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रुके सियासी चंदे का गोरखधंधा - भवदीप कांग

रु पूर्णिमा के मौके पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक गुरुदक्षिणा स्वरूप कुछ राशि अपने इस संगठन को भेंट करते हैं। यह राशि (जो कुछ सिक्के भी हो सकते हैं या हजारों रुपए के नोट भी) एक सादे लिफाफे में दी जाती है, जो संघ कार्यालय के संचालन के लिए होती है। इसी से प्रचारकों का खर्चा भी निकलता है।

 

अब मोदीजी के 'कैशलेस भारतमें क्या ऐसी दान राशि सिर्फ चेक के जरिए ही दी जानी चाहिए? ऐसा होने पर तो यह गुप्त दान नहीं रहेगा, जिससे इसकी मूल भावना ही खत्म हो जाएगी। इस तरह के सवाल नोटबंदी के बाद से खूब उछल रहे हैं। संभवत: सबसे अहम सवाल तो यही है कि चुनावों में काले धन के इस्तेमाल को कैसे रोका जाए? निर्वाचन आयोग द्वारा 2000 रुपए से ज्यादा के नकदी चंदे पर रोक लगाने संबंधी सुझाव भी इसी मकसद से दिया गया है।

 

राजनीतिक पार्टियां कारोबारियों से चुनाव के लिए नकद चंदे के रूप में सैकड़ों करोड़ रुपए इकठ्ठा करती हैं, जिसका स्रोत अज्ञात होता है। वे ऐसा इसलिए कर पाती हैं, क्योंकि अभी 20000 रुपए तक नकद में प्राप्त चंदे का स्रोत बताना जरूरी नहीं है। आयकर कानून की धारा 13(ए) के तहत राजनीतिक दलों के लिए 20000 रुपए से कम के चंदे का हिसाब रखना अनिवार्य नहीं। और यही काला धन पैदा होने का एक बड़ा कारण है। अलबत्ता मेरी राय में अज्ञात स्रोत से नकद चंदे की सीमा 2000 रुपए तक सीमित करने से भी यह समस्या हल नहीं होगी। ऐसा इसलिए क्योंकि राजनीतिक दलों द्वारा अपने फंड्स की एक बड़ी राशि कूपनों द्वारा उगाही जाती है। ये कूपन इन पार्टियों द्वारा स्वयं ही प्रिंट किए व बेचे जाते हैं। अभी चुनाव आयोग और आयकर विभाग फंड के स्रोत के बारे में इसलिए पूछताछ नहीं कर सकते, क्योंकि इन कूपनों की दरें 20000 रुपए से कम रखी जाती हैं। इसी तरह सार्वजनिक सभाओं या रैलियांे में नेताओं को पहनाए जाने वाले नोटों के हार की कीमत यदि 20000 रुपए से कम हो तो इसका भी स्रोत बताना जरूरी नहीं। मसलन, जब सुप्रीम कोर्ट ने बसपा सुप्रीमो मायावती से उनकी विशाल संपत्ति के स्रोत के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि उनके दसियों करोड़ अनुयायी हैं और उनकी इस संपत्ति में ऐसे हरेक कार्यकर्ता का कुछ रुपयों का योगदान है। लिहाजा, नकदी चंदे की सीमा चाहे 20000 रुपए हो या 2000, इससे खास फर्क नहीं पड़ेगा। बस यही होगा कि अभी जो पार्टियां सैकड़ों की संख्या में कूपन छापती हैं, वे अब हजारों में कूपन छापने लगेंगी।

 

दूसरी समस्या यह है कि राजनीतिक पार्टियां तो मौजूदा नियमों को ही नहीं मानतीं, तो नए नियमों की बात ही क्या करें! वर्ष 1996 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए एक आदेश के मुताबिक राजनीतिक दलों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे इनकम टैक्स रिटर्न फाइल करें, चूंकि राजनीतिक पार्टियों को चंदे पर आयकर में 100 फीसदी छूट है। नियमों के मुताबिक तो राजनीतिक दलों कोनिर्वाचन आयोग को भी अपने हिसाब-किताब का ब्यौरा देना चाहिए। लेकिन एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के एक अध्ययन से पता चला कि ज्यादातर पार्टियों ने अपना समुचित लेखा-जोखा पेश नहीं किया और कुछ के पास तो चंदे के रिकॉर्ड्स ही नहीं थे। मिसाल के तौर पर जो लोग चंदे के रूप में बड़ी रकम दान में देते हैं, पार्टियों के पास उनका पैन नंबर व पहचान संबंधी अन्य जानकारियां होनी चाहिए, लेकिन नहीं थीं। इस संदर्भ में राजनीतिक पार्टियों का तर्क यह होता है कि वे अपने दानदाताओं की पहचान गुप्त रखना चाहती हैं, ताकि विरोधी पार्टियां उन पर हमला न करें। कई मामलों में पार्टियों ने कहा कि उन्होंने अपने प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने के लिए पैसा दिया, जबकि प्रत्याशियांे का कहना था कि उन्हें पार्टी से कोई पैसा नहीं मिला।

