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राहुल का मिशन उत्तरप्रदेश : डॉ महेश रंगाराजन

पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के परिणाम आने से एक दिन पहले राहुल गांधी तड़के ही भट्टा पारसौल पहुंच गए थे। उसी दिन उनकी गिरफ्तारी होने तक वे उन लोगों के बीच थे, जो एक तरफ पुलिस व सैन्य बल और दूसरी तरफ भूमि हस्तांतरण के विरोध में प्रदर्शन कर रहे ग्रामीणों के बीच हो रहे संघर्ष में पिस रहे थे। लेकिन इसके बाद जो हुआ, उसमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं था।

रिहाई के बाद प्रेस वार्ता में राहुल गांधी मृतकों की संख्या के विवरणों और ग्रामीण महिलाओं के साथ हुए र्दुव्‍यवहार पर ध्यान केंद्रित करते नजर आए। लेकिन बाद में इन दोनों ही बिंदुओं पर वे विस्तार से बात करने से कतराते रहे। जाहिर था, उनके सभी दावों की पुष्टि साक्ष्यों के साथ नहीं की जा सकती थी। स्थानीय समाचार चैनल, प्रिंट मीडिया व अन्य राजनीतिक पार्टियां आक्रामक रुख अख्तियार किए हुई थीं, लेकिन बसपा ने पूछा कि क्या राहुल गांधी तथ्यों को तोड़मरोड़ कर उन्हें राजनीतिक पूंजी में परिवर्तित नहीं कर रहे हैं। भाजपा और खासतौर पर पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह (जो उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं) ने भी इसी सुर में बात की।

लेकिन अगर मामले की गहराई से पड़ताल करें तो पाएंगे कि चीजें इतनी स्पष्ट नहीं हैं। दो तथ्य बिल्कुल साफ हैं। पहला है उत्तरप्रदेश में भूमि अधिग्रहण से संबंधित विवादों का बढ़ता दायरा। यमुना और गंगा एक्सप्रेसवेज के निर्माण और शहरी बसाहटों के विस्तार के लिए भूमि अधिग्रहण जरूरी है। अक्सर भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया संघर्षो से भरी होती है। इस तरह के विवाद नए नहीं हैं, लेकिन वे जिस पैमाने पर और जितनी मात्रा में हो रहे हैं, वह जरूर नया है।

दूसरा तथ्य यह है कि पिछले कुछ वर्षो में किसी भी राष्ट्रीय राजनीतिक दल के किसी शीर्ष नेता ने इस मसले को नहीं उठाया है। यहां रालोद नेता अजित सिंह अपवाद हैं, जो भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन की जरूरत के बारे में लगातार बात करते आ रहे हैं। लेकिन इस बार पहल करने वाले मुलायम सिंह यादव नहीं थे, जिनके संरक्षक दिवंगत चरण सिंह उत्तरप्रदेश के महानतम किसान नेता थे। न ही यह पहल अजित सिंह ने ही की थी, जबकि पश्चिमी उत्तरप्रदेश उनके परिवार का गढ़ रह चुका है। यह पहल कल्याण सिंह ने भी नहीं की थी, जिन्होंने 1980 के दशक के मध्य में किसानों के हित में तब आवाज उठाई थी, जब उनकी पार्टी को शहरी व्यवसायियों की तरफ झुकाव रखने वाली पार्टी माना जाता था। यह पहल राहुल गांधी ने की थी।

लेकिन इसके कारणों को तलाशने ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ेगा। उत्तरप्रदेश में टाउनशिप डेवलपमेंट और सड़कों का निर्माण करने वाली कंपनियां देश की शीर्षस्थ कंपनियों में से हैं। उन्होंने कई राज्यों में निवेश किया है। इनमें उत्तरप्रदेश के पड़ोस में स्थित उत्तराखंड भी शामिल है, जहां कई विशाल बांध परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। कांग्रेस उत्तरप्रदेश में सत्ता से इतने लंबे समय से दूर है कि प्रदेश में इस किस्म के सीधे जुड़ावों से वह मुक्त ही है। यहां इस तथ्य पर भी गौर किया जाना चाहिए कि देश के शीर्षस्थ राजनीतिक परिवार के सदस्य राजनीति में अपनी सहज वृत्ति से संचालित होते रहे हैं।

जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस अध्यक्ष बनने से पहले उद्योग जगत के अग्रणियों को आड़े हाथों लिया था। जब इंदिरा गांधी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण की नीति अपनाई तो उनके समाजवादी रुझानों के चलते कई उद्योग घरानों ने उनका विरोध किया था। राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल के प्रारंभिक दस माह में रिलायंस बिजनेस हाउस को कोई तवज्जो नहीं दी थी। इस तथ्य को हैमिश मैकडॉनल्ड ने अपनी किताब में रेखांकित किया है। यहां तक कि यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान सोनिया गांधी ने भी नरेगा को लागू करने में व्यक्तिगत रुचि ली थी, जबकि बहुत कम पेशेवर अर्थशास्त्रियों और उनसे भी कम उद्योग घरानों ने उनकी इस नीति का समर्थन किया था।

कुछ टिप्पणीकारों ने राहुल गांधी की भट्टा पारसौल यात्रा की तुलना इंदिरा गांधी की बेलछी यात्रा से की है, जो संभवत: पूरी तरह उपयुक्त नहीं है। पहली बात यह कि तब कांग्रेस संघर्ष करने के लिए बेहतर स्थिति में थी और उसके उभरते हुए नेता संजय गांधी मुस्तैदी से डटे हुए थे। वहीं मायावती भी उन नेताओं में से नहीं हैं, जो संघर्ष की स्थिति से बचने की कोशिश करेंगी। कुछ समय बाद वे जवाबी हमला करेंगी और खुद को हुई क्षति की भरपाई करने का प्रयास करेंगी। लेकिन अहम सवाल अपनी जगह पर कायम है।

अमेठी सांसद ने खासतौर पर महिलाओं से पुलिसिया र्दुव्‍यवहार पर खासा जोर दिया था। अलबत्ता पुलिस और प्रशासन के अधिकारी भी हिंसा के शिकार हुए थे, लेकिन इससे उन्हें यह लाइसेंस नहीं मिल जाता कि वे बेगुनाह और निहत्थे लोगों पर जोर-आजमाइश करें। ज्यादा गंभीर बात यह है कि यहां स्कूल या अस्पताल निर्माण जैसी सार्वजनिक हित की कोई परियोजना संकट में नहीं थी। यह कहीं गंभीर और व्यापक मसला है। यह पहला अवसर नहीं है, जब सरकारी मशीनरी किसी ऐसी निजी कंपनी की खिदमत में लगी हुई थी, जिसकी सरकार से नजदीकियां हों। सहारा समूह और समाजवादी पार्टी के संबंध में इसी तरह की स्थिति पहले भी निर्मित हो चुकी है।

भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 उन लोगों को कोई अधिकार नहीं देता, जिनसे उनकी जमीन ले ली गई है। चाहे जमीन उनकी हो या वे उस पर काम कर रहे हों, वे तत्काल प्रभाव से परियोजना से संबंधित अधिकारियों और राज्य सरकार की दया पर आश्रित हो जाते हैं। नए कानून द्वारा उन्हें स्पष्ट न्यायोचित अधिकार प्रदान किए जाने चाहिए और यह सरकार का दायित्व होना चाहिए कि वह उनके अधिकारों की रक्षा करे। यह तभी संभव है जब सरकार जमीन खरीदने वालों की एजेंट न बन जाए। राहुल गांधी ने पहल तो अच्छी की है, लेकिन अगर वे अपनी इस प्रतिबद्धता पर बरकरार नहीं रहे तो ज्यादा कुछ नहीं हो पाएगा। यदि वे इसी तरह जमीनी मोर्चे पर आकर अगुआई करते रहे तो उत्तरप्रदेश में उनकी पार्टी के अवसर ही बेहतर होंगे।

लेखक इतिहासकार और राजनीतिक टिप्पणीकार हैं।