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राजस्थानी भोजन का जवाब नहीं-- बाबा मायाराम

धापु बाई ने राजस्थानी में लोकगीत की ऐसी तान छेड़ी कि सबको मंत्रमुग्ध कर दिया। यह गीत राजस्थान में पाए जाने वाले खेजड़ी वृक्ष पर था। इसकी लोग पूजा करते हैं। फलियों की सब्जी बनती है, जिसे सांगरी कहते हैं। पत्तियां जानवर चरते हैं। यह राजस्थान का राज्य वृक्ष भी है।
 
 

इसी गीत से खाद्य विकल्प संगम की शुरूआत हुई। यह राजस्थान के बीकानेर के बज्जू में 6 से 9 अक्टूबर तक आयोजित हुआ था। उरमुल संस्था के बज्जू स्थित परिसर में इसका आयोजन हुआ था। इसमें वैकल्पिक खाद्य और उससे जुड़ी राजनीति, संस्कृति, विविधता, न्याय, पर्यावरण आदि कई मुद्दों पर चर्चा हुई.

 

इस संगम को बैनयन रूट्स और कल्पवृक्ष ने संयुक्त रूप से आयोजित किया था। इसमें खासतौर पर राजस्थान के परंपरागत खेती, खाद्य और भोजन संस्कृति पर चर्चा हुई। और यह भी कि इंदिरा गांधी नहर के आने के बाद भोजन में क्या बदलाव आ रहे हैं। इसके साथ ही हरित क्रांति, सरकारी नीतियां, नकदी फसलें आदि पर बात हुई, साथ ही नए संदर्भ में फिर से विविधता और जैविक उत्पादन की जो पहल हो रही हैं, उन पर भी चर्चा हुई।

 

नागालैंड, मणिपुर, कर्नाटक, महाराष्ट्र,ओड़िशा, लद्दाख, मध्यप्रदेश, गोवा और राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों की समस्याएं और विकल्पों पर चर्चा की गई। इस मौके पर राजस्थान से आए कुछ क्षेत्रों के लोगों ने स्थानीय भोजन व परंपरागत खेती के बारे में विस्तार से बताया।

 

महाराष्ट्र के गढचिरौली के गोंड, ओडिशा के नियमगिरी क्षेत्र के कौंध, और मणिपुर और नागालैंड के आदिवासियों ने जंगल से मिलने वाले खाद्य पदार्थों और झूम खेती के बारे में अपने अनुभव साझा किए। राजस्थान के सामाजिक व किसान कार्यकर्ताओं ने पशुपालन के बारे में अपने अनुभव व समस्याएं साझा की। इस मौके पर नागालैंड, कर्नाटक और राजस्थान के अनाजों, सब्जियों के स्टाल लगाए गए जिसे लोगों ने बहुत सराहा। बीजों व खेती के बारे में इससे जानकारी हासिल की।


यह राजस्थान का रेगिस्तान का इलाका है। दूर-दूर तक रेत और कंटीली झाड़ियां फैली हुई हैं। यहां रेत भी चलती है, दौड़ती है, जब हवाएं तेज चलती हैं। यह रेत कई तरह की आकृतियां बना देती है और टिम्बा ( टीले) भी। यहां की सड़कें कई बार पूरी तरह रेत से ढक जाती हैं।

 

आखिर यह विकल्प संगम क्यों, यह बताना उचित होगा। इस पर कल्पवृक्ष के संस्थापक सदस्य और पर्यावरणविद् आशीष कोठारी ने विकल्प संगम का उद्देश्य बताते हुए कहा कि जमीनी स्तर पर इस दिशा में जो काम हो रहा है, उसे एक साथ ला पाएं, यही प्रयास है। आपस में विकल्प की कहानियों को बांटना और एक-दूसरे से सीखना, आपस में मिलना और एक साथ जुड़ना। एक वैचारिक सोच बनाना, जो भाईचारा, प्यार और मूल्यों पर आधारित हो। इसके अलावा, अगर कृषि नीति में सुधार होना चाहिए, वह कैसा हो, खेती, पानी और आजीविका की व्यवस्था में क्या सुधार हो। हम एक ऐसे विकास की सोच को बढ़ावा देना जिससे पर्यावरण का नुकसान किए बिना समुदायों की आजीविका व खाद्य की पूर्ति हो सके।

 

खाद्य संगम की शुरूआत में दिखाई गई लघु फिल्म में प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक देबल देव कहते हैं कि जहां देशी बीज और परंपरागत खेती जिंदा है, वहां परंपरागत खेती और किसान भी जिंदा है। परंपरागत खेती की देखभाल किसान करते हैं और वह किसानों की देखभाल करती है। मिश्रित खेती का परंपरागत ज्ञान, कौन सी फसलें बोना है, किस तरह की मिट्टी में कौन सा बीज उपयुक्त है, यह सब विकल्प है।

 

