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राजनीतिक शक्ति का प्रयोजन क्या है- रविभूषण

सोलहवें लोकसभा चुनाव की घोषणा के पूर्व अब तक के जो राजनीतिक दृश्य हैं, उनमें किसी कोने से भी यह मालूम नहीं होता कि राजनीति को गंभीरता से देखा-समझा जा रहा है. बड़ा और महत्वपूर्ण सवाल यह है कि राजनीति से जुड़े लोग (नेता सहित) राजनीति को किन अर्थो-मूल्यों से जोड़ रहे हैं? क्यों कोई दल चुनाव में अपने प्रत्याशियों को खड़ा करता है? किसी भी अन्य राजनीतिक दल से कोई दल चुनाव पूर्व या चुनाव पश्चात गंठजोड़ क्यों बनाता है? क्यों कोई प्रत्याशी चुनाव में खड़ा होकर विजयी बनना चाहता है? वह क्यों राजनीतिक शक्ति हासिल करना चाहता है? राजनीतिक शक्ति का प्रयोजन क्या है? सत्ता-प्राप्ति का वास्तविक उद्देश्य क्या है?

भारत के शिक्षित-सुशिक्षित अभिजन, बुद्धिजीवी निरंतर उन प्रश्नों से कम टकराते या जूझते हैं (चंद अपवादों को छोड़ कर) जो प्रश्न भारत के सामान्य जन के हैं, जब ‘स्वतंत्र’ होने के बाद भी तीसरी दुनिया के देश नवउपनिवेशवाद और नव साम्राज्यवाद के कुचक्र-दुश्चक्र में फंस चुके हों, तो इन देशों के बौद्धिकों/बुद्धिजीवियो का सामाजिक उत्तरदायित्व क्या है? लाख टके (रुपये) पानेवाले विश्वविद्यालयों के ‘आचार्य’ दो टके की बात भी क्यों नहीं करते? सोलहवें लोकसभा का चुनाव के पहले नेताओं को अपने से कुछ सवाल पूछने चाहिए या नहीं? मतदाताओं को नेताओं से सवाल करने चाहिए या नहीं?

इस लेख का शीर्षक महान अफ्रीकी बुद्धिजीवी मल्लाम अमीनुकानो के अंतिम अभिलिखित टेलीविजन इंटरव्यू से है, जिसमें उन्होंने नेताओं से यह सवाल किया है कि वे राजनीति में क्यों आते हैं? वे शासन करना, सत्ता प्राप्त करना क्यों चाहते हैं? ऐसे निष्कपट, सरल किंतु गंभीर सवाल हम अपने नेताओं से नहीं पूछते. राजनीतिज्ञों और उत्पीड़कों से भारत में ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते. महान अफ्रीकी कथाकार चीनुआ अचेबे की छोटी पुस्तक ‘दि ट्रबल विद नाइजीरिया’ (1983) में एक लेख है- ‘दि इग्जांपल ऑफ अमीनु कानो.’ भारत के समान नाइजीरिया भी ब्रिटिश शासन के अंतर्गत था. औपनिवेशिक देश आजादी के बाद एक नये दुश्चक्र में फंसे हुए हैं. आधी-अधूरी राजनीतिक स्वतंत्रता के बाद भी इन देशों में कसमसाहटें और अकुलाहटें देखी जा सकती हैं. चीनुआ ने अपने इस लेख में राजनीतिज्ञों और उत्पीड़कों के हाथों समूची नाइजीरियाई आबादी को उल्लू बनाने, धोखा देने की बात कही है. उन्होंने चुनावी छल-कपट, धोखेबाजी की चर्चा की है. अचेबे जिस चीनी कहावत को उद्धृत करते हैं. वह हमारे लिए भी आज महत्वपूर्ण है.

वह कहावत यह है कि अगर हमें एक बार मूर्ख बनाया जाता है, तो यह बनानेवाले की शर्म है और जब दोबारा हमें मूर्ख बनाया जाता है, तो यह हमारी शर्म है. जहां तक निर्वाचकीय शर्म की बात है, इसने स्वयं को मात्र दो बार नहीं, दो सौ बार मूर्ख बनना स्वीकार किया है. अचेबे वोटरों/मतदाताओं को जगाते हैं, उसे खतरों-जोखिमों से सचेत करते हैं, उसे होश में आने और जाग्रत होने को कहते हैं कि उसे अपने नेताओं से यह निर्णायक और कठिन/संगीन प्रश्न अवश्य पूछना चाहिए कि तुम मेरा वोट क्यों चाहते हो? मतदाताओं को चाहिए कि वे राजनीतिक दलों की वास्तविक पहचाने करें. क्या भारत भ्रष्ट, लालची, पाखंडी, झूठे, सत्ता-लोलुप नेताओं के चंगुल में फंस चुका है? मतदाता अपने नेताओं और राजनीतिक दलों से सीधे सवाल क्यों नहीं पूछता कि वे चुनाव लड़ना और जीतना क्यों चाहते हैं? राजनीतिक शक्ति हासिल करने का उनका प्रयोजन क्या है? राजनीति का सही मकसद क्या है? क्यों ‘बड़े-बड़े लोग’ चुनाव लड़ने के लिए बेचैन हैं? राजनीति किसके लिए है? धोखाधड़ी, लूट-हत्या, दंगा-फंसाद, झूठ-मक्कारी, छीना-झपटी, लोभ-लालच का राजनीति से क्या वास्ता है?

