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राजनीतिक शक्ति बनें किसान-- राजकुमार सिंह

अगर किसी कृषि प्रधान देश में कृषि और किसान ही संकट में आ जायें तो देश की दशा-दिशा का अंदाजा लगा पाना मुश्किल नहीं होना चाहिए। भारत एक कृषि प्रधान देश है, यह बात दशकों से पाठ्य पुस्तकों में पढ़ायी जाती रही है, क्योंकि लगभग 80 प्रतिशत तक आबादी जीवनयापन के लिए कृषि और उससे जुड़े काम-धंधों पर निर्भर रही है। इसलिए ग्रामीण भारत को ही असली भारत भी कहा गया। आजादी के बाद हमारे शासकों ने शहर केंद्रित औद्योगिकीकरण का विकास मॉडल चुना। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि गांवों में बसने वाली और जीवनयापन के लिए कृषि पर निर्भर आबादी का प्रतिशत घटता गया है। नब्बे के दशक में वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण के बाद से तो गांवों से शहरों की ओर पलायन की यह रफ्तार और भी तेज हुई है। ऐसा नहीं है कि शहरों और वहां केंद्रित विभिन्न तरह के उद्योग-धंधों ने ग्रामीणों के स्वागत में पलक-पांवड़े बिछा दिये हैं। कड़वा सच तो यह है कि आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में सरकारी-गैर सरकारी नौकरी के लिए गांव से शहर जाने की प्रवृत्ति अब जीवनयापन के लिए किसी भी तरह की मेहनत-मजदूरी करने की मजबूरी में बदल गयी है। हर शहर के बाहरी, या अब अंदरूनी इलाकों में भी, जो तेजी से बढ़ती झुग्गी बस्तियां दिखायी पड़ती हैं, वे दरअसल इसी भारत महान के लाड़लों के बसेरे हैं। ये लोग शहर आते तो हैं बेहतर जीवन की आस में, पर पाते हैं हाशिये पर जैसे-तैसे घिसटती जिंदगी।


निश्चय ही इसके लिए शहरवासियों को दोष नहीं दिया जा सकता। अपनी जरूरत की मजबूरी में ही सही, शहरवासी तो इन्हें जीवनयापन का जरिया ही उपलब्ध करवाते हैं, लेकिन देश के नीति-नियंता तो इनकी बदहाल जिंदगी के लिए जिम्मेदारी और जवाबदेही से मुक्त नहीं हो सकते। आजाद भारत के विकास का मॉडल हमारे हुक्मरानों को ही चुनना था। महात्मा गांधी ने आगाह भी किया था कि असली भारत गांव में बसता है और लोकतंत्र की प्राथमिक इकाई गांव ही हैं। सरदार वल्लभभाई पटेल और चौधरी चरण सिंह भी बताते रहे कि भारत की खुशहाली का रास्ता खेल-खलिहान से होकर गुजरता है। फिर भी हमारे हुक्मरानों ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को स्वायत्त और टिकाउ बना सकने वाले कुटीर उद्योगों के बजाय शहर केंद्रित विशाल औद्योगिकीकरण की राह चुनी। यह सही है कि उद्योग बड़ी संख्या में रोजगार सृजित करते हैं और बदलते विश्व परिदृश्य में उनके बिना दुनिया के साथ कदमताल भी नहीं की जा सकती, लेकिन फिर भी 20-30 प्रतिशत शहरी आबादी को ही ध्यान में रखकर भारत सरीखे विशाल और बहुलतावादी देश की विकास योजनाएं नहीं बनायी जा सकतीं। सत्ता अहमन्यता का पर्याय जो बन गयी है। तभी तो चौतरफा बदहाली-बर्बादी के बीच भी मेरा देश बदल रहा है, मेरा देश बन रहा है सरीखे आत्ममुग्ध नारे सुनायी पड़ते हैं।


वापस गांव और कृषि की ओर लौटते हैं। शहर की ओर बढ़ते पलायन के परिणामस्वरूप अब गांवों में 50 प्रतिशत से कुछ ही ज्यादा आबादी रह गयी है, पर सवा अरब से भी ज्यादा आबादी वाले भारत में यह संख्या कम है क्या? फिर संविधान तो हर नागरिक को समान अवसर और सम्मान के साथ जीने का अधिकार देता है। आजादी के 70 सालों में ग्रामीण और शहरी भारत के बीच की खाई अचानक ही चौड़ी नहीं हो गयी है। देश की प्राथमिकताओं और विकास योजनाओं की दशा-दिशा के चलते यह खाई लगातार बढ़ती गयी है। जाहिर है, पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवार बढ़ रहे हैं तो बंटवारे के चलते कृषि भूमि और उससे होने वाली आय लगातार घट रही है। गांवों से बढ़ते पलायन के चलते शहरों के विस्तार और नये शहरों की बसावट की मजबूरी भी अंतत: गांवों और कृषि भूमि को ही निगल रही है। फिर आजादी के 70 साल में भी गांवों तक रोजगार तो दूर, बेहतर शिक्षा-स्वास्थ्य सुविधाओं का न पहुंच पाना भी युवाओं को मजबूर कर रहा है कि मृगतृष्णा के वशीभूत होकर ही सही, वे शहरों की ओर पलायन करें।