दक्षिणी राजस्थान के बैनयन रूट्स से आए रोहित ने कहा कि उनके इलाके में छोटी जोत वाली जमीनें हैं। बीजों में काफी विविधता है। पहले बिना रासायनिक खेती होती थी, अब रासायनिक खेती होने लगी है। पश्चिमी राजस्थान में भी खेती के तौर-तरीके बदल रहे हैं। अब बैल-ऊंट से हल नहीं चलते। ट्रेक्टर आ गया है।

 

उरमुल के अरविंद ओझा ने कहा कि पहले परंपरागत खेती में मक्का- ज्वार में 70 प्रतिशत घास (चारा) होता था और 30 प्रतिशत अनाज होता था। घास मवेशियों के लिए होता था और अनाज मनुष्य के लिए। सभी जीवों का पालन इस खेती में हो जाता था। अब नकदी फसलें आने से उसमें घास खत्म हो गया है, उसे बाहर से मंगाना पड़ता है। यहां का सेवण, धामण घास व चारागाह खत्म हो गए हैं, जो पशुपालन मुश्किल होता जा रहा है।

 

कृषि के जानकार सूंडाराम वर्मा ने बताया कि सीकर की एक महिला जो घूम-घूम कर कथा सुनाती है, वह रोज 10-15 किलोमीटर चलती है। अब 105 साल की है। उसने कभी खाना घर नहीं बनाया। जहां जाती है, वहीं खाती है। भोजन की विविधता के कारण अब भी स्वस्थ है। उन्होंने बताया कि वे देशी किस्मों को बढ़ाते हैं। उन्होंने बताया कि यहां जयपुर के एक गांव में एक किसान के पास टिंडा की अच्छी वैरायटी है। इसी प्रकार से सीकर जिले में एक गांव की मीठी प्याज की बहुत मांग है।


कल्पवृक्ष की शीबा डेसोर ने देश भर विकल्प हो रही पहल के बारे में जानकारी दी। उन्होंने कहा कि देशी बीजों व देशी खेती के साथ जो परंपरागत ज्ञान हैं, लोककथाएं हैं, उनको भी सहेजना जरूरी है, जिससे नई पीढ़ी में यह ज्ञान हस्तांतरित हो सके। वे स्वयं इस मुद्दे पर लगातार अध्ययन व शोध कर रही हैं।

 

उरमुल सेतु संस्था के रामेश्वर लाल ने बताया कि यहां पशुपालन आजीविका का मुख्य स्रोत है। भेड़, बकरी, गाय, भैंस और ऊंट पालते हैं। इसे बढ़ावा देने के लिए हमने ग्रामीणों की मदद से सामूहिक और व्यक्तिगत चारागाह बनाए। चार गांवों में यह काम किया पर एक ही गांव में सफल हुआ। इस गांव का नाम धाणी भोपालाराम है। इस गांव में एकता और सामूहिकता ज्यादा थी। इन गांवों में उन्होंने सेवण घास की प्रजाति को लगाया था।

दूसरे दिन हम तीन टीमों में विभक्त होकर गांवों में गए। मैं माणकासर गांव गया। हम रूपराम की ढाणी (घर) में रूके। उन्होंने बताया कि वे कुछ साल पहले ही यहां आए हैं, जब इंदिरा गांधी नहर का पानी आया। बरसों पहले उनके पिता जब अकाल पड़ा था तब पलायन कर गए थे। गंगानगर में मजदूरी करते थे, वहीं उनका जन्म हुआ। लेकिन जब नहर आई तब फिर यहीं आ गए। खेती करने लगे। खरीफ में मूंगफली और ग्वार की खेती करते हैं। रबी में गेहूं, चना और सरसों की। उनका एक लड़का पटवारी और दूसरा शिक्षक। उन्होंने बताया कि बहुत सीमित मात्रा में पानी दिया जाता है, इसलिए टंकी बनाई है, इस टंकी में घर की छत का पानी भी एकत्र किया जाता है। इस बीच हमने बाजरा की रोटी, दही और राबड़ी के स्वादिष्ट भोजन का आनंद लिया।

इन चार दिनों में हमने बज्जू में बातचीत के साथ राजस्थानी भोजन का लुत्फ उठाया। बाजरा का रोट ( रोटी), बाजरे का चूरमा, ग्वार फल्ली की सब्जी, मिर्ची-लहसुन की चटनी, रायता( फोग के फूल से बघारा हुआ), सांगरी की सब्जी आदि का आनंद लिया। यहां का भोजन लाजवाब है और भोजन खिलाने की परंपरा भी। खाद्य विकल्प संगम का भी यही उद्देश्य है कि स्थानीय मिट्टी पानी के अनुकूल देशी बीजों की परंपरागत विविधता की संस्कृति को सामने लाया जाए, और ऐसी खेती की पद्धतियों की चर्चा की जाए जो बिना पर्यावरण का नुकसान किए लोगों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करें।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं