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रुपये को खा गया विदेशी निवेश- डा. भरत झुनझुनवाला

देश की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ करने के लिए सरकार को खपत कम और निवेश अधिक करने होंगे. विदेशी निवेश से प्राप्त रकम का सदुपयोग हाइवे तथा इंटरनेट सुविधाओं के लिए किया जायेगा, तभी रुपया स्थिर होगा.

रुपये में आयी गिरावट का मूल कारण हमारे नेताओं का विदेशी निवेश के प्रति मोह है. विदेशी निवेश को आकर्षित करके देश को रकम मिलती रही. देश की सरकार इस रकम का उपयोग मनरेगा या भोजन का अधिकार जैसी योजनाओं के लिए या फिर सरकारी कर्मियों को बढ़े वेतन देने के लिए करती रही, साथ ही भ्रष्टाचार के माध्यम से इसका रिसाव भी करती रही.

2002 से 2011 तक यह व्यवस्था चलती रही. मान लीजिए विदेशी निवेशकों ने 100 डॉलर भारत लाकर जमा किया. सरकार ने इससे गेहूं का आयात किया और भोजन के अधिकार की पूर्ति के लिए इसे वितरित किया. गेहूं खत्म हो गया, लेकिन ऋण खड़ा रहा. विदेशी निवेश हमारे ऊपर एक प्रकार का ऋण होता है. अपनी रकम विदेशी निवेशक कभी भी वापस ले जा सकते हैं.

जिस प्रकार उद्यमी बैंक से ऋण लेता है, उसी तरह देश भी विदेशी निवेशकों से ऋण लेता है. दस वर्षो तक विदेशी निवेश आता रहा और देश पर ऋण चढ़ता रहा. लेकिन कब तक? जैसे व्यक्ति शराब पीता ही जाये, तो एक क्षण ऐसा आता है जब वह बेहोश हो जाता है. इसी प्रकार विदेशी निवेश के बढ़ते ऋण से रुपया बेहोश हो गया है.

ऐसा लगता है कि सरकार को इस परिस्थिति का पूर्वाभास हो गया था. इसीलिए पिछले एक वर्ष से विदेशी निवेश को आकर्षित करने के विशेष प्रयास किये गये हैं. विदेशी निवेश दो प्रकार का होता है- प्रत्यक्ष एवं संस्थागत. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) में निवेशक भारत में कारखाना लगाता है, जैसे फोर्ड ने चेन्नई में कार बनाने का कारखाना लगाया. अथवा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में भारतीय कंपनी को खरीदा जाता है.

जैसे जापानी निवेशक ने रेनबैक्सी को खरीद लिया. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के आने में समय लगता है. इसके वापस जाने में भी समय लगता है, चूंकि निवेशक को अपनी फैक्ट्री आदि बेचनी पड़ती है. दूसरे प्रकार का विदेशी निवेश संस्थागत कहा जाता है. इसमें किसी विदेशी संस्था द्वारा भारत में शेयर बाजार में निवेश किया जाता है. यह रकम शीघ्र आवागमन कर सकती है, चूंकि शेयर को खरीदना एवं बेचना एक क्लिक से हो जाता है.

सरकार चाहती है कि दोनों में से कोई भी विदेशी निवेश आये. शेयर बाजार में आनेवाले संस्थागत निवेश का सरकार पर वश नहीं चलता है, लेकिन प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए नीति बनायी जा सकती है. सरकार ने सोचा कि देश को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोल देंगे, तो निवेशक को भारत पर भरोसा बनेगा.

वे सोचेंगे कि विदेशी कंपनियों के आगमन से भारत की अर्थव्यवस्था कुशल हो जायेगी. अर्थव्यवस्था की इस कुशलता के चलते संस्थागत निवेश भी आता रहेगा. इस योजना को लागू करने के लिए गये बीते समय में सरकार ने रक्षा, टेलीकॉम तथा बीमा के क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा में वृद्घि की है.