ऐसा नहीं है कि हमारे नीति-नियंता अपने विकास मॉडल के दुष्परिणामों का अनुमान नहीं लगा सकते थे, पर उन्होंने तो सामने आने पर भी इन विकृतियों का निदान करने की कोई कार्ययोजना नहीं बनायी। ये परिणाम बेहद स्वाभाविक थे। इसीलिए चौधरी चरण सिंह सरीखे जमीन से जुड़े राजनेता लगातार ग्रामीणों को कृषि से इतर वैकल्पिक रोजगारों के लिए अपने बच्चों को तैयार करने की सलाह देते रहे। बेशक यह काम आसान नहीं था, क्योंकि गांव में सुविधाएं नहीं थीं और शहर जाने का सामर्थ्य नहीं था। इसलिए सत्ताधीशों का इंडिया शाइन करता रहा और आम आदमी का भारत लगातार धुंधलाता रहा। बेशक यह संकट सिर्फ कृषि का नहीं है, लेकिन गैर किसान ग्रामीणों की अर्थव्यवस्था, और नतीजतन जीवनयापन भी कृषि के इर्द-गिर्द ही घूमता है। इसलिए कृषि का संकट अंतत: पूरे ग्रामीण जीवन का ही संकट बन जाता है। नि:संदेह कृषि का संकट पुराना है, लेकिन अन्नदाता द्वारा आत्महत्या की खतरनाक प्रवृत्ति अपेक्षाकृत नयी है। निष्कर्ष पर पहुंचना तो जल्दबाजी होगी, पर इस गहन निष्पक्ष पर शोध की जरूरत निश्चय ही है कि कृषि प्रधान भारत में अन्नदाता किसानों द्वारा आत्महत्या की प्रवृत्ति 1991 में आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के बाद ही नजर आती है। दरअसल उदारीकरण और वैश्वीकरण का लाभ तो गांव और कृषि तक नहीं पहुंचा, उलटे उसकी दुश्वारियां लगातार बढ़ती गयीं।


नि:संदेह यह स्थिति किसी भी लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करने वाली है, लेकिन आश्चर्य की पराकाष्ठा देखिए कि किसान और कृषि इस देश के राजनीतिक एजेंडा पर चुनावी दांवपेच से ज्यादा कुछ नहीं है। कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने किसान कर्ज माफी का झुनझुना बजाकर वर्ष 2009 का लोकसभा चुनाव जीत लिया था तो भाजपानीत राजग ने स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने का झूठा वायदा कर 2014 में केंद्रीय सत्ता कब्जा ली। सच कड़वा होता है, और सच यह है कि दोनों ही बार किसान को छल के अलावा कुछ नहीं मिला। अगर मिला होता तो आज भी देश के विभिन्न भागों से अन्नदाता की आत्महत्या की खबरें नहीं आ रही होतीं। ऐसे में एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि संकट के इस काल में किसान राजनीति कहां गुम है? यों तो देश में किसान आंदोलन की शुरुआत महात्मा गांधी के चंपारण आंदोलन से मानी जा सकती है, लेकिन स्वामी सहजानंद, चौधरी छोटूराम, चरण सिंह और देवीलाल से लेकर शरद जोशी-महेंद्र सिंह टिकैत तक किसान नेतृत्व की जो लंबी शृंखला रही है, उसके मद्देनजर तो किसान राजनीति का यह बांझपन और भी हैरान करने वाला है।


किसान राजनीति से आगाज करने वालों के सरोकार सत्ता पाते ही बदल गये तो तमाम राजनीतिक दलों ने किसानों को भी जाति-धर्म के नाम पर बांटते हुए अपने-अपने छद्म किसान नेता गढ़ लिये। इनमें से ज्यादातर स्वयंभू किसान आते भी उसी जमींदार श्रेणी से हैं, जो सदियों से किसानों का शोषण करते रहे हैं। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति ही बदलाव का कारगर औजार है। इसलिए अगर अन्नदाता को अपनी दुश्वारियों से निजात पाकर सुकून और सम्मान की जिंदगी जीनी है तो किसान राजनीति को नयी दिशा देने वाले नेता अपने बीच से ही आगे बढ़ाने होंगे, देश के अलग-अलग भागों में किसान और कृषि से जुड़े मुद्दों पर संघर्षरत संगठनों को भी व्यापक हित में एकजुट होना पड़ेगा। तभी सत्ता तक उनकी आवाज पहुंचेगी और उसकी सुनवाई भी होगी, जैसे दूसरे संगठित वर्गों की होती है।

(journalistrksingh@gmail.com)