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रिटेल में एफडीआइ से होगा नुकसान- धर्मेंद्र कुमार

दिल्ली सरकार के फैसले का होगा दूरगामी असर

दिल्ली देश का पहला राज्य है,  जिसने भारत सरकार के मल्टी ब्रांड रिटेल में एफडीआइ की स्वीकृति को पलट दिया है. आम आदमी पार्टी का विदेशी रिटेल के खिलाफ यह फैसला उसी स्वराज की राजनीतिक लाइन और चुनावी घोषणा पत्र के अनुरूप है.

कई देशों जैसे कि बेल्जियम, डेनमार्क में यह प्रावधान है कि इलाके में मॉल खोलने के लिए मोहल्ला समितियों की स्वीकृति लेनी पड़ेगी. आप सरकार का यह फैसला दूरगामी प्रभावों वाला साबित हो सकता है. संभवत: अन्य राज्य सरकारें और शहरी निकाय इसे आगे ले जा सकती है.

खुदरा व्यवसाय दुनिया के सबसे बड़े उद्योगों में से एक है और इस पर मुट्ठी भर बड़ी कंपनियों का कब्जा है. ये कंपनियां मुख्य रूप से अमेरिका और पश्चिमी यूरोप की हैं. वॉलमार्ट, टेस्को, कारेफोर और मेट्रो जैसी विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने घरेलू बाजारों को पूरी तरह गिरफ्त में लेने के बाद अब भारतीय बाजार पर नजरें गड़ाये हुए हैं.

रिलांयस, टाटा और बिरला जैसे बहुत सारे भारतीय व्यावसायिक घरानों ने भी हाल में खुद को खुदरा व्यापार में झोंक दिया है.

खेती के बाद खुदरा क्षेत्र हमारे देश में दूसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है. करीब 4 करोड़ से ज्यादा लोगों की आजीविका इस व्यवसाय पर आधारित है, तो यदि आश्रितों की संख्या भी जोड़ दी जाये तो संभावित खुदरा क्रांति से प्रभावित होने वालों की संख्या कम से कम 20 करोड़ तक जरूर पहुंच जायेंगी.

कॉरपोरेट खुदरा व्यवसाय का विकास भारत में छोटे किसानों स्वसंगठित छोटे खुदरा व्यवसायों व फेरी वालों की कीमत पर ही होनेवाला है.

भारत में लगभग 1.2 करोड़ दुकानें हैं. इस आधार पर भारत को दुनिया में सबसे ज्यादा दुकानों वाला देश कहा जा सकता है. घनत्व के लिहाज से भी भारत दुनिया भर में सबसे आगे है. हमारे देश में प्रत्येक हजार लोगों पर 11 दुकानें चलती हैं. अंतरराष्ट्रीय औसत से तुलना की जाये, तो यह संख्या बहुत अधिक है.

12 करोड़ दुकानों मे से महज चार प्रतिशत दुकानें ही पांच सौ वर्ग फुट से ज्यादा बड़ी है. हमारे यहां देश में होनेवाली कुल खुदरा बिक्री में से लगभग 95 प्रतिशत असंगठित खुदरा क्षेत्र के हिस्से में आती है. औद्योगिक खुदरा कंपनियां संगठित खुदरा व्यापार के हिस्से को कुछ ही वर्षों के भीतर 5 प्रतिशत से बढ़ा कर 20-25 प्रतिशत तक पहुंचा देना चाहती है. इसके लिए ये तमाम देशी-विदेशी कंपनियां 25 अरब डॉलर से भी ज्यादा का निवेश कर रहीं है. इस निवेश में से 60-65 प्रतिशत हिस्सा खुदरा खाद्य एवं किराना क्षेत्रों में आपूर्ति श्रृंखला तैयार करने पर निवेश किया जायेगा.

विश्‍लेषकों का कहना है कि जो काम दूसरे वैश्विक बाजारों में 25-30 साल में हुआ, भारत उसे 10 साल में करना चाहता है. यह देखते हुए कि खुदरा और कृषि, जो फिलहाल भारत में रोजगार के सबसे बड़े स्नेत हैं, इन पर औद्योगिक नियंत्रण के दूरगामी और गंभीर असर हो सकते है.

