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राजस्थान के स्मार्ट गांव- पत्रलेखा चटर्जी

हवा में 'स्मार्ट सिटीज' के चर्चे हैं। लेकिन मीडिया की चकाचौंध से दूर देश के अनेक गांव भी स्मार्ट होने लगे हैं। मसलन, हरियाणा में बच्चियों को बचाने की अनोखी पहल के तहत जिंद की एक ग्राम पंचायत ने, जहां अब तक लड़कों की तुलना में लड़कियों का अनुपात अब तक बहुत कम रहा है, 'सेल्फी विद डॉटर' प्रतियोगिता शुरू की है। बीबीपुर ग्राम पंचायत ने यह प्रतियोगिता शुरू की है, जिसमें राज्य भर के माता-पिताओं को आमंत्रित किया जाता है कि वे अपनी बेटियों के साथ सेल्फी ‌खींचकर लोकप्रिय मैसेजिंग ऐप ह्वाट्सऐप के जरिये गांव के सरपंच को भेजें।

मामला सिर्फ हरियाणा तक सीमित नहीं है। इस सप्ताह जब कई देशों में आतंकवादी हमले हुए हैं, और देश के भीतर राजनीतिक विवादों से जुड़ी नौटंकी लंबी खिंच गई है, तब ग्रामीण राजस्थान की ग्राम पंचायतों में बालिकाओं के अनुपात को बेहतर करने की पहलकदमी ध्यान खींचती है। अपने देश में बच्चों की चाहत ने कन्या भ्रूणहत्या को एक महामारी का रूप दे दिया है, जिसमें तकनीक ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बालिकाओं के घटते अनुपात से देश में आपात स्थिति जैसी हालत बन गई है। केंद्र सरकार का 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' अभियान इस संकट के समाधान का ताजतरीन प्रयास है। लेकिन जैसा कि सब जानते हैं, लड़कों को वरीयता देने की सोच और पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश के बावजूद तब तक कुछ नहीं बदलने वाला, जब तक बुनियादी स्तर पर पहल न हो।

राजस्थान भी उन राज्यों में से है, जहां 2011 की जनगणना में बालिकाओं का घटता अनुपात चौंकाने वाला रहा। 2011 की जनगणना के मुताबिक, राज्य में प्रति 1,000 बच्चों पर बच्चियों की संख्या महज 888 है, जबकि 2001 में उनकी संख्या 909 थी। राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में हालत ज्यादा चिंतनीय है। अलबत्ता चार साल बाद स्थिति आश्वस्त करने वाली है। कुल 110 आंगनबाड़ियों से इकट्ठा किए गए आंकड़ों के मुताबिक, अप्रैल, 2014 से मार्च, 2015 तक 30 ग्राम पंचायतों में 1,460 लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या 1,620 आंकी गई।

यह सुखद बदलाव कई वजहों से आया है। इसकी मुख्य वजह तीन वर्ष की एक सहयोगी परियोजना रही है। इसके तहत एक एनजीओ द सेंटर फॉर एडवोकेसी ऐंड रिसर्च (सीएफएआर) और जेआरडी टाटा ट्रस्ट ने राजस्थान के जयपुर और जोधपुर मंडल के छह जिलों की ग्राम पंचायतों को बच्चियों के प्रति प्रोत्साहित किया। 2012 में शुरू हुई इस परियोजना में बच्चियों के प्रति समाज की सोच बदलने के लिए कई तरीके अपनाए गए। सीएफएआर की राज्य प्रोग्राम मैनेजर राखी बधवार और ग्राम पंचायत के कुछ नेताओं को सुनने के बाद, जो पिछले सप्ताह दिल्ली में थे, साफ हुआ कि सम्मान या मर्यादा की पारंपरिक सोच से मुक्ति पाने के बाद ही ग्रामीण राजस्थान ने लड़कियों का महत्व समझा। जिन गांवों में लड़कों और लड़कियों के जन्म को अब तक अलग-अलग ढंग से देखा जाता रहा है, वहां नवजात बच्चियों के जन्म पर माता-पिता को बधाई पत्र भेजना यकीनन एक बड़ा कदम था। इसकी शुरुआत जुलाई, 2013 में जालौर जिले की केशवना पंचायत से की गई, जिसे बाद में सभी जिला प्रशासकों ने अपनाया। कुल मिलाकर राज्य की 85 पंचायतों में 2,050 से अधिक बधाई पत्र वितरित किए गए, जिनमें जालौर, जयपुर और दौसा जिले सबसे आगे रहे।

बच्चियों के जन्म पर बधाई देना और उनके माता-पिता का सम्मान करना वस्तुतः लोगों की पुरानी सोच को बदलना है, भले ही यह काम धीरे-धीरे ही क्यों न हो। दौसा जिले के डीडवाना गांव की कलसा बाई कहती हैं कि जब उसकी पांचवीं बेटी ने जन्म लिया, उसने सोचा कि उसका परिवार उसका समर्थन नहीं करेगा। लेकिन जब ग्राम पंचायत और समुदाय के दूसरे सदस्य उसकी बेटी पैदा होने पर खुशियां मनाने उसके यहां इकट्ठा हुए, तो उसके अपने परिवार के लोग भी खुश हुए और उन्होंने भी समारोह में हिस्सेदारी की।

दौलतपुरा कोटाडा गांव की सरपंच विनीता राजावत बच्चियों और महिलाओं के प्रति� बद्धमूल सामाजिक सोच को खत्म करने में कारगर एक और तथ्य की ओर इशारा करती हैं। आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को कहा गया कि वे बच्चियों के टीकाकरण पर विशेष ध्यान दें। प्रतीकों का अपना महत्व होता है। राजावत कहती हैं, 'मैं राजपूत परिवार से हूं, लेकिन पंचायती राज सस्थाओं के सामने मिसाल देने के लिए मेरा पर्दे से बाहर निकलना जरूरी था, ताकि यह संदेश दिया जा सके कि हम औरतें एकजुट होकर उन मुद्दों पर विचार-विमर्श कर सकती हैं, जो लड़कियों और महिलाओं की बेहतरी के लिए महत्वपूर्ण हैं।'

राजस्थान के इन स्मार्ट गांवों और उनके दूरदर्शी नेताओं से उत्तर प्रदेश को सबक लेना चाहिए। उत्तर प्रदेश में हालांकि बालिकाओं का अनुपात सुधरा है। 2001 की जनगणना में राज्य में प्रति हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या 898 थी, जो 2011 की जनगणना में बढ़कर 912 हो गई है। लेकिन भविष्य में तस्वीर बदल भी सकती है।