यहां तक कि राजनीतिक पार्टियों ने केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के उन निर्देशों की खुलेआम अवहेलना की है, जिनके तहत उनसे कहा गया है कि वे अपने फंड्स के स्रोत बताएं और अपने खातों को सार्वजनिक करें। इस आदेश को पारित हुए चार साल हो चुके हैं और सीआईसी को कहना पड़ा कि वह अपने इस आदेश को लागू करवा पाने में असहाय है। अब यह मामला शीर्ष अदालत के समक्ष है। देश में यदि और कोई संगठन होता तो अब तक वह न्याय के कठघरे में खड़ा होता, लेकिन राजनीतिक पार्टियां तो मानो कोई फर्क नहीं पड़ता।

 

हमारे राजनीतिक दलों को नियम-पालन के लिए बाध्य करने व चुनावों में काले धन का इस्तेमाल रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट, निर्वाचन आयोग, केंद्रीय सूचना आयोग और संसद को मिलकर काम करना होगा। आयकर अधिनियम के साथ-साथ जनप्रतिनिधित्व कानून-1951 में ऐसे संशोधन किए जाएं, जिससे राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जा सके, जैसा कि अमेरिका में है।

 

राजनीतिक दलों को बड़े-बड़े कारोबारी चंदे के रूप में जो भारीभरकम रकम देते हैं, वे इसे गुप्त रखना चाहते हैं क्योंकि चुनावों के बाद वे सत्तारूढ़ पार्टिंयों से इसके बदले में अपने लिए भी तो कुछ चाहते हैं। लेकिन यदि जनता यह जान जाए कि कारोबारियों द्वारा दिए गए चंदे के बदले में उनके अनुकूल नीतियां बनाई जा रही हैं, तो वह इसे हितों के टकराव के रूप में भी देख सकती है। इसलिए इसमें गोपनीयता बरती जाती है। मिसाल के तौर पर दिसंबर 2008 में नई दिल्ली में एक प्रमुख राष्ट्रीय दल की तिजोरी से एक बड़ी रकम (ढाई करोड़ रुपए) गायब हो गई। किंतु इसकी पुलिस में कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई गई और मामले को दबा दिया गया। दरअसल, यह रकम एक प्रतिष्ठित उद्योगपति (जो विरोधी दल से जुड़ा था) द्वारा दिया गया राजनीतिक 'चंदा था, जो कि इस पार्टी द्वारा शासित एक राज्य में अपना प्रोजेक्ट क्लियर करवाना चाहता था।

 

बहरहाल, काला धन रोकने के लिए एक और सुझाव यह है कि चुनाव सुधारों की दिशा में आगे बढ़ा जाए। इसके लिए एक उपाय यह हो सकता है कि सरकारी खर्चे पर चुनाव लड़े जाएं। ऐसा करने से सियासी दलों के लिए चुनाव लड़ने हेतु फंड जुटाने की जरूरत खत्म हो जाएगी। निर्वाचन आयोग विभिन्न् प्रत्याशियों व दलों को चुनाव लड़ने हेतु एक निश्चित धनराशि दे सकता है और फिर वो यह सुनिश्चित करे कि वे इस आवंटित राशि से ज्यादा रकम चुनावों में खर्च न करें।

 

यदि काले धन के खिलाफ जारी लड़ाई में आम आदमी दिक्कतें झेल रहा है तो नेताओं को भी उनके इस दर्द में सहभागी बनना चाहिए और इस नेक काम में अपनी ओर से भी प्रयास करना चाहिए। अनेक भारतीयों के लिए एटीएम और बैंकों की कतारों में होने वाली दिक्कतों को झेलना कहीं अधिक आसान हो जाएगा, यदि यह साफ हो जाए कि वे एक राष्ट्रीय काम में मददगार बन रहे हैं। लेकिन यदि राजनीतिक प्रक्रियाओं के जरिए काले धन का उपजना यूं ही जारी रहा, तो उनकी सारी कुर्बानी व्यर्थ हो जाएगी।

(लेखिका पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)