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राजद्रोह का चना जोरगरम-- चंदन श्रीवास्तव

फिल्म प्यासा का गीत है- ‘सर जो तेरा चकराये या दिल डूबा जाये', एक जगह तनिक छेड़ के साथ पात्र कहता है कि ‘लाख दुखों की एक दवा है क्यों ना आजमाये.' ऐसी दवा साहित्य के पन्नों में मिला करती है, लेकिन लगता है अब राजनीति ने भी यह दवा खोज निकाली है. सार्वजनिक महत्व के मसले पर राजनीतिक असहमति से उपजनेवाले तमाम दुख-दर्दों से छुटकारे की इस दवा का नाम है राजद्रोह का आरोप!
बात अटपटी लगे, तो बीते पखवाड़े छपी कुछ खबरों को याद करें.

एक खबर है रोहतक के एक व्यक्ति ने जाट-आरक्षण के मुद्दे पर प्रदेश के मुख्यमंत्री और कुछ अन्य मंत्रियों से असहमति जताते हुए फेसबुक पर पोस्ट डाली, तो उस पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ. दूसरी खबर, बसपा नेता मायावती की मूर्ति तोड़ने की कोशिश करनेवाले तीन लोगों को यूपी पुलिस ने राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया और कोर्ट ने बरी किया. कोर्ट ने कहा कि पूर्व मुख्यमंत्री की मूर्ति तोड़ने की कोशिश अपराध तो है, लेकिन राजद्रोह नहीं. तीसरी खबर इंदौर से है, जहां हिंदू चरमपंथियों के एक गुट को भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) के राष्ट्रीय सम्मेलन के गीत-संगीत और संवाद नागवार गुजरे. गुट ने पुलिस थाने का घेराव कर यह मांग रखी कि इसके आयोजकों पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हो.

इन सबसे अलग राजनीतिक नूरा-कुश्ती दिखाती दो खबरें और हैं. एक में कहा गया है कि आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के आइपी एस्टेट पुलिस थाने में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर के विरुद्ध राजद्रोह की शिकायत दर्ज करायी है. रक्षा मंत्री ने देहरादून के एक आयोजन में कहा था कि ‘भारतीय सैनिक हनुमान की तरह हैं, जिन्हें सर्जिकल स्ट्राइक से पहले अपनी शक्तियों का पता ना था.' आम आदमी पार्टी को लगता है कि यह टिप्पणी ‘तिरस्कारपूर्ण' और सशस्त्र बलों के प्रति असंतोष पैदा करने का सुनियोजित प्रयास है. ऐसा ही एक समाचार भाजपा के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बारे में है. उन्हें लगता है कि सर्जिकल स्ट्राइक का प्रमाण मांगनेवाले नेता राजद्रोह के अपराधी हैं. शिवसेना तो ऐसे नेताओं पर राजद्रोह का मुकदमा चलाने की मांग भी कर चुकी है.

राजनीतिक असहमति लोकतंत्र की जान है और ऊपर के सारे उदाहरण असहमति की भ्रूणहत्या के कृत्य कहलायेंगे. असहमति और आलोचना को राजद्रोह ठहरा कर कुचलने का चलन आजाद भारत में कब कितना तेज या मंद रहा, इसके बारे में निश्चयात्मक स्वर में कुछ कहना मुश्किल है, बशर्ते इमरजेंसी के दौर को अपवाद मानें. वजह है राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार या दोषी करार दिये गये लोगों के बारे में आंकड़ों का अभाव. इधर नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने ‘राजद्रोह' के आंकड़ों का प्रकाशन शुरू किया है. बीते दो साल के ये आंकड़े हाल में राजद्रोह के कानून के बढ़ते दुरुपयोग के संकेत करते हैं.

एनसीआरबी की पिछली दो रिपोर्टों के मुताबिक, 2015 में पुलिस ने कुल 147 घटनाओं को विधि द्वारा स्थापित राजसत्ता के विरुद्ध अपराधों की श्रेणी में माना और इसमें 20.4 फीसदी यानी हर पांचवीं घटना को राजद्रोह के रूप में दर्ज किया. 2014 में ऐसी घटनाओं की संख्या 176 थी और इसमें 26.7 फीसदी यानी एक चौथाई से ज्यादा घटनाएं राजद्रोह की मानी गयीं. राजद्रोह के मामले में इन दो सालों में कुल 131 लोगों को गिरफ्तार किया गया, लेकिन आरोपपत्र दाखिल हुए केवल 29 लोगों पर और दोषसिद्धि सिर्फ एक व्यक्ति की हुई.

राजद्रोह के कानून का दुरुपयोग भुगत चुके स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं को आशंका थी कि इसे आजाद भारत में भी अभिव्यक्ति के हनन का औजार बनाया जा सकता है. संविधान सभा की बहस में यह बात पुरजोर ढंग से उठायी गयी. इस कानून को असंवैधानिक मान कर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी. सुप्रीम कोर्ट ने ‘राजद्रोह' की धारा 124-ए को तो बहाल रखा, लेकिन केदारनाथ बनाम बिहार सरकार के मशहूर मामले में साफ-साफ कहा कि सरकार अथवा सरकारी अधिकारी के कृत्य की कटुतम आलोचना को भी राजद्रोह की धारा में विचारयोग्य नहीं माना जायेगा. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक, ‘नागरिक को सरकार या उसके उठाये कदमों के बारे में आलोचना या टिप्पणी के रूप में अपने पसंद की कोई भी बात लिखने का अधिकार है, बशर्ते यह अभिव्यक्ति विधि द्वारा स्थापित शासन के विरुद्ध लोगों को हिंसा के लिए ना उकसाये या उसमें सार्वजनिक बदअमनी फैलाने की मंशा ना हो.' विधिवेत्ताओं के मुताबिक, किसी अभिव्यक्ति को हिंसा का उकसावा करार देने के ठोस प्रमाण होने चाहिए, सिर्फ आशंका को वैध आधार नहीं माना जा सकता.

‘राजद्रोह' कानून का शब्द है. उसे रोजमर्रा का ‘चना जोरगरम' बना कर परोसने का शगल एक सशक्त लोकतंत्र बनने की हमारी संभावनाओं पर कुठाराघात कर सकता है.