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रोक से नहीं रुकेगी किराये की कोख- रंजना कुमारी

सरोगेसी, सरोगेसी, विधेयक, 2016, भारत में सरोगेसी की पूरी प्रक्रिया में महिलाओं, खासकर गरीब तबके की औरतों का काफी शोषण हो रहा था। उनके मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा था, और उनके स्वास्थ्य के प्रति भी लापरवाही बरती जा रही थी।

सरोगेसी (नियमन) विधेयक, 2016 को लाया जाना वक्त की जरूरत थी, मगर इस रूप में नहीं, जैसा लाया गया है। भारत में सरोगेसी की पूरी प्रक्रिया में महिलाओं, खासकर गरीब तबके की औरतों का काफी शोषण हो रहा था। उनके मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा था, और उनके स्वास्थ्य के प्रति भी लापरवाही बरती जा रही थी।

ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में किराये की कोख के जरिये गर्भधारण के ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनमें शरारती तत्वों द्वारा महिलाओं का शोषण किया गया। यह पूरी प्रक्रिया अनौपचारिक धंधे के रूप में दलालों के भरोसे चलती रही है। वहीं इसके बरक्स मेडिकल टूरिज्म ने भी सरोगेसी को काफी उभारा। भारत में बेहतर चिकित्सा सुविधा अपेक्षाकृत कम कीमत पर उपलब्ध है, लिहाजा विदेश से लोगों का आना तेज हुआ है। एक आकलन के अनुसार, दुनिया भर में करीब पांच करोड़ नि:संतान दंपति हैं।

इनमें से कई की उम्मीद भारत और थाइलैंड जैसे देश हैं, जहां किराये पर कोख मिलना अपेक्षाकृत आसान होता है। नतीजतन, पिछले एक दशक में ये दोनों ही देश व्यावसायिक सरोगेसी का बड़ा केंद्र बनकर उभरे हैं। भारत में सरोगेसी का कितना बड़ा कारोबार है, इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि यहां ऐसे देशों से भी लोग आए हैं, जहां सरोगेसी प्रतिबंधित है।

एक अनुमान है कि भारत में कम से कम 40,000 सरोगेट बच्चों का जन्म पिछले एक दशक में हुआ है। चूंकि यहां कोख का ‘किराया' अपेक्षाकृत कम है, इसलिए विदेशी दंपति यहां आकर सरोगेट मां ढूंढ़ते हैं और मां-बाप बनने का सुख पाते हैं। इसके लिए कोेख किराये पर देने वाली महिला को आठ हजार से 40 हजार डॉलर तक दिए जाते हैं। भारत में लगभग दो हजार सरोगेसी क्लिनिक हैं। साल 2012 की यूएन रिपोर्ट की मानें, तो सरोगेसी का यह कारोबार भारत में 40 करोड़ अमेरिकी डॉलर का है।

मुश्किल यह थी कि कोई कानूनी तंत्र नहीं होने के कारण ऐसे कई बच्चों का भविष्य ठीक नहीं रहा, जिनका जन्म सरोगेसी की प्रक्रिया से हुआ। सवाल ये भी उठ रहे थे कि ऐसे बच्चों को किस देश की नागरिकता दी जाए? विदेशी जोड़ा कैसे उसे अपने देश लेकर जाए? अगर डाउन सिन्ड्रोम या किसी समस्या के साथ बच्चा पैदा हुआ है, तो फिर वह किसके पास रहेगा- सरोगेट मदर के पास या उनके पास, जिन्होंने सरोगेसी की सुविधा उठाई है? हालांकि सरोगेसी के नियमन की तरफ सेलिब्रेटी लोगों ने भी ध्यान खींचा। सरकार का यह साफ मानना है कि कई सेलिब्रेटी ने सरोगेसी को सुविधा नहीं, शौक समझा। लिहाजा इन चीजों को देखते हुए हम लगातार सरोगेसी के नियमन की मांग कर रहे थे।

मगर हमने कानून बनाकर सरोगेसी पर नजर रखने की मांग की थी, उसे प्रतिबंधित करने की नहीं। इस व्यवसाय पर रोक लगाना लगभग नामुमकिन है। बेशक यह कहा गया है कि व्यावसायिक सरोगेसी नहीं होगी और परिवार की महिला सदस्य ही सरोगेट मां बन सकेगी। मगर यह प्रावधान तय करते वक्त यह सोचा जाना चाहिए कि भारतीय समाज में ऐसे रिश्ते या तो बनते नहीं अथवा बनते भी हैं, तो उनकी संख्या काफी कम है। इंग्लैंड के समाज से हम अपनी तुलना कतई नहीं कर सकते। ऐसे में, व्यावसायिक सरोगेसी पर प्रतिबंध लगा देने से यह पूरा का पूरा व्यवसाय काले बाजार के हवाले हो जाएगा। ऐसा इसलिए भी होगा, क्योंकि एक पूरी लॉबी इसमें लगी हुई है, और इससे डॉक्टरों का काफी फायदा हुआ है और हो रहा है। तमाम परिवारों में अपना बच्चा पैदा करने की रुचि है, साथ ही इस तरह का प्रतिबंध गरीब माओं के लिए मुश्किल पैदा करेगा।

