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राजनैतिक मर्यादा की प्रतिमूर्ति-योगेंद्र यादव

सुरेंद्र  मोहन जी की चिता जलती देखकर फ़िर एक बार मन में विचार आया. इंडिया गेट पर अमर जवान ज्योति की तरह देश में कहीं-न-कहीं एक गुमनाम राजनैतिक कार्यकर्ता का स्मारक भी बनना चाहिए. बदन पर सादा, बिना प्रेस किया कुर्ता-पाजामा, पैर में रबड़ की चप्पल, कंधे पर झोला और आंखों में चमक. मूर्ति के नीचे लिखा जा सकता है पूर्णकालिक राजनैतिक कार्यकर्ता.



जैसे सुरेंद्र मोहन जी थे.और कुछ नहीं तो यह स्मारक आने वाली पीढ़ियों को इस लुप्त प्राय प्रजाति से तो परिचय करायेगा. यह याद दिलायेगा कि कभी इस देश में राजनीति सिर्फ़ राजनेताओं के बेटा-बेटी, प्रापर्टी एजेंट और धन्नासेठ ही नहीं, साधारण लोग भी करते थे. अपने आप कोफ़ुल टाइमरयापूर्णकालिक कार्यकर्ताकहलाना पसंद करते थे. इनके लिए राजनीति एक कैरियर या धंधा नहीं, बल्कि एक जुनून था. युवावस्था में अपनायी विचारधारा का जुनून, चाहे वह गांधीवाद हो, या फ़िर समाजवाद या माक्र्सवाद या कोई और वाद. न चाकरी की चाह न खर्चे-पानी की व्यवस्था.



समाज की उपेक्षा और अक्सर घर-परिवार की लानतों  को ङोलते हुए उसी समाज को बदलने की धुन. और अंत में न कोई ताम्रपत्र न लालबत्ती. अमूमन इनकी कहानी का अंत अकेलेपन, अंधेरे और तपेदिक में होता था. जिस लोकतंत्र पर आज हम इतराते हैं उसकी नींव में ऐसे हजारों पूर्णकालिक राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने अपनी हड्डियां गलायी हैं.



बीस वर्ष की उम्र में ही समाजवादी आंदोलन से जुड़ जानेवाले सुरेंद्र मोहन ने दो साल काशी विद्यापीठ में पढ़ाने के बाद पूर्णकालिक कार्यकर्ता का रास्ता चुना. पार्टी का चेहरा बनने की बजाय उसके संगठन की रीढ़ बनना पसंद किया. एक बार राज्यसभा के सदस्य भी रहे, लेकिन सांसद बने रहने के लिए समझौता नहीं किया. खुशकिस्मत  थे कि उन्हें जीवनसंगिनी और परिवार का समर्थन रहा.



बाद में अखबारों में लिखकर सीधी-साधी गृहस्थी का निर्वाह भी किया. बौद्धिक और सांगठनिक प्रतिभा के धनी सुरेंद्र मोहन गुमनाम नहीं रहे. लेकिन गुमनाम कार्यकर्ता का स्मारक उनके जीवन के कई पहलुओं की याद दिलायेगा.ऐसा कोई स्मारक इस हकीकत को दर्ज करेगा कि इतिहास के एक दौर में राजनीति मर्यादा और संस्कार की उर्वर जमीन थी. सुरेंद्र मोहन जी की पीढ़ी तक कांग्रेस की नैतिक ऊर्जा चुक गयी थी. लेकिन आंदोलनों के गर्भ से पैदा हुए अन्य दल में राजनैतिक मर्यादा और संस्कार गढ़े जा रहे थे.



मितभाषी, संकोची और आचार-व्यवहार में मर्यादित सुरेंद्र मोहन जी इस संस्कार का उदाहरण थे. जनता दल सरकार द्वारा खादी ग्रामोद्योग आयोग का अध्यक्ष बनाये जाने को स्वीकार तो किया, लेकिन सरकार गिरने के साथ ही अपने आप इस पद से इस्तीफ़ा दे दिया.गुमनाम कार्यकर्ता के झोले में पड़ी किताब यह याद दिलायेगी कि इन कार्यकर्ताओं ने नीति और ज्ञान के रिश्ते को जोड़ा.



