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राजतंत्र से जनतंत्र तक-- संदीप मानुधने

जब अंगरेज भारत छोड़ कर गये, उन्होंने वे सभी प्रयास प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से किये, जिससे उपमहाद्वीप में सदा के लिए दरारें पड़ी रहें. अंगरेजों की दिली तमन्ना थी कि भारत टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा, क्योंकि इसे एक करनेवाला कोई है ही नहीं. लेकिन, उनके मंसूबों पर भारत के नेताओं ने पानी फेर दिया. सरदार पटेल ने पूरे देश को एक सूत्र में बांध दिया, पंडित नेहरू ने एक लोकतांत्रिक चुनाव और गणतंत्र की नींव रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी, और अन्य ने भी भरपूर योगदान दिया. अंततः 1960 आते-आते भारत में एक व्यवस्थित संवैधानिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था ने पैर जमा ही लिये. और आज हम 21वीं सदी की ओर आशा से देख रहे हैं.


लेकिन, बीते सात दशकों की लंबी यात्रा में हमने एक बहुत गलत रुझान देखा है, जो आज ठीक न किया गया, तो लोगों का विश्वास खो देने का डर सदा बना रहेगा. वह है- जिस सच्चे गणतंत्र का भरोसा हमें दिलाया गया था, जहां आम जन पूरी आजादी से सशक्त हो पाता, वह कब सत्ता के गलियारों में राजतंत्र में तब्दील होता चला गया, पता ही नहीं चला. नागरिक हाशिये पर चले गये, व्यवस्था प्रधान हो गयी; जनता की जरूरतें सरकार की नीतियों में दब गयीं; राजतंत्र ने अपनी दबंगई से गणतंत्र के कमजोर हिस्सों पर ऐसा वार किया कि नागरिक कानून के लिए बन गये, कानून नागरिकों के लिए नहीं! एक आम नागरिक की दृष्टि से आज के तंत्र पर नजर डालें, तो यकीन हो जाता है कि संविधान-निर्माताओं ने ऐसे भारत की कल्पना तो नहीं की होगी- स्वर्णिम तो दूर, हम अपने अधिकतर नागरिकों को एक नारकीय जीवन जीने हेतु विवश देखते हैं. ऐसे तीन साफ चिह्न आप स्वयं परख लें-


पहला- हमारी आधी आबादी की अधिकार-विहीन स्थिति. जिस प्रकार पिछले दस वर्षों में महिलाओं का कार्यबल में प्रतिशत गिरता जा रहा है और उनके विरुद्ध होनेवाले अपराधों की प्रवृत्ति और संख्याओं में इजाफा हो रहा है, सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या हमारे राजतंत्र ने पूरी तरह अपराधियों और सामाजिक निष्क्रियता हेतु मैदान खुला छोड़ दिया है?


दूसरा- हमारी आबादी की क्षमताएं और शिक्षा द्वारा उन्हें जीवन-यापन के लिए तैयार करने की हमारी प्रतिबद्धता. सर्वेक्षण लगातार बता रहे हैं कि सरकारी स्कूलों में, जहां आबादी का बड़ा हिस्सा अपने बच्चों को भेजता है, वहां कैसी निराशाजनक स्थिति है और बच्चों के भविष्य के साथ अनुपस्थित शिक्षक और अधिकारी वर्ग के हजारों जिम्मेवार खिलवाड़ कर रहे हैं.


तीसरा- हमारी सामाजिक सुरक्षा प्रणाली की स्थिति- जिसमें जीवन की सुरक्षा से लेकर पौष्टिक भोजन, बीमारियों से लड़ने की ताकत और स्वच्छ वायु भी शामिल है- बहुत कुछ कह जाती है. गरीब के लिए गरीबी उतना बड़ा अभिशाप नहीं, जितना गंभीर बीमारी के चंगुल में फंसना.

हमारे संविधान की उद्देशिका कहती है कि भारत एक 'संप्रभु, समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्य' बनेगा. एक-एक करके देखें कि इन पांच तत्वों का एक नागरिक से क्या लेना-देना है. जब तक हम एक नागरिक पर यह परीक्षण नहीं करेंगे, तब तक कुछ नहीं पता चलेगा.


