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राजस्व के लिए नया स्रोत तलाशें

बजट में वित्त मंत्री के सामने प्रमुख चुनौती राजस्व जुटाने की है.

पाकिस्तान के साथ गतिरोध को देखते हुए हमें रक्षा खर्च बढ़ाने होंगे. स्मार्ट सिटी जैसी योजनाओं के लिए भी राजस्व चाहिए. हालिया आंकड़ों से पता चलता है कि अर्थव्यवस्था की सुस्ती टूटी नहीं है. टैक्स वसूली शिथिल है. अत: राजस्व के दूसरे स्नेत खोजना होगा.

पिछले कुछ वर्षो को छोड़ दें तो विश्व में तेल का उत्पादन मुख्यत: क्रूड ऑयल से होता रहा है. क्रूड ऑयल धरती में तरल रूप में पाया जाता है. इसे पम्प करके निकालना आसान होता है. हाल में तेल के एक दूसरे स्नेत का अविष्कार हुआ है. धरती के गर्भ में मिट्टी-बालू के बीच तेल की भारी मात्र पड़ी है. इस शेल ऑयल को निकालने की नयी तकनीक ‘फ्रैकिंग' का इजाद पिछले दशक में हुआ है. शेल ऑयल का उत्पादन मुख्यत: अमेरिका में हो रहा है. शेल ऑयल निकालने का खर्च करीब 60 डॉलर, जबकि क्रूड ऑयल का मात्र 10-20 डॉलर पड़ता है.

लंबे समय से ईंधन तेल का दाम 100 डॉलर प्रति बैरल के करीब रहा है. शेल ऑयल का उत्पादन तब लाभकारी था, जब तेल के दाम इस स्तर पर बने हुए थे. इससे कुल तेल उत्पादन में लगभग पांच प्रतिशत की वृद्धि हुई है. साथ-साथ यूरोप, चीन और जापान में अर्थव्यवस्था की गति धीमी बनी हुई है. तेल की सप्लाई अधिक तथा मांग कम होने से तेल के दाम गिर रहे हैं, जो कि 100 डॉलर से गिर कर 50 डॉलर के पास पहुंच गया है. तेल के दाम गिरने से रूस को भारी नुकसान हुआ है. उस देश द्वारा अर्जित विदेशी मुद्रा का आधा हिस्सा तेल से आता है.

विश्व के करीब 40 प्रतिशत तेल का उत्पादन तेल निर्यातक देशों के संगठन ‘ओपेक' के सदस्यों द्वारा किया जा रहा है. इनमें सऊदी अरब अग्रणी है. पूर्व में जब तेल के दाम में गिरावट आती थी, तो ओपेक द्वारा उत्पादन में कटौती की जाती थी. इससे तेल की सप्लाई कम हो जाती थी और दाम स्थिर हो जाते थे. इस बार सऊदी अरब ने उत्पादन में कटौती से इनकार कर दिया है और दाम को टूटने दिया है. इसके दो कारण हैं. एक यह कि अमेरिका में बढ़ते शेल ऑयल के उत्पादन को सऊदी अरब झटका देना चाहता है.

दाम गिरने से शेल ऑयल का उत्पादन लाभकारी नहीं रहेगा और इन उद्योगों की हवा निकल जायेगी. बाद में सऊदी अरब तेल के दाम को फिर बढ़ाना चाहेगा. दूसरा कारण सउदी अरब और ईरान के बीच अरब दुनिया के नेतृत्व की होड़ है. ईरान की अर्थव्यवस्था भी तेल के निर्यात पर निर्भर है. सऊदी अरब के आकलन में तेल के दाम की गिरावट को ईरान सहन नहीं कर पायेगा और अर्थव्यवस्था के टूटने से उस देश का कद कम हो जायेगा. ईरान को रूस का समर्थन प्राप्त है. रूस के लिए भी तेल के गिरते दाम चुनौती है. इन देशों के वर्तमान नेतृत्व के हटने के बाद सऊदी अरब पुन: तेल के दाम में वृद्धि का प्रयास करेगा.

ऐसे में भारत को तय करना होगा कि वह किसके साथ खड़ा होगा. सऊदी अरब के साथ खड़ा रहने पर तत्काल सस्ता तेल मिलेगा, पर दीर्घ काल में दाम ऊपर चढ़ेंगे. ईरान तथा रूस के साथ खड़े होने पर भी तत्काल सस्ता तेल मिलेगा, चूंकि इस युद्ध में तेल के दाम गिरेंगे, साथ-साथ दीर्घकाल में भी दाम न्यून रहेंगे. मनमोहन सरकार ने अमेरिका के इशारे पर ईरान से तेल का आयात कम कर दिया था. मोदी ने इस निर्णय को पलट दिया है.

इससे ईरान को भी तेल बेचने का एक रास्ता मिल गया है, जिससे पश्चिमी प्रतिबंधों का वह सामना कर रहा है. भारत को भी राहत मिली है. उधर, रूसी राष्ट्रपति की हालिया भारत यात्रा के दौरान भारत तथा रूस ने रुपये के माध्यम से आपसी व्यापार करना स्वीकारा है. रूस से भारत तक तेल की पाइप लाइन बिछाने पर भी समझौता हुआ है.

ईरान तथा रूस से तेल का आयात करने में हमें एक और लाभ है. सऊदी अरब इत्यादि देशों को हमें पेमेंट डॉलर में करना पड़ता है. अपने माल का निर्यात करके डॉलर अर्जित करने की जिम्मेवारी हमारी होती है. ईरान तथा रूस से तेल का आयात करने में हमें इस परेशानी से कुछ छुटकारा मिल जाता है. दोनों देशों ने तेल का पेमेंट रुपये में लेना स्वीकारा है.

यह उनकी जिम्मेदारी बनती है कि इन रुपयों से वे भारत से क्या माल खरीदेंगे. अमेरिका चाहता है कि भारत इन देशों से तेल का आयात न करे और इन्हें टूटने दे. मेरी समझ से हमें अमेरिका के इस दबाव की अनदेखी करनी चाहिए. कारण कि इन देशों द्वारा रुपये में पेमेंट लेने से हमें राहत मिलेगी. दूसरे, इन देशों के जीवित रहने से तेल उत्पादक दोनों गुटो में घमासान जारी रहेगा, जिससे तेल का दाम न्यून बना रहेगा.

अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल सस्ता होने का लाभ उपभोक्ताओं को पहुंचाने के बजाय वित्त मंत्री उस पर टैक्स बढ़ा कर रक्षा तथा स्मार्ट सिटी जैसी योजनाओं के लिए धन जुटा सकते हैं. आयातित तेल पर बढ़ती निर्भरता भविष्य में अभिशाप साबित हो सकती है. इसलिए टैक्स बढ़ा कर लोगों को खपत कम करने के लिए जागरूक करना जरूरी है.