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राजनीति में भ्रष्टाचार के साथ ही बढ़ता गया काला धन-- सुरेन्द्रकिशोर

ब्रिटिश अर्थशास्त्री कैलडोर ने 1956 में यह बताया था कि भारत में काला धन सकल घरेलू उत्पाद का 4-5 प्रतिशत है. वांचू कमेटी के अनुसार 1970 में करीब सात प्रतिशत था. एक अध्ययन के अनुसार 1985 में यह जीडीपी का 18-20 प्रतिशत हो गया. एक अन्य अध्ययन के अनुसार 1995-96 में यह बढ़कर 40 प्रतिशत हो गया था. 2005-6 में यह 50 प्रतिशत तक पहुंच गया. 1955 से लेकर बाद के वर्षों में सत्ताधारी नेताओं, बड़े अफसरों और व्यापारियों पर लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोप गंभीर से गंभीरतर होते चले गये. समय के साथ राजनीति में जैसे-जैसे भ्रष्टाचार बढ़ता गया,उसी अनुपात में अर्थव्यवस्था में भी काला धन की मात्रा बढ़ी.

हाल के ढाई वर्षों में केंद्र सरकार के मंत्रियों के खिलाफ किसी महाघोटाले की खबर अब तक नहीं आयी है. ताजा आकलन के अनुसार इस साल काला धन घटकर 20 प्रतिशत हो गया है. बीस प्रतिशत का मतलब है 30 लाख करोड़ रुपये. विमुद्रीकरण के मोदी सरकार के ताजा फैसले से इसके और भी घट जाने का अनुमान लगाया जा रहा है. पर अब सतत निगरानी की जरूरत पड़ेगी. पता नहीं निगरानी हो पायेगी भी या नहीं.

अर्थव्यवस्था की समस्याओं की जड़ में काला धन : अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार बताते हैं कि इस देश की अर्थव्यवस्था की लगभग सारी समस्याएं काला धन से ही जुड़ी हुई हैं. अपने अध्ययन के आधार पर प्रो़ कुमार बताते हैं कि जितना काला धन विदेश चला जाता है, उससे इस देश की विकास दर पांच प्रतिशत कम हो जाती है. चूंकि भारत के भीतर रह गये काला धन पर भी सरकार को टैक्स नहीं मिलता, इसलिए देश का विकास एक हद तक बाधित होता है.

नतीजतन बढ़ती आबादी के अनुपात में रोजगार कम सृजित होते हैं. बेरोजगारों में से अनेक लोग अपराधी गिरोहों तथा अतिवादी-आतंकवादी संगठनों के लिए भाड़े के 'सैनिक' बनते हैं. ऐसी खबरें आती रहती हैं. ऐसी समस्याओं पर काबू पाने के लिए जब सरकार काला धन समाप्त करने की कोशिश करती है तो हमारे देश के कुछ नेता व बुद्धिजीवी अगर-मगर लगाकर ऐसे कदम की भी आलोचना करने लगते हैं. कर भी रहे हैं.
काले धन पर आम सहमति जरूरी : जब काला धन के बल पर देश के भीतर और बाहर के राष्ट्रविरोधी तत्व ताकतवर होने लगें तोभी इस देश में काला धन पर आम राजनीतिक सहमति नहीं बनेगी? हालांकि इस आम सहमति की दिशा मेें नीतीश कुमार का ताजा बयान सकारात्मक है. उन्होंने काला धन पर नरेंद्र मोदी सरकार के 'सर्जिकल स्ट्राइक' का समर्थन किया है.

ठीक ही कहा गया है कि नेता सिर्फ अगला चुनाव देखता है और स्टेट्समैन की नजर में अगली पीढ़ी होती है. नीतीश का बयान स्टेट्समैन की तरह है. वैसे भी किसी व्यक्ति या सरकार के सारे काम सही या सारे काम गलत ही नहीं होते. इसलिए संतुलित दिमाग वाले लोग अच्छे कामों की सराहना और गलत कामों की आलोचना करते हैं. यदि बिहार के प्रतिपक्षी नेतागण भी राज्य सरकार के अच्छे कामों की सराहना और गलत कामों की आलोचना करें तो इससे उनकी ही साख बढ़ेगी. जो दल या व्यक्ति ऐसा नहीं करते, वे अपनी ही साख को दांव पर लगाते हैं. गिरती साख आज की राजनीति की एक बड़ी समस्या है.

चुनावी खर्च की चिंता : सामान्य चुनावी खर्चे के अलावा अब वोट खरीदने में भी अनेक राजनीतिक दल काफी पैसे खर्च कर रहे हैं. जहाज, हेलीकॉप्टर और शराब-दारू पर खर्च हो रहे हैं. कीमती उपहार, अघोषित वाहन, डमी उम्मीदवार, कार्यकर्ताओं के मेहनताना और पोलिंग एजेंट पर पैसे बहाये जा रहे हैं.

