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रेत की रग-रग में सहेज लेते हैं पानी की बूंदें


जयपुर/जैसलमेर. जैसलमेर में लोग रेत की रग-रग में पानी की बूंदें सहेजना जानते हैं। पानी की हर बूंद के उपयोग की परंपरा यहां सदियों पुरानी है। लोग खाट पर बैठकर नहाते हैं। नीचे इकट्ठा किए पानी को घर व बर्तन धोने जैसे कामों में लेते हैं। तीन तरह का पानी रखते हैं। पीने के लिए मीठा। रसोई के लिए कम खारा और अन्य कामों के लिए खारा। करीब हर घर में टांका होता है। लवां गांव में ही 1,000 घरों पर करीब 900 टांके हैं। खेतोलाई के रणजीताराम कहते हैं, ‘बरसात में ओले गिरते हैं तो लोग बर्तनों में इकट्ठा कर लेते हैं। फिर इस पानी को कई दिनों तक पीते हैं।’


सीख: मधुमक्खियों से भी


लोगों ने बूंद-बूंद सहेजना प्रकृति की छोटी-छोटी चीजों से सीखा है। मसलन, मधुमक्खियों से। लवां गांव की भीलणी जसकौरी एक भील गीत का हवाला देकर कहती हैं, ‘मौमाख्यां (मधुमक्खियां) फूलां स्यूं रस रो एक-एक कण चुग र शहद रो ढेर लगा सकै है, तो के म्हे माणस बादलां रै बरसतै रस नै नीं सहेज सकां!’ यानी, ‘मधुमक्खियां फूलों से रस का एक-एक कण बीनकर शहद का ढेर लगा सकती हैं तो क्या हम इंसान बादलों से बरसते रस को भी नहीं सहेज सकते?’


अनुशासन: पूरी सख्ती से


लवां के सरपंच रिटायर्ड कैप्टन मूलाराम कुमावत कहते हैं, ‘यहां पानी का अनुशासन सख्त है। गांव के तालाब पर, जहां से पीने का पानी मिलता है, जानवरों को नहीं जाने दिया जाता। जल संकट हो और घर में दामाद भी आ जाए तो हम विनती कर लेते हैं, बटाऊ सा घी पी ल्यो, पाणी मत मांगो। घर की छतों पर किसी को चप्पल-जूते पहनकर जाने की इजाजत नहीं होती, खासकर बारिश में। जिससे छत गंदी न हो और बारिश का साफ पानी टांकों, कुइयों, कुओं में सहेजा जा सके।’


चिंता: इसके बाद भी


जल प्रबंधन कार्यक्रमों से जुड़े डॉ. एमएस राठौड़ कहते हैं, ‘शहरीकरण और औद्योगीकरण से जल संरक्षण की परंपरा खत्म हो रही है। इस परपंरा के सबसे मजबूत और पुराने प्रतीक घड़सीसर तालाब के जलग्रहण क्षेत्र में हवाई अड्डा और नहरी विभाग का ऑफिस बनना इसका सबूत है। युवा पीढ़ी भी जल संरक्षण परंपराओं के प्रति गंभीर नहीं है।’