जब विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा समाजशास्त्र समाज से कटा हुआ था, तब राजनीति ने ज्ञान को सामाजिक सरोकार से जोड़ा. सुरेंद्र मोहन जी ने कई किताबें और सैकड़ों लेख लिखे. राजनीति, अर्थनीति, देश-दुनिया और समाज पर जमकर पढ़ा और लिखा. समाजवादी आंदोलन की विरासत को इतिहास के पन्नों पर दर्ज किया, समाजवादी विचार को भविष्य के माथे पर अंकित करने की जिद बनाये रखे.



अच्छा होगा अगर गुमनाम कार्यकर्ता की जेब में बस या रेल का एक टिकट डाल दिया जाये. यह टिकट उन यात्राओं का प्रतीक होगा, जो राजनैतिक कार्यकर्ताओं के जीवनचर्या का हिस्सा रही. जैसे भक्ित परंपरा के संतों ने अपनी यात्राओं से इस देश में सांस्कृतिक तार जोड़े, उसी तरह बीसवीं सदी में राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने देश के कोने-कोने में घूमकर राजनैतिक एकता का ताना-बाना बांधा.



नागालैंड में मानवाधिकार का मुद्दा हो या कश्मीर में अलगाव का, बिहार में कोसी अंचल की व्यथा हो या मध्यप्रदेश के किसानों का आंदोलन, सुरेंद्र मोहन जी हर जगह पहुंचे. 84 वर्ष की आयु में कृश काया और तमाम बीमारियों के बावजूद यात्राओं का सिलसिला अनवरत जारी रहा. मृत्यु से एक हफ्ता पहले भी वे मुंबई गये थे, देशभर के समाजवादियों को एक सूत्र में पिरोने की  मुहिम में.देश के भीतर ही नहीं, देश को दुनिया से जोड़ने का काम भी राजनीति से जुड़े लोगों ने किया.



सुरेंद्र मोहन जी समाजवादियों की अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से जुड़े रहे, नेपाल के लोकतांत्रिक संघर्ष से अभिन्न रिश्ता बनाए रखा. ग्लोबीकरण के युग से पहले पूरी दुनिया की चिंता को मन में रखने वाले इन लोगों ने एक सच्ची अंतरराष्ट्रीयता की बुनियाद रखी.एक गुमनाम राजनैतिक कार्यकर्ता का स्मारक एक बुनियादी रिश्ते को रेखांकित करेगा.



आजादी के बाद इन हजारों कार्यकर्ताओं ने समाज और सत्ता में एक संबंध बनाये रखा. लोक और तंत्र के बीच गहराती खाई पर एक पुल का काम किया. सुरेंद्र मोहन जी के पास ऐसे कार्यकर्ताओं का तांता लगा रहता था. अपने इलाके में एक स्कूल या पुल बनाने के लिए प्रयासरत कार्यकर्ता, जल-जंगल-जमीन के संघर्ष में जुटे कार्यकर्ता, जनता परिवार की तमाम पार्टियों में फ़ंसे, उपेक्षित और क्षुब्ध कार्यकर्ता, अपने जीवन निर्वाह के संकट में फ़ंसे कार्यकर्ता.



सुरेंद्र मोहन जी के पास हरेक के लिए समय था, स्नेह था, कोई न कोई सलाह थी. वे समाज और सत्ता के बीच इस पुल का काम पूरी निष्ठा और ईमानदारी से करते रहे, अंत तक.भ्रष्टाचार के टेप में उलङो और राजनीति को भ्रष्टाचार की गंगोत्री मानने वाले देश को मेरा यह सुझाव अटपटा लग सकता है.



लेकिन  ऐसा मानने वाले अपने गांव-मुहल्ले में  ईमानदार राजनैतिक कार्यकर्ता को नजरअंदाज तो नहीं कर रहे? हां, चलते-चलते यह जिक्र कर दूं, अपने जीवन के अंतिम दिन सुरेंद्र मोहन जी जंतर-मंतर पर धरने में शरीक हुए थे. धरना भ्रष्टाचार के खिलाफ़ था.


(लेखक सीएसडीएस)