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राज्यों से बेहतर तालमेल जरूरी- नृपेन्द्र मिश्र

बस दो हफ्तों की बात और है, इसके बाद केंद्र में एक नई सरकार होगी, जिसे बेकाबू भ्रष्टाचार, धीमी विकास दर, बेरोजगारी, आवश्यक वस्तुओं के बढ़ते दामों और गहरी जड़ें जमा चुकी दोषपूर्ण मान्यताओं से उपजी राजनीतिक व्यवस्‍था जैसी विकराल चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। चुनावी सरगर्मियों पर नजर डालने से साफ पता चलता है कि ऐसे तीन मुद्दे हैं, जो औसत मतदाता की परेशानियों का सबब बनते हैं।

इनमें सबसे पहला और महत्वपूर्ण है, भ्रष्टाचार का मुद्दा, जिससे मौजूदा सरकार घिरी हुई है। इसकी मुख्य वजह सरकार की ओर से मिलने वाली छूट की प्रचलित व्यवस्‍था है। सरकार से असंतुष्टि की दूसरी प्रमुख वजह है, आम आदमी पर पड़ती महंगाई की मार। दिक्कत यह है कि थोक मूल्य और उपभोक्ता मूल्य सूचकांकों पर तो खूब बहस होती है, मगर सब्जियों और अनाज के लगातार बढ़ते दामों के घरेलू बजट पर पड़ने वाले असर पर कोई बात नहीं होती। प्याज को ही लीजिए, भरपूर आपूर्ति के बावजूद इसकी किल्लत बताई जाती है, जिससे गृहिणियां परेशान हो जाती हैं। दरअसल इसके पीछे कालाबाजारियों और क्रोनी पूंजीवाद के दूसरे घटकों का गठजोड़ जिम्मेदार है। तीसरा महत्वपूर्ण मुद्दा धर्मनिरपेक्षता का है। वोट की राजनीति के लिए इसका गलत इस्तेमाल होता है, जिससे सांप्रदायिक सौहार्द में कमी आई है। इससे अल्पसंख्यक भी खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं।

जाहिर है, नई सरकार से लोगों की ढेरों उम्मीदें होंगी, मगर हर किसी को संतुष्ट करना उसके लिए मुश्किल होगा। लेकिन राष्ट्रीय स्तर की कुछ ऐसी प्राथमिकताएं हैं, जिन्हें व्यापक राष्ट्रीय सहमति के आधार पर स्वीकार करना चाहिए। नई सरकार को सांप्रदायिक सौहार्द पर जोर देकर इसे कायम रखने के लिए कार्ययोजना बनानी चाहिए। व्यावहारिक रूप से कहें, तो सरकार को किसी भी तरह की सांप्रदायिक या जाति आधारित गड़बड़ी या हिंसा के प्रति बिल्कुल भी नरमी नहीं बरतनी चाहिए। ऐसा करने वाले शरारती तत्वों के प्रति, चाहे वे किसी भी राजनीतिक दल से क्यों न जुड़े हों, किसी भी तरह की उदारता नहीं दिखानी चाहिए।

दुर्भाग्य से अधिकांश राज्यों में ऐसी कार्यसंस्कृति जड़ जमा चुकी है कि जब तक ऊपर से आदेश न मिले, कोई काम नहीं होता। यहां तक कि छोटे-मोटे अपराधियों की गिरफ्तारी भी राजनीतिक दिशा-निर्देश की मोहताज होती है। यह साफ किया जाना चाहिए कि कानून और व्यवस्‍था से जुड़े तमाम मामले घटनास्‍थल पर मौजूद प्रशासनिक मशीनरी के ही जिम्मे होंगे। दरअसल ऐसे मामलों में केंद्र सरकार को अपनी भूमिका निभानी होगी और इसे लेकर राज्य सरकार में किसी तरह का संदेह नहीं होना चाहिए।

तर्क दिया जा सकता है कि कानून-व्यवस्‍था, राज्य सूची का विषय होता है, ऐसे में केंद्र की सक्रियता संघवाद के सिद्धांत से असंगत होगी। ऐसे विवादों से बचने के लिए जरूरी है कि नई सरकार राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ वार्ता जारी रखे। केंद्र सरकार को यह साफ करना चाहिए कि दंगों के शुरू होते ही अगर उन पर नियंत्रण नहीं किया जा सका, तो उसके लिए संविधान के प्रासंगिक अनुच्छेदों का उपयोग करते हुए जरूरी हस्तक्षेप करना अनिवार्य हो जाएगा। स्‍थानीय लोगों के जीवन और संपत्ति की सुरक्षा करना जिला प्रशासन, राज्य सरकार और केंद्र सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। हाल ही में असम और उससे पहले मुजफ्फरनगर की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के समय प्रशासन देर से हरकत में आया था, इसकी पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए।

अगर राज्यों के सहयोग से केंद्र सरकार सांप्रदायिक दंगों को रोकने में कामयाब हो जाती है, तो यह देश के राजनीतिक विमर्शों में मील का पत्‍थर साबित होगा। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में हो रही विषाक्त सैद्धांतिक और व्यवहारिक बहसों में विकास और रोजगार जैसे मुद्दे छाने लगेंगे। ऐसा होने पर केंद्र सरकार मिलीभगत वाले पूंजीवाद में कमी लाने पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकती है। लाइसेंसों की अवैध व्यवस्‍था और विवेकाधीन शक्तियों के दुरुपयोग के चलते आज माफिया प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में लगे हैं। ऐसे में नई सरकार को प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहन, भ्रष्टाचारियों पर चल रहे मामलों के कुशल और त्वरित निपटारे की व्यवस्‍था, विवेकाधीन शक्तियों पर रोक और सरकारी खरीद तंत्र को दुरुस्त बनाने की व्यवस्‍था करते हुए पारदर्शिता को बढ़ावा देना चाहिए।

इसके अलावा विकास कार्यक्रमों की प्राथमिकताओं को समय-सीमा से बांध कर देखना होगा। सार्वजनिक और निजी निवेश व्यवस्‍था को मजबूत बनाते हुए पूरे देश में एक निश्चित समय के भीतर निर्बाध बिजली आपूर्ति का वायदा असंभव नहीं होना चाहिए। बुनियादी ढांचागत कमियों को भी दूर किया जाना चाहिए। ऐसा होने पर ही राज्यों के संसाधनों को स्वास्‍थ्य और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में बेहतर ढंग से खर्च किया जा सकेगा।

गौरतलब है कि भारत जैसा विशाल देश महज केंद्रीय नियंत्रण के भरोसे अपने लोकतंत्र को मजबूती दिलाने की उम्मीद नहीं कर सकता। इसके लिए राज्यों का सहयोग और भरोसा बेहद जरूरी है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इसे समझते थे। इसीलिए वह राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर महत्वपूर्ण आंतरिक और विदेशी मामलों से अवगत कराते थे। जरूरी है कि बहुत से लाइसेंस देने, पर्यावरणीय और निवेश प्रस्तावों से जुड़ी मंजूरियां देने की शक्ति धीरे-धीरे राज्यों को हस्तांतरित की जाएं।

(लेखक, दूरसंचार नियामक के पूर्व प्रमुख और पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन के निदेशक हैं)