हमारा ऐतराज उस प्रावधान को लेकर भी है, जो समलैंगिक रिश्तों या लिव इन को सरोगेसी की सुविधा नहीं देता। हमें यह समझना होगा कि समलैंगिक लोग भी हमारे देश और समाज का हिस्सा हैं। देश-दुनिया में अब परिवार की तस्वीर बदल रही है। एकल परिवार में एक पिता या एक मां भी अब अपने बच्चे को पाल सकती है। ऐसे में, समलैंगिक लोगों को हमें स्वीकार करना चाहिए।

समाज में उन्हें पूरा सम्मान मिलना चाहिए। परिवार बनाना उनका मौलिक अधिकार है। एक लोकतांत्रिक देश व समाज में यह अधिकार किसी को नहीं है कि वह यह तय करे कि दूसरा किस तरह का परिवार बनाना चाहता है। मगर दुखद तथ्य यह है कि समलैंगिक लोगों के साथ भारतीय समाज में बहुत ज्यादा अत्याचार हो रहा है। यह प्रस्तावित कानून भी इस लिहाज से अपवाद नहीं दिख रहा। उन पर इस हमले की मुखालफत होनी चाहिए। उन्हें भी बच्चा रखने का हक है, और उन्हें यह अधिकार मिलना ही चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है, तो यह उनके प्रति अन्याय होगा। यह मानकर चलना कि समलैंगिक बच्चा नहीं पाल सकते या उसे उस तरह प्यार नहीं दे सकते, महज एक अपुष्ट धारणा है। अब तक ऐसा कोई प्रामाणिक शोध नहीं है, जो यह साबित करे कि दो पुरुष या दो महिला जब एक साथ रहते हैं, तो वे अपने बच्चे को उतना प्यार नहीं दे सकते, जितना कि एक पुरुष और महिला साथ रहते हुए दे सकते हैं। इसी तरह, लिव इन रिलेशन को लेकर भी इस विधेयक में जो बात कही गई है, वह गले नहीं उतरती। हमने लिव-इन को कानून के तहत मान्यता दी है, तो भला उन्हें एक परिवार क्यों नहीं मानेंगे? आखिर उन्हें क्यों नहीं बच्चा पैदा करने की अनुमति दी जाए?

सरोगेसी का बेजा लाभ उठाने वाले को अगर रोकना है, तो प्रतिबंध उसका समाधान नहीं है। किसी भी उदार समाज में प्रतिबंध को लागू करना मुश्किल होता है। जब आप प्रतिबंध लगाते हैं, तो अनायास ही उस कारोबार के दबे-छिपे या गोपनीय ढंग से चलने की राह भी तैयार हो जाती है। लिहाजा प्रतिबंध की बजाय जरूरत एक ऐसा सिस्टम बनाने की है, जिसमें सुरक्षा की पूरी गारंटी हो। इसमें न सिर्फ सरोगेसी पर सख्त निगरानी हो, बल्कि सरोगेट मां के अधिकारों की भी रक्षा की जाए। दलालों की भूमिका को भी पूरी तरह खत्म करना होगा, क्योंकि आमतौर पर ऐसे ही लोग गरीब और अशिक्षित महिलाओं का शोषण करते हैं। डॉक्टरों की भी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए।

सरोगेसी विधेयक को अगर इन्हीं प्रावधानों के साथ संसद की मंजूरी मिल गई, तो हालात और बिगड़ सकते हैं। भारी संख्या में हमारे डॉक्टर नेपाल, श्रीलंका जैसे देशों में ऐसी जगहों पर जा रहे हैं, जो भारत से तीन-चार घंटे की दूरी पर हैं। गर्भधारण करने वाले परिवार भी वहां जा रहे हैं और सरोगेसी सुविधा लेने वाले जोड़े भी जा रहे हैं। अगर हमने व्यावसायिक सरोगेसी पर प्रतिबंध लगा दिया, तो पैसे वाले लोग तो आस-पास के देशों में जाकर यह सुविधा उठा लेंगे, मगर मध्यम या निम्नवर्गीय परिवारों के लिए मुश्किलें बढ़ जाएगीं। इन सबको समझकर ही सरोगेसी कारोबार को नियंत्रित किए जाने की जरूरत थी। कुल मिलाकर सरकार का यह कदम ‘ओवर-रिएक्शन' है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)