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रियो+20 के लिए राष्ट्रीय व वैश्विक प्राथमिकताएं

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संपूर्ण विश्व के राष्ट्राध्यक्ष, सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधि और विकास के मुद्दों से जुड़े विभिन्न संगठनों के प्रतिनिधी 20 से 22 जून 2012 को ब्राजील की राजधानी रियो दी जेनेरियो में एकत्रित होने जा रहे हैं। इस महासम्मेलन को रियो+20 का नाम दिया है क्योंकि 20 वर्ष पूर्व (1992) भी रियो में 172 सरकारों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पर्यावरण और विकास के मुद्दों पर वैश्विक सम्मेलन का आयोजन किया गया था और पहली बार वैश्विक राजनैतिक पटल पर सतत् विकास (Sustainable Development) पर गंभीरता से चिंतन किया गया और माना गया कि सामाजिक, आर्थिक व पर्यावरणीय विकास को पृथक न कर समग्रता में देखते हुए विकास के मुद्दों पर कार्य करना चाहिए। इस सम्मेलन का महत्वपूर्ण परिणाम था एजेंडा 21 जो कि 21वीं शताब्दी के विकास का एक्शन प्लान था और जिसे राष्ट्रों से अपने विकास के एजेंडा में शामिल करने की अपील की गई थी। इस सम्मेलन (1992) के बीस वर्ष पश्चात पिछले बीस वर्षों का आंकलन, चुनौतियों व भविष्य की रणनीति तय करने के लिए एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा यह महासम्मेलन आयोजित किया जा रहा है।

1992 के रियो सम्मेलन (अर्थ समिट) के बाद यदि विश्व परिदृश्य पर नजर डालें तो बहुत कुछ बदलाव हुए हैं और तेजी से हुए हैं- उदारीकरण,, भूमंडलीकरण और निजीकरण ने पूरे विश्व को एक ग्लोबल विलेज के रूप में परिवर्तित कर दिया है विश्व की सरकारों द्वारा भौतिक विकास और आर्थिक विकास को विकास का आईना माना गया है। निजी कम्पनियों के उतार-चढ़ाव से आर्थिक व्यवस्था महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित होने लगी और निजी क्षेत्र का प्रभाव न केवल अर्थव्यवस्था बल्कि राष्ट्रों के विकास के एजेंडा पर भी दिखाई देने लगा। आर्थिक विकास या ग्रोथ रेट को हासिल करने की होड़ में विश्व स्तर पर विकास की असतत प्रक्रिया (Unsustainable Development) अपनाई जाने लगी जिसका सबसे बड़ा कुप्रभाव पर्यावरण के असंतुलित दोहन से हुआ है। यह असंतुलित दोहन विश्व के समक्ष आर्थिक, खाद्य, ईंधन व जलवायु संकट का मुख्य कारण बना और साथ ही गरीबी और भुखमरी का दायरा बढ़ा, स्वदेशी व स्थानीय समुदायों का विस्थापन बढ़ा, मानव अधिकारों व मौलिक स्वतंत्रताओं के उल्लंघन में वृद्धि हुई, जल, जंगल, जमीन और स्वास्थ्य, पोषण जैसी मूलभूत सुविधाओं और अधिकारों से लोग वंचित हुए। ऐसे हालात में ब्राजील में होने जा रहे रियो सम्मेलन को कुछ देश एक अवसर के रूप में देख रहे हैं जिसमें समानता व सतत् विकास पर प्रभावशाली रणनीति तय होगी लेकिन इसके प्रति राजनैतिक प्रतिबद्धता क्रियान्वयन के स्तर पर कितना बदलाव आएगा यह अभी भी साफ नहीं है।

रियो+20 के केंद्र बिंदु और विषय वस्तु

रियो में बैठक का विषय है “सतत् विकास और गरीबी उन्मूलन के संदर्भ में हरित अर्थव्यवस्था” (GESPE- Green Economy in the context of Sustainable Development and Poverty Eradication) और “सतत् विकास के लिए संस्थागत रूपरेखा” (IFSD – Institutional Framework on Sustainable Development)। हरित विकास लक्षित है हरित अर्थव्यवस्था और हरित रोजगार पर, इसके लिए कई उपाय प्रस्तावित है। सतत् विकास लक्ष्य (SDGs-Sustainable Development Goals) इसी का एक हिस्सा है जबकि IFSD का लक्ष्य है कि विश्व पर्यावरण से जुड़ी संस्थाओं को विभिन्न प्रस्तावों के माध्यम से सुधारा जाए जिसमें शामिल हैं– ECOSOC (Economic and Social Council) को मजबूत बनाना, सतत् विकास आयोग को सतत् विकास परिषद में परिवर्तित करना और UNEP (United Nations Environment Programe) को सार्वभौमिक सदस्यता के माध्यम से अधिक प्रभावी बनाना। 15 विषयगत मुद्दे जिन्होंने सम्मेलन का ध्यान आकर्षित किया वह इस प्रकार हैं – खाद्य सुरक्षा, ईंधन, जल, शहर, हरित रोजगार, सामाजिक समावेश, महासागर और समुद्र, प्राकृतिक आपदाएं, जलवायु परिवर्तन, वन और जैव विविधता, बंजर भूमि, पहाड़, रसायन और अवशिष्ट, सतत् उपभोक्ता और उत्पादन, शिक्षा और लिंग समान्यता।

