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राह दिखाता केरल मॉडल-- सुभाष गताडे

सत्तर के दशक में केरल का सामाजिक-आर्थिक विकास का माॅडल पूरी दुनिया में सूर्खियां बना था. केरल के लोगों के जीवनस्तर में बढ़ोत्तरी (जो सामाजिक सूचकांकों में प्रतिबिंबित हो रही थी) कई विकसित देशों के बराबर थी, जबकि राज्य की प्रतिव्यक्ति आय बहुत कम थी. इसने पश्चिमी अर्थशास्त्रियों को अंचभित किया था और इसे केरल माॅडल कहा गया था.

दिलचस्प बात है कि इन दिनों केरल के दूसरे ‘माॅडल' की चर्चा दिख रही है, जहां पता चल रहा है कि केरल के स्कूलों में पढ़नेवाले पहली से बारहवीं कक्षा तक के एक लाख चौबीस हजार से अधिक बच्चों ने अपने प्रवेश फाॅर्म में धर्म या जाति का उल्लेख नहीं किया है.

गौरतलब है कि पिछले दिनों केरल विधानसभा में कैबिनेट मंत्री सी रबींद्रनाथ द्वारा दिये गये लिखित जवाब के बाद यह बात स्पष्ट हुई.
संविधान की धारा 51 (जो नागरिकों के बुनियादी अधिकारों को लेकर है तथा जो वैज्ञानिक चिंतन, मानवता, सुधार और खोजबीन की प्रवृत्ति विकसित करने पर जोर देती है) के संदर्भ में यह समाचार महत्वपूर्ण है.

आज जब धर्म के नाम पर दंगा-फसाद-झगड़े आये दिन की बात हो गये हों, जाति को लेकर ऊंच-नीच की भावना और तनाव मौजूद हों, तब इसकी अहमियत ज्यादा बढ़ जाती है. ग्यारहवीं-बारहवीं कक्षा के छात्रों का इस सूची में होना यह बताता है कि उनके माता-पिता ने यह अहम फैसला एक दशक पहले लिया था. अब कोई पूछ सकता है कि क्या यह परिघटना महज केरल केंद्रित है? निश्चित ही नहीं!

इसी किस्म की खबर कुछ वक्त पहले मुंबई के अखबारों की सूर्खियां बनी थीं, जब अंतरधर्मीय विवाह करनेवाले एक युगल द्वारा अपनी नवजन्मी संतान के साथ किसी धर्म को चस्पां न करने का निर्णय सामने आया था. मराठी परिवार में जनमी अदिति शेड्डे और और गुजराती परिवार में पले आलिफ सुर्ती (चर्चित कार्टूनिस्ट और लेखक आबिद सुर्ती के बेटे) के अपने निजी जीवन के एक इस छोटे से फैसले ने एक बहस खड़ी की थी.

इस युगल का मानना था कि बड़े होकर उनकी संतान जो चाहे, वह फैसला कर ले, आस्तिकता का वरण कर ले, अज्ञेयवादी बन जाये या धर्म को मानने से इनकार कर दे, लेकिन उसकी अबोध उम्र में उस पर ऐसे किसी निर्णय को लादना गैरवाजिब होगा.

गाैरतलब है कि अदालतें भी इस मामले में बेहद सकारात्मक रवैया अपनाती दिखती हैं. सर्वोच्च न्यायालय का हालिया निर्णय इस बात की तस्दीक करता है कि बच्चे के लालन-पालन के लिए उसे सौंपे जाने के मामले में धर्म एकमात्र पैमाना नहीं हो सकता.

मालूम हो कि अदालत नौ साल की एक बच्ची की अभिरक्षा (कस्टडी) से संबंधित एक मामले पर गौर कर रही थी, जिसमें उसकी नानी-दादी के बीच मुकदमा चल रहा था.

बच्ची का पिता बच्ची की मां की हत्या के जुर्म में सजा भुगत रहा है. सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति बोबडे की अगुआई वाली पीठ ने बेटी की दादी की इस याचिका को खारिज कर दिया, जिन्होंने दावा किया था कि उनके मुस्लिम बेटे की हिंदू पत्नी (जिसने विवाह बाद इस्लाम अपना लिया था) की मां को नहीं, बल्कि उनकी पोती के लालन-पालन का अधिकार उन्हें मिलना चाहिए, क्योंकि वह ‘मुस्लिम' हैं.

लेकिन, सर्वोच्च न्यायालय ने मुंबई उच्च न्यायालय के निर्णय पर मुहर लगा दी कि उसकी नानी (मृत हिंदू पत्नी की मां) ही बच्ची की अभिभावक हो सकती है. इस तरह न्यायालय ने बच्ची के कल्याण को सर्वोपरि रखा.

पिछले साल हैदराबाद उच्च न्यायालय में स्वीकृत एक जनहित याचिका में यही सवाल फोकस में था कि अपनी संतान को क्या माता-पिता के नाम जुड़ी जाति तथा धर्म की पहचान के संकेतकों से नत्थी करना अनिवार्य है. न्यायालय ने इस संबंध में आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना की सरकारों को ही नहीं, बल्कि केंद्र सरकार को भी जल्द जवाब देने के लिए कहा था. प्रस्तुत याचिका को डीवी रामाकृष्ण राव और एस क्लारेंस कृपालिनी ने दािखल किया है.

अंतरधर्मीय एवं अंतरजातीय विवाह किये इस दंपती ने यह तय किया है कि अपनी दोनों संतानों के साथ वह जाति तथा धर्मगत पहचान नत्थी नहीं करना चाहते. उन्होंने देखा कि ऐसा कोई विकल्प सरकारी तथा आधिकारिक दस्तावेजों में नहीं होता, जिसमें लोग अपने आप को ‘किसी धर्म या जाति से न जुड़े होने' का दावा कर सकें. इसलिए यह याचिका अदालत में प्रस्तुत की गयी है, ताकि इन फॉर्म्स में एक काॅलम ‘धर्मविहीन और जातिविहीन' होने का भी जुड़ सके.

आज एक तरफ विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रचंड तरक्की ने हमें अब तक चले आ रहे तमाम रहस्यों को भेदने का मौका दिया है और दूसरी तरफ हम आस्था के चलते सुगम होती विभिन्न असहिष्णुताओं या विवादों के प्रस्फुटन को अपने इर्द-गिर्द देख रहे हैं. इस दौर में संतान और माता-पिता/अभिभावक की धार्मिक आस्था के संदर्भ में एक किस्म की अंतरक्रिया अधिक उचित जान पड़ती है.

बाल मन पर होनेवाले धार्मिक प्रभावों के परिणामों पर विस्तार से लिखनेवाले ब्रिटिश विद्वान रिचर्ड डाॅकिंस के विचारों से इस मसले पर रोशनी पड़ती है.

अपनी किताब ‘गाॅड डिल्यूजन' में वह एक छोटा सा सुझाव यह देते हैं कि क्या हम ‘ईसाई बच्चा/बच्ची' कहने के बजाय ‘ईसाई माता-पिता की संतान' के तौर पर बच्चे/बच्ची को संबोधित नहीं कर सकते, ताकि बच्चा यह जान सके कि आंखों के रंग की तरह आस्था को अपने आप विरासत में ग्रहण नहीं किया जाता.