भारतीय व्यापार बेहद संगठित है और सदियों से कम लागत और बेहतर कार्यकुशलता के आधार पर चलता रहा है. भारतीय खुदरा व्यापार असंगठित नहीं है बल्कि आत्मसंगठन का एक उच्च स्तर दर्शाता है. यह पूरी तरह विकेंद्रीकृत है. कोई भी कंपनी या व्यक्ति किसी भी स्तर पर कहीं भी एकाधिकार नहीं रखता. कम लागत पूंजी भी इसकी विशेषता है.

भारत के खाद्य बाजार में विशाल और औद्योगिक खुदरा कंपनियों के आने से यहां के 60 करोड़ किसानों और खुदरा व्यापार में लगे चार करोड़ लोगों की जिंदगी पर सीधा असर पड़ेगा. अगर हम दूसरे देशों का उदाहरण लें तो आम लोगों, समाज और पर्यावरण पर इनके विनाशकारी परिणाम साफ दिखते हैं.

कॉरपोरेट घरानों ने भारतीय खुदरा बाजार को कब्जा करने के लिए बड़ी चालाकी से इसके अंतरविरोधों का इस्तेमाल किया है और तमाम तरह के मिथक स्थापित करने की कोशिश में हैं. सबसे पहले तो अंगरेजी मीडिया के साथ यह मिथक स्थापित किया जा रहा है कि भारत का तथाकथित विशाल मध्यवर्ग उपभोक्ता मॉल्स चाहता है.

सच यह है कि भारतीय उपभोक्ता की सोच खरीदो और चुकाओ की पश्चिमी सोच की जगह बचाओ और खरीदो वाली रही है. गौरतलब है कि भारतीय उद्योग परिसंघ (कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज) ने अपने एक सम्मेलन में माना कि औद्योगिक खुदरा कंपनियों को मांग पैदा करने और उपभोक्ताओं को खर्च करने के लिए प्रेरित करने पर करोड़ों रुपये खर्च करने पड़ेंगे.

दूसरा मिथक कि भारत इतना विशाल देश है कि यहां कॉरपोरेट स्टोर्स, छोटे दुकानदार और फेरी वाले, सबके लिए जगह है. यथार्थ में ऐसा कहीं नहीं हुआ है. विकसित देशों में वॉलमार्ट और टेस्को जैसी कंपनियों का मुकाबला न कर पाने के कारण ऐसी हजारों दुकानें बंद हो चुकी हैं जिन्हें परिवार के लोग ही मिल कर चलाते थे. खुदरा बाजार असीमित नहीं है इसलिए औद्योगिक खुदरा क्षेत्र के विकास का नतीजा यह होगा कि स्थानीय दुकानें बंद होती जायेंगी.

अगला मिथक यह है कि बड़ी कंपनियां बिचौलियों को खत्म कर देंगी, जिससे उपभोक्ताओं को माल सस्ता मिलेगा. यथार्थ में बड़ी कंपनियां उत्पादक, थोक विक्रेता, डिस्ट्रीब्यूटर और खुदरा विक्रेता सारी भूमिकाओं को निभाते हुए खेत से रसोई तक पूरी आपूर्ति श्रृंखला पर कब्जा कर लेना चाहती हैं.

इस प्रक्रिया में वह खुद विशाल बिचौलिया बन जायेगी और अपने लालच के लिए बाजार को तहस-नहस कर सकने की क्षमता विकसित कर लेगी. भंडारण, गोदाम, खरीदारी आदि करने वाली कंपनियां नये बिचौलिये बन कर उभरेंगे. उपभोक्ताओं को रीयल एस्टेट, एयरकंडीशनिंग, पढ़े-लिखे सेल्समैन और सेल्सवूमेन, बिजली की बरबादी और ऐसे ही दूसरे खचरें का बोझ उठाना पड़ेगा.

इससे आखिरकार उपभोक्ताओं को ही नुकसान होगा क्योंकि खुदरा कंपनियां छोटे प्रतिस्पर्धियों को बाजार से खदेड़ देंगी और उनका एकछत्र राज कायम हो जायेगा. ऐसे में उपभोक्ताओं के पास बढ़ी हुई कीमत चुकाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होगा.

