं सताता। हालांकि पिछले बीस वर्षों के दौरान महिलाओं के हक में भारत के कानूनी ढांचे में काफी सुधार हुआ है। लेकिन इसे क्रियान्वित करने वाले आज भी आमतौर पर पुरुष ही हैं। वे पुलिसकर्मी हों या वकील, उनमें से ज्यादातर एक जड़ पुरुष प्रधान समाज और उसकी मानसिक बुनावट में बंधे जीते हैं।
‘अपने आप वीमेन वर्ल्डवाइड’ संगठन के साथ काम करते हुए मैंने भारत की सामाजिक संरचना में बलात्कार की संस्कृति को लगातार फलते-फूलते देखा है। हम देह व्यापार में धकेल दी गई महिलाओं के सशक्तीकरण की दिशा में सक्रिय हैं, ताकि वे अपने और अपनी बेटियों के साथ बलात्कार का विरोध कर सकें। हमारे सामने जो सबसे बड़ी चुनौती आती है, वह है राजनेताओं, वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों, संस्थाओं के प्रमुखों और यहां तक कि नीति-निर्माताओं का रवैया, जो बलात्कार को समाज का सामान्य हिस्सा मानते हैं। कई लोगों ने मुझे साफ शब्दों में कहा कि ‘पुरुष आखिर पुरुष ही रहेगा!’
जब राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने आंंकड़ों के साथ बताया कि पश्चिम बंगाल में महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों की संख्या सबसे अधिक है, तो राज्य कीमुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ब्यूरो के आंकड़ों को ही चुनौती दे डाली, बजाय इसके कि वे समस्या से निबटने के लिए ठोस कदम उठातीं। दूसरी ओर, राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के लिए बजट आबंटन निरंतर घटता जा रहा है। महिला आरक्षण विधेयक के जरिए महिलाओं और पुरुषों के बीच सत्ता में समान भागीदारी के मसले पर चल रहे विवाद का अब तक कोई नतीजा नहीं निकला है।
हालांकि किसी भी पैमाने पर जारी हिंसा और धमकियां अब महिलाओं को घर की चारदीवारी में लौटने को मजबूर नहीं कर सकतीं। लेकिन यह सच है कि मां के गर्भ में आने से लेकर वृद्धावस्था तक कई बार घर ही वैसी जगह में तब्दील हो जाता है, जहां महिलाओं को सबसे अधिक खतरा रहता है।
बहुत संभव है कि एक औसत भारतीय महिला मादा भ्रूण हत्या, पैदा होते ही मार डाले जाने, कुपोषण, दहेज लोभियों की बलि चढ़ जाने, बाल विवाह, प्रसव के दौरान मौत, घरों में नौकर का काम करने, देह व्यापार में धकेल दिए जाने, बलात्कार का शिकार होने, घर की झूठी इज्जत के नाम पर हत्या या दूसरी तमाम तरह की घरेलू हिंसा से पीड़ित हो। और ऐसा सिर्फ इसलिए कि वह एक औरत है।
बहरहाल, आज बेहतर शिक्षा से लैस महिलाएं पूरे साहस के साथ डॉक्टर, वकील, पत्रकार, बैंक कर्मचारी, राजनीतिक, किसान, शिक्षक आदि के रूप में सार्वजनिक जीवन के सभी क्षेत्रों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। वे देश में बढ़ती हुई असमानता और बेरोजगारी को खत्म करने के लिए सामाजिक न्याय के आंदोलनों में भी सार्थक हस्तक्षेप कर रही हैं।
अब जबकि एक और बलात्कार की शिकार युवती मुंबई के अस्पताल में जूझ कर बाहर निकल जाएगी, हमें अपराध न्याय प्रणाली में आमूलचूल सुधार पर जोर देने की सख्त जरूरत है। पिछले साल दिसंबर में फिजियोथेरेपी की एक तेईस वर्षीय छात्रा का दिल्ली में चलती बस में बर्बरतापूर्ण सामूहिक बलात्कार और उस पर हमले की घटना से भारत और पूरा विश्व स्तब्ध रह गया था। गंभीर आंतरिक चोटों की वजह से पीड़ित छात्रा की मौत हो गई।
इसके बाद कानून में सुधार के लिए व्यापक स्तर पर आंदोलन हुए, बलात्कार को लेकर लोगों के रवैये की गंभीर पड़ताल की मांग की गई। लेकिन लगता है कि शुरुआती आक्रोश के बाद कानून सिर्फ कागजों पर बदला है। अगर यौन हिंसा की घटनाओं को गंभीरता से लिया गया होता और बलात्कार की संस्कृति पर सचमुच काबू पाने की कोशिशें की गई होतीं तो पिछले दिनों मुंबई में जो त्रासद घटना हुई, वह न होती!