पहले रक्षा क्षेत्र में 25 प्रतिशत से अधिक मिल्कियत विदेशी कंपनी द्वारा हासिल नहीं की जा सकती थी. अब इससे ज्यादा की जा सकती है. टेलीकॉम क्षेत्र में पहले 74 प्रतिशत विदेशी निवेश किया जा सकता था. अब 100 प्रतिशत किया जा सकेगा. बीमा क्षेत्र में सीमा 25 प्रतिशत से बढ़ा कर 49 प्रतिशत कर दी गयी है. सोच थी कि इन सीमाओं को बढ़ाने से विदेशी निवेशकों की रुचि बढ़ेगी, ज्यादा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आयेगा, पीछे-पीछे संस्थागत विदेशी निवेश भी आयेगा और भारत की अर्थव्यवस्था चल निकलेगी.

इन सुधारों के कारण अधिक मात्र में विदेशी निवेश आयेगा और यह अर्थव्यवस्था के वर्तमान संकट से हमें तारने का काम करेगा, इसमें मुङो संशय था. पहला कारण यह कि नयी फैक्ट्रियों को लगाने के लिए विदेशी निवेश आने में समय लगता है. मान लीजिए कोई टेलीकॉम कंपनी भारत में धंधा करना चाहती है.

इसके लिए सबसे पहले सर्वे करायी जायेगी, उसकी रिपोर्ट बनेगी, बैंकों से अनुबंध होगा, सरकार से लाइसेंस लिया जायेगा, इसके बाद 2-3 साल में रकम धीरे-धीरे भारत आयेगी. अत: इस सुधार से वर्तमान संकट में राहत मिलने की संभावना कम ही है. दूसरा कारण कि लाभांश प्रेषण का भार बढ़ रहा था.

भारत में पूर्व में किये गये विदेशी निवेश पर विदेशी कंपनियां लाभ कमाती हैं. समय क्रम में वे इस लाभ को अधिक मात्र में अपने मुख्यालय भेजना शुरू कर देती हैं. 2010 में 4 अरब डॉलर, 2011 में 8 अरब डॉलर और 2012 में 12 अरब डॉलर लाभांश वापसी के रूप में बाहर भेजे गये. इससे हमारी अर्थव्यवस्था ज्यादा दबाव में आती है. आयातों के साथ-साथ हमें लाभांश प्रेषण के लिए भी डॉलर कमाने पड़ते हैं.

आगामी समय में यह रकम तेजी से बढ़ेगी. विदेशी निवेश खोलने से हमें कुछ रकम मिले, तो भी बढ़ते लाभांश प्रेषण से यह कट जायेगी. रिटेल और उड्डयन में विदेशी निवेश पहले खोला जा चुका था, लेकिन आवक शून्य रही. टेलीकाम आदि क्षेत्रों में भी यही परिणाम रहा.

इस प्रकार नये प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को लगातार आकर्षित करने की मनमोहन सिंह की नीति फेल हो गयी, लेकिन पूर्व में आये विदेशी निवेश का भार यथावत रहा. विदेशी निवेशकों को दिखने लगा कि भारत सरकार ने ऋण लेकर घी पीने की नीति को अपना रखी है. पिछले माह वह बिंदु आया कि विदेशी निवेशकों ने अपना पैसा वापस ले जाना शुरू कर दिया और रुपया बेहोश होकर तेजी से टूटने लगा.

इसलिए मूल समस्या मनमोहन सरकार की ऋण लेकर घी पीने की नीति की है. सरकार की नीति कोलकाता की शारदा चिट फंड से भिन्न नहीं है. शारदा के मालिक नये धारकों से रकम जमा कराते रहे और पुराने की रकम अदा करते रहे. कंपनी घाटे में चल रही थी, परंतु यह तब तक नहीं दिखा, जब तक नयी रकम आती रही. इसी प्रकार जब तक विदेशी निवेश आता रहा, तब तक घाटे में चल रही भारत सरकार जश्न मनाती रही. अब गुब्बारा फूट चुका है और रुपया लुढ़क रहा है.

मेरा अनुमान है कि रुपया 70 रुपये प्रति डॉलर के नजदीक स्थिर हो जायेगा. लेकिन इससे अल्पकालिक राहत मिलेगी. देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए सरकार को खपत कम और निवेश अधिक करने होंगे. विदेशी निवेश से प्राप्त रकम का सदुपयोग हाइवे तथा इंटरनेट सुविधाओं के लिए किया जायेगा, तभी सही मायने में रुपया स्थिर होगा.