नेता भ्रष्ट, जनता त्रस्त क्यों है और कब तक है? अमीनु कानो ने अपने अंतिम इंटरव्यू में यह कहा है कि नेताओं को सदैव अपने से यह पूछना चाहिए कि वे शासन करने के लिए जनादेश क्यों प्राप्त करना चाहते हैं? सरकार का वास्तविक प्रयोजन क्या है और क्या होना चाहिए? शासन किसलिए है? जनता को ठगने, उसे झांसा देने, उससे वादाखिलाफी-दगाबाजी करने के लिए या उसे जाग्रत करने के लिए? जनता को विभाजित कर, विविध समुदायों, जातियों, संप्रदायों में विभक्त कर सत्ता हासिल करना चाहिए या राजनीतिक शक्ति किसी बड़े उद्देश्य के लिए हासिल की जानी चाहिए? चीनुआ अचेबे ने यह कहा है कि मतदाताओं को यह कहने का साहस होना चाहिए कि उन्हें अतीत के स्वप्न देखने का अधिकार है और नेताओं को जनता के वर्तमान के ‘विजन’ को अवरुद्ध करने, उसमें बाधा डालने और इक्कीसवीं शताब्दी में उनके बच्चों की सफलता के अवसरों को बंधक रखने की अनुमति नहीं दी जा सकती. क्या वर्तमान भारत को बदलने की तड़प और बेचैनी हममें नहीं है? चीनुआ अचेबे ने नाइजीरिया के सवालों से टकराते हुए लगभग 32-33 वर्ष पहले एक लेख लिखा था- ‘ह्वेयर द प्रॉब्लम लाइज.’ उन्होंने अपने देश के बारे में यह लिखा था- ‘यह देश आज भी बदल सकता है, अगर वह ऐसे नेताओं की खोज करे, जिनमें इच्छा, योग्यता हो और विजन हो. यह प्रबुद्ध/ज्ञान-संपन्न नागरिकों का कर्तव्य है कि वह उस मार्ग की खोज करे, जिस पर चला जा सके और एक वातावरण निर्मित किया जा सके. अगर यह सचेतन प्रयत्न नहीं होता, अच्छे नेता अच्छी मुद्रा की तरह खराब द्वारा बाहर कर दिये जायेंगे.’

एक अफ्रीकी देश-नाइजीरिया के संबंध में चीनुआ ने जो लिखा है, वह भारत के संबंध में भी सच है. सरकार के प्रयोजन और उद्देश्य के उन्होंने दो हिस्से माने हैं- देश में शांति-स्थापना और नागरिकों के बीच सामाजिक न्याय और उसका विस्तार ये दोनों अलग-अलग न होकर अंत:संबद्ध हैं. अन्य सारे प्रश्न इन दो के अंतर्गत हैं. इन दोनों का सामाजिक, मानवीय और राष्ट्रीय चेतना से संबंध है. भाजपा अपने को एकमात्र राष्ट्रवादी पार्टी घोषित करती है. पूर्व थल सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह ने दो दिन पहले भाजपा में शामिल होते समय भाजपा को ‘राष्ट्रवादी’ और ‘राष्ट्रहितकारी’ कहा है. क्या सचमुच ‘राष्ट्र निर्माण’ और ‘राष्ट्रहित’ की चिंता भाजपा को है? भाजपा वाजपेयी का गुणगान करते नहीं थकती. वाजपेयी जी की भतीजी करुणा शुक्ला 32 वर्ष तक भाजपा में रहने के बाद उसे छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हो चुकी हैं. उन्होंने नरेंद्र मोदी पर पतिधर्म और राजधर्म का पालन न करने के बाद राष्ट्रधर्म का पालन न करने की भी आशंका प्रकट की है. अंत में फिर वही सवाल ‘राजनीतिक शक्ति का प्रयोजन क्या है?’