कई जगह पेड न्यूज पर भी खर्च आ रहा है. गत लोकसभा चुनाव के दौरान सिर्फ उत्तर प्रदेश में 330 करोड़ रुपये जब्त किये गये थे. वे पैसे इसी तरह के खर्चे के लिए एक जगह से दूसरी जगह ले जाये जा रहे थे. अगले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कुछ अधिक ही खर्च का अनुमान है. इस बीच 500 और 1000 के नोट रद कर दिये गये. ऐसे में अगले कुछ महीनों के भीतर चुनाव लड़ने वाले दलों का बौखलाना स्वाभाविक है. जाहिर है कि कुछ नेता देश के बारे में कम अपने अगले चुनाव में किसी कीमत पर विजय के बारे में अधिक चिंता करते हैं. इसके साथ ही, एक और आंकड़ा मौजूं होगा. गत तीन लोकसभा चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों ने चंदा के रूप में कुल 2338 करोड़ रुपये प्राप्त किये थे. इसमें से 1039 करोड़ रुपये नकद लिए गये. जाहिर है कि नगद लेने का उद्देश्य क्या था.

अमेरिकी मीडिया जनता से दूर : अमेरिकी मीडिया वहां के अधिकतर मतदाताओं की प्राथमिकताओं को जानने-समझने में विफल रहा. आम तौर पर मीडिया ने हिलेरी क्लिंटन की जीत की भविष्यवाणी की, पर जीत गये डोनाल्ड ट्रंप. ऐसा भारत में भी हो जाता है. 1971 में भारतीय मीडिया के एक बड़े हिस्से ने इंदिरा गांधी की जीत की भविष्यवाणी नहीं की थी. बल्कि उसने उनका विरोध किया था. तब के मीडिया को इस बात का अंदाज ही नहीं लग सका कि 'गरीबी हटाओ' के नारे का अधिकतर जनता पर कितना अधिक असर हो चुका है. हालांकि इंदिरा सरकार ने 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था और पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्स व विशेषाधिकार भी समाप्त कर दिये थे. यह सब गरीबी हटाओ अभियान के तहत हुआ था.

नतीजतन मीडिया के बड़े हिस्से के विरोध के बावजूद इंदिरा कांग्रेस 1971 का लोकसभा चुनाव जीत गयी थी. उधर, डोनाल्ड ट्रंप ने वहां के अधिकतर मतदाताओं के विचारों के अनुकूल ही अपने नारे गढ़े और उछाले. ट्रंप ने कहा था कि इस्लामिक कट्टरपंथ और आतंकवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने की जरूरत है. इस तरह ट्रंप के कुछ अन्य नारे भी मतदाताओं की बड़ी जमात के दिलों के तार छेड़ दिये. कभी 'दुनिया के दारोगा' की भूमिका निभाने वाले अमरीका के अधिकतर लोग आतंकवाद के सामने अमरीका को हारते हुए नहीं देखना चाहते.अमरीका का कथित उदार मीडिया इस बात का आकलन नहीं कर सका. गत लोकसभा चुनाव में कमोवेश भारत में भी ऐसा ही हुआ था. दरअसल मीडिया और राजनीतिक पंडितों का एक हिस्सा जब तक अपने राजनीतिक विचारधारा, सामुदायिक हित और व्यक्तिगत एजेंडा को नहीं छोड़ेगा, तब तक उसके आकलन व भविष्यवाणी गलत साबित होते रहेंगे. कई राजनीतिक पंडित यह चाहते हैं कि चुनाव में कोई खास दल या व्यक्ति हार जाये व उनकी पसंद का दल या व्यक्ति जीत जाये.

वे लिख मारते हैं कि वैसा ही होने वाला है. नब्बे के दशक में किसी ने बीबीसी की साख का राज पूछा था. उस पर उस मीडिया संगठन के एक बड़े अधिकारी ने बताया था कि 'यदि दुनिया के किसी देश में कम्युनिज्म आ रहा है तो हम उसे रोकने की कोशिश नहीं करते. सिर्फ यह खबर देते हैं कि कम्युनिज्म आ रहा है. दूसरी ओर कहीं से कम्युनिज्म समाप्त हो रहा है तो भी हम सिर्फ रिपोर्ट करते हैं न कि उसे बचाने की कोई कोशिश. हमारी साख का यही राज है.'

और अंत में : जो काम अमेरिकी मीडिया नहीं कर सका, वह चीन के एक बंदर ने कर दिया. बंदर राजा 'गेडा' ने गत 4 नवंबर को ही यह बता दिया था कि डोनाल्ड ट्रंप चुनाव जीतेंगे. इससे पहले इसी साल की गर्मियों में आयोजित यूरो कप 2016 में जीत की सही भविष्यवाणी उस बंदर ने कर दी थी. क्या यह मात्र संयोग ही है या उस बंदर में कोई अदृश्य शक्ति छिपी हुई है?