एक मिथक जो बड़ी मजबूती से गढ़ा जा रहा है, जिसे रह-रह कर सरकारी महकमे से भी मजबूती मिलती है कि बड़ी कंपनियां किसानों को बेहतर मूल्य देंगी. पश्चिमी देशों में खाद्य आपूर्ति श्रृंखला पर औद्योगिक खुदरा कंपनियों का नियंत्रण हो चुका है. अब किसानों के पास इन्हीं कंपनियों की शरण में जाने के अलावा और कोई खरीदार नहीं बचा है.

इससे इजारेदारी की स्थितियां पैदा हुई हैं जिसमें उनके सामने सिर्फ एक या मुट्ठी भर खरीदार रह गये हैं. किसानों के पास इन कंपनियों द्वारा तय की गयी कीमत पर अपनी उपज बेचने के अलावा अब कोई चारा नहीं बचा है. अपना मुनाफा ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने के लिए ये कंपनियां किसानों के साथ अनुबंध करेंगी और उन्हें एक ही फसल पैदा करने पर मजबूर करेंगी.

किसानों को इस बात के लिए बाध्य किया जायेगा कि वे आनुवांशिक रूप से संशोधित बीजों का इस्तेमाल करें जिनमें कीटनाशकों और रसायनों का बहुत ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है जिससे जमीन की उपजाऊ क्षमता में कमी आती है. भारत में यह सिलसिला पहले ही शुरू हो चुका है. कृषि क्षेत्र में खुदरा व्यापारियों के घुसने से ये प्रभाव और स्पष्ट दिखायी देने लगेंगे.

हालांकि कृषि क्षेत्र रोजगार और आजीविका का सबसे बड़ा स्नेत है, फिर भी अभी तक ऐसा कोई अध्ययन नहीं किया गया है जिससे पता चल सके कि इन बदलावों से हमारी खेती पर लंबे दौर में क्या असर पड़ेंगे.

औद्योगिक खुदरा कंपनियों के साथ चीन, थाईलैंड और आसियान देशों में बने सस्ते माल भारत में आने लगेंगे. इससे गैर-बराबरी पर आधारित प्रतिस्पर्धा शुरू होगी और भारत में लोग बड़ी संख्या में बेरोजगार होते जायेंगे. आज स्थिति यह है कि अगर वॉलमार्ट को एक देश मान लिया जाये तो चीन उसका छठा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार होगा.

जब ये कंपनियां भारत में दाखिल हो रही हैं तो उन पर इस बात की कोई पाबंदी नहीं लगायी गयी है कि वे भारत में बनी चीजें ही बेचेंगी. दूसरी तरफ जैसे-जैसे भारत में औद्योगिक खुदरा व्यापार बढ़ेगा, स्थानीय निमार्ताओं पर उनकी ताकत और नियंत्रण भी बढ़ेगा क्योंकि वॉलमार्ट और रिलायंस जैसी विशाल कंपनियां बहुत बड़े पैमाने पर माल खरीदती हैं, इसलिए वे कुछ चुनिंदा निमार्ताओं से ही खरीदेंगी और बदले में उन्हें लागत या कीमत कम करने के लिए मजबूर करेंगी. इसका मतलब है कि उन कंपनियों के मजदूरों को ज्यादा लंबी पारियों में काम करना पड़ेगा, उन्हें कम वेतन मिलेगा और जो कंपनियां प्रतिस्पर्धा में नहीं टिक पायेंगी वे बंद हो जायेंगी.

 

कुल मिला कर कहा जा सकता है कि कृषि एवं खुदरा क्ष़ेत्र में विशाल औद्योगिक कंपनियों के अबाधित प्रवेश चिंताजनक है. इनके दुष्परिणाम महज किसानों या फेरी वालों तक ही सीमित नहीं रहने वाले बल्कि मजदूरों, छोटे उघोगों, को-ऑपरेटिव, उपभोक्ताओं, पर्यावरण, स्वास्थ्य पर भी पड़ेगे. इसीलिए ये महज चार करोड़ छोटे-बड़े व्यापारियों का सवाल नहीं है वरन पूरे समाज और विकास की दिशा का सवाल है.