जीरो ड्राफ्ट

रियो+20 और UNCSD (United Nations Conference on Sustainable Development) सम्मेलन के आउटकम/Outcome दस्तावेज को जीरो ड्राफ्ट कहा जाता है जिसका शीर्षक है- “भविष्य जो हम चाहते हैं”। नवंबर 2011 में सदस्य राज्यों, राष्ट्र संघ संस्थाओं, अंतरराष्ट्रीय एनजीओ और पर्यवेक्षक संगठनों से जानकारी संकलित करके इस मसौदे को तैयार किया गया था। UNCSD ब्यूरो द्वारा इसे 11 जनवरी 2012 को सार्वजनिक किया गया। अंतिम मसौदा जून में होने वाली UNCSD की बैठक में अपनाया जाएगा। रियो+20 का उद्देश्य है कि सतत् विकास के प्रति राजनीतिक प्रतिबद्धताओं का नवीकरण किया जाए, पिछले प्रतिबद्धताओं के कार्यान्वयन की विफलता को सुधारा जाए और सतत् विकास के लिए उभरती चुनौतियों पर ध्यान दिया जाए। जीरो ड्राफ्ट को पांच वर्गों में बांटा गया है-प्रस्तावनाएं, राजनीतिक प्रतिबद्धता का नवीकरण, सतत् विकास के संदर्भ में हरित अर्थव्यवस्था और गरीबी उन्मूलन, सतत् विकास के लिए संस्थागत ढांचा और पालन और कार्यवाही के लिए रूपरेखा।

गरीब और विकासशील देशों के लिए क्या है जीरो ड्राफ्ट में?

विश्व स्तर पर जीरो ड्राफ्ट की आलोचना कम महत्वाकांक्षी और कार्रवाई के लिए ठोस ढांचा नहीं होने की वजह से हुई है। ऐसा महसूस किया जा रहा है कि जिन विषयों को चुना गया है वह संकट के सही कारणों को प्रतिबिंबित नहीं करते और इसलिए इन संकटों को दूर करने में अक्षम हैं। श्रृंखलाबद्ध संकट इस तथ्य के सूचक हैं कि अंतरराष्ट्रीय वित्त संरचना, व्यापार और सहायता से कुछ औद्योगिक देशों और संस्थाओं पर संसाधन का वर्चस्व बन गया है जिसकी वजह से वे निजी उद्योगों के साथ सांठ-गांठ करके वैश्विक संसाधनों को लूट रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय वित्त संरचना और सिस्टम से श्रम और पूंजी के बीच दूरी बढ़ी है। एक प्रतिशत सबसे अमीर जनसंख्या का दुनिया के 40 प्रतिशत धन पर कब्जा है, जबकि आधी गरीब जनसंख्या के पास दुनिया के धन का एक प्रतिशत से भी कम हिस्सा है।

जीरो ड्राप्ट में हरित अर्थव्यवस्था और गरीबी उन्मूलन पर स्पष्ट दृष्टि व सोच दिखाई नहीं पड़ी। स्थानीय अर्थव्यवस्था की सुरक्षा, पर्यावरणीय व प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा, वित्तीय व तकनीकी स्रोतों की उपलब्धता जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर गंभीर चिंतन दिखाई नहीं पड़ता। जीरो ड्राफ्ट की शब्दावली भी ऐसी प्रतीत होती है जो कि हरित उद्योग या बाजार को प्रोत्साहित करती है न कि सही रूप से सतत् विकास के प्रति प्रतिबद्धता रखती है।

जीरो ड्राफ्ट को समग्रता में देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति व विकास के बीच सामंजस्य को केंद्र में रखते हुए यह दस्तावेज तैयार नहीं किया गया है बल्कि आर्थिक विकास की दृष्टि ही प्राथमिकता लिए हुए दिखाई पड़ती है।

विकासशील देशों का पक्ष

रियो द जेनेरो में पृथ्वी सम्मेलनविकासशील देशों का मानना है कि UNCSD में समानता, CBDR (Common But Divided Responsibility), न्याय का सिद्धांत, भागीदारी का अधिकार ऐसे 27 सिद्धांतों को स्वीकार किया गया था लेकिन जीरो ड्राफ्ट में केवल CBDR और समानता को ही महत्व दिया गया है इसके अतिरिक्त विकासशील देशों का मत है कि विकसित देशों द्वारा पूर्व में किए गए वादों व प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए दबाव डाला जाना चाहिए जबकि विकसित देश इसके प्रति उदासीन दिखाई पड़ते हैं।

