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राजनीति का सूचकांक क्यों नहीं- अनिल जोशी

वर्तमान राजनीति में सभी असहाय-से लगते हैं। सबसे पीड़ित तो जनता ही है, जिसकी हर बार चुनाव में फेरबदल करने की कोशिश लगभग बेकार-सी हो जाती है, क्योंकि वही ढाक के तीन पात। राजनेता भी खुश-खुश से नहीं दिखते, क्योंकि अब चुनाव के बाद जो भी जनादेश आता है, वह आधा-अधूरा सा रहता है। फिर जोड़-तोड़ का नया खेल शुरू हो जाता है। मगर बात सत्ता की है, किसी न किसी तरह तो चाहिए ही, इसलिए परहेज नहीं कि वह कैसे मिले। खरीद-फरोख्त, ढेर सारे गठजोड़ के लालच और समझौते से बने गठबंधन हमारे सामने आते रहे हैं।

हाल ही में सामने आए दो राजनीतिक उदाहरण हमारे चिंतन का विषय हैं। यूपीए को दिन-रात कई तरह के समझौतों से गुजरना पड़ा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी शांत छवि से गठबंधन के कई दांव-पेच तो झेल गए, मगर उनके कार्यकाल के दौरान हुए घोटालों और भ्रष्टाचार ने पूरे देश को शर्मसार कर दिया। यूपीए के कार्यकाल के दौरान सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार सहित कई महत्वपूर्ण विधेयक पारित हुए हैं और पिछले सत्र में लोकपाल विधेयक भी पारित करवा लिया गया है, जिसका श्रेय संप्रग सरकार लेती है। पर राजनीति के मूल चरित्र में अभी बदलाव नहीं आया है। गठबंधन राजनीति आज की हकीकत है, जिसकी वजह से समझौते करने पड़ते हैं और एक तरह की अस्थिरता हमेशा बनी रहती है। इसके बावजूद यूपीए नेतृत्व अपनी नाकामियों का ठीकरा गठबंधन राजनीति पर नहीं फोड़ सकता।

राजनीतिक घटनाक्रम का दूसरा बड़ा उदाहरण दिल्ली विधानसभा चुनावों के बाद आम आदमी पार्टी की सरकार के गठन के रूप में सामने है। यहां सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बावजूद भाजपा बहुमत से पीछे रही और बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में सरकार बनाने से पीछे हट गई। लेकिन अल्पमत में होते हुए भी आप ने साहस दिखाया, मगर उसका तौर-तरीका बदला नहीं है। उसके नेता लगातार सरकार से बाहर जाने का संकेत करते रहते हैं।

राजनीतिक परिस्थितियां किसी भी तरह की क्यों न हो, सत्ता में कोई भी दल या गठबंधन क्यों न हो, भुगतना अंततः जनता को ही है। चाकू कद्दू पर गिरे या कद्दू चाकू पर, कटना तो कद्दू को ही पड़ेगा। समय आ चुका है कि आम आदमी को अब कद्दू से चाकू बनना पड़ेगा, क्योंकि बार-बार की चोट खाने से बेहतर है कि कुछ अन्य विकल्पों को भी खोजा जाए। अब लीक से हटकर कुछ करने के प्रयोगों का समय है। दिल्ली के चुनाव से एक बात तो साफ हो गई है कि लोग साफ-सफाई के पक्ष में तो हैं ही, लेकिन इसके साथ, ऐसे विचारों का भी समर्थन करना चाहते हैं, जिनमें जन व देशहित जुड़ा हो।

असल में, राजनीति के बदलते आयामों पर गौर करने की जरूरत है। इससे अन्य विकल्पों की तलाश में मदद मिलेगी। इसका असर राजनीतिक दलों की कार्यशैली पर भी पड़ना चाहिए। संसदीय लोकतंत्र में हमेशा किसी एक पार्टी की सत्ता नहीं होती। कभी एक पार्टी या गठबंधन की सरकार होती है, तो कभी दूसरी पार्टी या गठबंधन सत्ता में आ जाती है। सत्ता बदलने के साथ ही सरकार की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं, क्योंकि नई सरकार अपने घोषणापत्र पर काम करने लगती है। यह तो तय है कि पार्टियां बदलती रहती हैं, सरकार बदलती रहेगी, मगर कुछ मूलभूत समस्याएं जस की तस बनी रहती हैं। इसलिए क्या राजनीतिक दलों को जनहित से जुड़े मुद्दों पर कोई सहमति नहीं बनानी चाहिए? क्या जनहित के मुद्दों पर ऐसे साझे कार्यक्रम नहीं बनाए जा सकते, जिसे आगे बढ़ाने पर इस बात से फर्क न पड़े कि सत्ता में किस पार्टी या गठबंधन की सरकार है?

राजनीतिक दलों पर इस बात के लिए दबाव बनाना होगा कि वे विद्वानों, सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर एक क्षेत्र/एक राज्य/एक देश के लिए आपसी सहमति से विकास का रोडमैप तैयार करें। आपसी बातचीत और चिंतन से जो निकले, वही विकास का परम ब्लूप्रिंट हो। इसमें आम आदमी की प्राथमिकताओं से लेकर राज्य और देश की आर्थिक नीतियों और मूल विकास के सारे कार्यक्रमों का ब्योरा हो। इसका सबसे महत्वपूर्ण पहलू इसकी सामूहिक भागीदारी ही होगा, जिसमें सभी वर्गों के चिंतक हिस्सा लें। इस तरह जो भी विकास की रूपरेखा तैयार होगी, वह सभी को मान्य होगी और वह ही असल में, आने वाले वर्षों का घोषणापत्र हो। ऐसे में कोई पार्टी सत्ता में आए, उसे करना वही करेगा, जो आम आदमी की सहमति से तैयार विकास का मानचित्र होगा। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि पार्टियों की आपसी राजनीतिक बेमानियों से आम आदमी मुक्त हो सकेगा। और इस बात से आश्वस्त होगा कि गाड़ी कोई भी हो, पहुंचनी उसे तय मंजिल पर ही है।

इसी के आधार पर लोगों को राजनीतिक दलों को आंकने में भी मदद मिलेगी। तब राजनीतिक दलों की भूमिका पांच वर्ष में सिर्फ चुनाव तक सीमित नहीं रहेगी। आखिर राजनीतिक दलों को आंकने का कोई सूचकांक क्यों नहीं होना चाहिए? यदि इस तरह का कोई सूचकांक आपसी सहमति से तय हो जाए, तो मतदाता को राजनीतिक दलों को आंकने में मदद मिलेगी। राजनीति में अच्छे-बुरे के लिए कोई मान्य परिभाषा अभी तय नहीं हुई है। आज का अच्छा कल बुरा नहीं होगा, ऐसा दम नहीं भरा जा सकता। वक्त आ गया है, जब राजनीतिक दलों को आंकने की कसौटी बदली जाए।