सत्ता और राजतंत्र संप्रभु हैं, इसमें शक नहीं, किंतु नागरिक अपने हकों को लेकर संप्रभु नहीं. जिस किसी का पुलिस, कचहरी या प्रशासन से अपने माकूल हक पाने हेतु कभी पाला पड़ा है, वही जानता है कि दिखनेवाले दांतों और खानेवाले दांतों में कितना बड़ा अंतर है! बरसों गुजर जाते हैं, सभी मानदंड बदल जाते हैं, जीवन गुजर जाता है, तब कहीं न्याय की आस बंधती दिखती है.


समाजवादी हम कितने बने, यह हमारी प्रति व्यक्ति आय (2000 डॉलरों से कम, जो हमें निम्न-मध्यम आय मुल्क बनाती है), से साफ जाहिर है. हम व्यापक गरीबी हटाने हेतु लगातार नये कार्यक्रम लाते रहे, लेकिन गरीबी बढ़ती रही. एक आम जन ने यही सोचा होगा कि नेताओं से उम्मीदें बेकार हैं, तो चुनावों में जो फायदा (धन, वस्तुओं का) लिया जा सके, वह ले लिया जाये. व्यापक चुनावी भ्रष्टाचार दशकों की निराशा से पनपा.


पंथ-निरपेक्षता से जुड़े विवादों का भरपूर फायदा सभी दलों ने अपने-अपने ढंग से उठाया, किंतु मूल नैतिकता जो सभी धर्मों का आधार है, वह खो गयी. हमने जीवन के हर वर्ग में मुंडक उपनिषद् के 'सत्यमेव जयते' को त्याग दिया, हालांकि हर आधिकारिक दस्तावेज पर वह शान से विराजमान रहा.


लोकतांत्रिक हम बने रहे और जनता ने उन राजनेताओं को भी समय-समय पर कड़ा सबक सिखाया, जिन्होंने खुलेआम वादा-खिलाफी की. किंतु उससे कुछ खास बदला नहीं- नये रूपों में कभी उन्हीं परिवारों के, कभी रिश्तेदारों के, तो कभी चमचों के हाथों जनता धन लुटता रहा, नेता अमीर बनते रहे और आम जन पिसता रहा. लोकतंत्र दुर्भाग्यवश एक मशीन बन गया, हर पांच वर्षों में नये चेहरे आगे लाने का, और जनता के लिए 26 जनवरी और 15 अगस्त के असली मायने धुंधले होते चले गये.


अब बचा गणराज्य. हमारे शासक परिवारवादी वंशों और राजवंशों के नहीं होंगे और वे चुने हुए जनता के असली नेता होंगे, यह थी गणतंत्र की असली भावना और उद्देश्य. अब आप खुद तय करें कि हमने सात दशकों में वाकई कितना सफर तय किया.


निराशा के बादल से ही आशा की किरण फूटती है. एक नागरिक के नाते, आप और हम बहुत कुछ कर सकते हैं, जो हम कर नहीं रहे. क्या संभावनाएं हैं? एक नजर देखें-


पहला- अपने नेताओं को हम अपना राजा और अपना मालिक समझना बंद करें. 'सत्ता भ्रष्ट करती है और पूर्ण सत्ता पूर्ण भ्रष्ट करती है' के मंत्र पर ही हमें अपने नेताओं को समझाना होगा कि हमारे चुकाये कर के दम पर वे हमारे हितैषी नहीं बन जायेंगे- उन्हें नित नये नवाचारी और कुशल उद्यम और तरीकों से इन करों से काम लेकर दिखाना होगा. इनकी परीक्षा होनी आवश्यक है, और केवल एक जागरूक नागरिक वर्ग ही ऐसा कर पायेगा.


दूसरा- स्वार्थों के लिए छोटे-छोटे भ्रष्टाचार के जरिये हित साधने की अपनी आदतें हमें त्यागनी होंगी. हम ही उन बड़े भ्रष्टाचारों की नींव रख देते हैं, जिन घोटालों के फूटने पर हमें अचरज होता है.


तीसरा- हमारे मौलिक अधिकार अपने साथ कुछ गंभीर मौलिक कर्तव्य भी लाते हैं, यह हमें समझना होगा. एक हाथ से सब्सिडी लेते वक्त हम ध्यान रखें कि व्यवस्था को जिम्मेवार बनाना हमारी ही जिम्मेवारी है. आइये, एक सच्चा गणतंत्र बनायें. जय हिंद!