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रेहड़ी-पटरी वालों को न भूलें- भारत डोगरा

चारों तरफ से पड़े दबाव के कारण केंद्र सरकार ने रिटेल में एफडीआई का फैसला फिलहाल भले ही मुलतवी कर दिया है, लेकिन आज नहीं, तो कल वह इसे लागू करेगी ही। प्रासंगिक सवाल यह है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बुलाने वाली सरकार को आज रेहड़ी-पटरी वालों के प्रति अपनी जिम्मेदारी की याद भला कौन और कैसे दिलाए। पर सरकार को यह याद दिलाना जरूरी है, क्योंकि अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजन के मामले में रेहड़ी-पटरी वाले ही रिटेल क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण हैं। पूंजी के न्यूनतम उपयोग से ही इस क्षेत्र में नए रोजगार का सृजन हो जाता है। इस लिहाज से कमजोर वर्ग के रोजगार के लिए यह रिटेल का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है।

उपभोक्ताओं के व्यापक हितों की दृष्टि से भी रिटेल क्षेत्र में रेहड़ी- पटरी वालों का विशेष महत्व है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों से सस्ते उत्पाद खरीदने में सक्षम हैं और इस आधार पर वे कुछ सस्ते उत्पाद बेच सकती हैं। पर इसका दूसरा पहलू यह है कि वे देश के किसानों और उद्यमियों को बाजार से वंचित करती हैं। दूसरी ओर रेहड़ी-पटरी वाले कीमत सस्ती रखने का सही तौर-तरीका यह अपनाते हैं कि वे अपने ढांचागत खर्चों और दैनिक व्यय को बहुत कम रखते हैं। यदि उन्हें तरह-तरह के भ्रष्टाचार और हफ्ता देने की मजबूरी से मुक्त कर दिया जाए, तो अपेक्षाकृत सस्ते उत्पाद बेचने की उनकी क्षमता निश्चय ही और बढ़ जाएगी।

रेहड़ी-पटरी वालों की एक अन्य क्षमता यह है कि वे ग्राहक की स्थिति के अनुसार सामंजस्य बनाकर सौदा तय कर लेते हैं। इस तरह से निर्धन ग्राहकों के लिए भी रेहड़ी-पटरी वालों से खरीदारी करने की गुंजाइश बनी रहती है। इस तरह का लचीलापन प्रायः बड़े स्टोरों में संभव नहीं होता है। अतः कम आय वाले उपभोक्ताओं की खरीदारी में रेहड़ी-पटरी वालों का महत्वपूर्ण स्थान है। आज जब महंगाई का आतंक बढ़ता जा रहा है, तब हमें रिटेल के ऐसे तौर-तरीकों की ज्यादा जरूरत है, जो अपने खर्च में लचीलापन अपनाकर महंगाई से कुछ राहत दे सकते हैं।

पर दुर्भाग्यवश केंद्र सरकार रिटेल में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आमंत्रित करने की ऐसी नीतियां अपनाने पर आमादा है, जिससे रेहड़ी-पटरी वालों समेत सभी छोटे व्यापारियों को क्षति होगी। हालांकि सरकार ने रेहड़ी-पटरी वालों की भलाई से जुड़े कुछ फैसले भी लिए हैं। कुछ समय पहले सरकार ने अधिकांश रजिस्टर्ड रेहड़ी-पटरी वालों तक राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के लाभ लगभग चार वर्ष के भीतर पहुंचाने की घोषणा की थी। इसके अंतर्गत पांच सदस्यों तक के परिवार के लिए 30,000 रुपये तक के इलाज की व्यवस्था होगी।

पर इस तरह की योजनाओं का लाभ तो उन्हीं रेहड़ी-पटरी वालों को मिलेगा, जो रिटेल में तीखी होती प्रतिस्पर्द्धा के दौर में कुछ स्थिरता के साथ टिक सकेंगे। यदि वे अधिक वर्षों तक अपने स्व-रोजगार में टिक ही नहीं सके, तो उन्हें सरकारी योजना का लाभ नहीं मिल सकेगा। इन दिनों अर्थव्यवस्था में हो रहे बड़े बदलावों के कारण असंगठित क्षेत्र के कई रोजगारों में टिक पाना ही कठिन होता जा रहा है।

यही वजह है कि असंगठित मजदूरों के लिए समग्र कानून बनाने के अभियान के दौरान यह मांग रखी गई थी कि केवल छिटपुट कल्याणकारी योजनाएं नहीं, अपितु एक समग्र नीति चाहिए, जिसमें रोजगार बचाने का भी उचित प्रावधान हो। यदि शहरों में निरंतर प्रतिकूल नियम बनने के कारण रिक्शा चलाने के स्थान कम होते गए, तो रिक्शा चालकों का बीमा करने से ही बात नहीं बनेगी, क्योंकि कई रिक्शा चालक तो रोजगार छोड़ने को मजबूर हो जाएंगे। यही स्थिति रेहड़ी-पटरी वालों की है। सरकार उनके लिए कोई भी कल्याणकारी योजना लागू करे, तो उसका स्वागत है, पर उनका रोजगार बचाने की चिंता भी सरकार को करनी चाहिए। सवाल यह भी है कि सबसे छोटे स्तर के उद्यमी हफ्ता वसूली की मार कब तक सहेंगे। कई बार तो इस कारण भी वे रोजगार छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं।

इस पृष्ठभूमि में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुदरा क्षेत्र में लाने की तैयारी हो रही है। ऐसे में इस कदम का विरोध स्वाभाविक ही है। रेहड़ी-पटरी वालों के संगठन भी इस विरोध में एकजुट हो रहे हैं। क्या सरकार इनकी तकलीफों को अनसुना कर देगी?