विकासशील देशों का समूह जी 77 गरीबी उन्मूलन व सामाजिक विकास को समाविष्ट करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संस्थागत ढांचों में मूलभूत बदलाव चाहता है ताकि विकासशील देशों का मजबूत प्रतिनिधित्व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो सके जबकि विकसित राष्ट्र व्यापक स्तर पर नए सिरे से बदलाव के पक्ष में नहीं हैं। जी 77 का यह भी मानना है कि हरित अर्थव्यवस्था में राष्ट्रों की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, भौगोलिक परिस्थितियों के अनूरूप लचीलापन होना चाहिए। IFSD को विकासशील देशों का समूह इस रुप में देखता है कि यह एक ऐसा माध्यम है जो कि आर्थिक, सामाजिक व पर्यावरणीय विकास के संतुलन को बनाते हुए सतत् विकास को सुनिश्चित बनाने में सहायक हो सकता है।

सतत् विकास के लक्ष्य

सतत् विकास के सही क्रियान्वयन हेतु सतत् विकास लक्ष्यों की परिकल्पना की गई है जिसमें सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों का भी समावेश होगा। अभी तक इन लक्ष्यों के प्रतिक्रियात्मक व क्रियान्वयन के पहलू पर स्पष्ट दिखाई नहीं पड़ते।

भारत एवं विकास की प्राथमिकताएं

आजादी के बाद से करीब 70 के दशक तक भारत में सामाजिक विकास को केंद्र में रखते हुए विकास की योजनाएं व नीतियां क्रियान्वयन हुई। 80 के दशक में हरित क्रांति के बाद अधिक उत्पादन को महत्व दिया गया। 90 के दशक में तकनीक व प्रौद्योगिकी को महत्व देते हुए और उसके पश्चात उदारीकरण व निजीकरण के लिए दरवाजे खोलने के बाद भारत में आर्थिक विकास-विकास की परिभाषा के रूप में स्थापित हो गया।

यद्यपि पिछले कुछ वर्षों में भारत में नीतिगत स्तर पर कई कानून व अधिनियम बने हैं जैसे- सूचना का अधिकार, रोजगार का अधिकार, वन अधिकार व शिक्षा के अधिकार आदि। किंतु क्रियान्वयन व गुणवत्ता का सवाल अभी भी बना हुआ है।

जलवायु परिवर्तन के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भी भारत की भूमिका अग्रणी या उत्साहजनक नहीं रही है। विकासशील व विकसीत देशों के बीच जवाबदेही को लेकर उभरे तनाव में विकासशील राष्ट्रों का पक्ष अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय दोनों मंचों पर प्रभावशील ढंग से भारत द्वारा नहीं रखा गया। राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर जलवायु परिवर्तन पर एक्शन प्लान बना दिया गया है लेकिन उसमें जनभागीदारी सुनिश्चित नहीं की गई।

रियो+20 व भारत

रियो सम्मेलन विश्व स्तर पर होने वाला सबसे बड़ा सम्मेलन है जो कि विकास के भविष्य का एजेंडा व रणनीति को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। किंतु भारत सरकार द्वारा अभी तक अपना पक्ष या दृष्टि स्पष्टता से नहीं रखी गई है और न ही लोकसभा व राज्यसभा में इस विषय पर चर्चा व बहस कराई गई है। यह निराशाजनक है खासकर तब जब हम जानते हैं कि 2015 तक सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों को पाना नामुमकिन है, विश्व की आधी से अधिक भुखमरी हमारे देश में व्याप्त है, देश के 42 प्रतिशत लोग कुपोषित हैं, पीने के पानी और बिजली की उपलब्धता का संकट दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है, कृषि भूमि लगातार सिकुड़ती जा रही है और खाद्य सुरक्षा व संप्रभुता का खतरा व्यापक होता जा रहा है।

सारांश

उपरोक्त परिदृश्य के मद्देनजर यह आवश्यक है कि इस महत्वपूर्ण सम्मेलन में भारत की प्राथमिकताओं, भविष्य की चुनौतियों पर गंभीर विचार हो और सिविल सोसाईटी के जरिए सरकार तक यह संदेश पहुंचे कि जिन लोगों के प्रति उसकी जवाबदेही है उनके समझ सरकार को अपना पक्ष व दृष्टि रखना जरूरी है और भारत जैसे देश में यह अधिक आवश्यक इसलिए है क्योंकि हमारी शासन प्रणाली का स्वरूप लोकतंत्रात्मक है। यदि “तंत्र” की जवाबदेही “लोक” के प्रति सुनिश्चित नहीं होगी तो लोकतंत्र के लिए निराशाजनक बात होगी।