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रोजगार-शिक्षा की चिंताजनक स्थिति-- आशुतोष चतुर्वेदी

पिछले दिनों मीडिया में दो चौंकाने वाली खबरें सामने आयीं. एक तो उत्तर प्रदेश पुलिस विभाग के चपरासी के पदों पर 50 हजार ग्रेजुएट, 28 हजार पोस्ट ग्रेजुएट और 3700 पीएचडी धारकों ने आवेदन किया. कुल 93 हजार आवेदनकर्ताओं में सिर्फ 7400 उम्मीदवार ही ऐसे थे, जो पांचवीं पास थे. ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट उम्मीदवारों में इंजीनियर और एमबीए डिग्री वाले शामिल थे. इस पद का काम भी जान लीजिए.

इस पद के लिए चयनित उम्मीदवार को पत्र और दस्तावेज पुलिस विभाग के एक ऑफिस से दूसरे ऑफिस में पहुंचाने होंगे. चयनित उम्मीदवार को 20 हजार के आसपास वेतन मिलेगा. पिछले दिनों झारखंड में भी कुछ ऐसा ही मामला देखने में आया. झारखंड पुलिस में नियुक्त हुए 2645 दारोगाओं में तीन आइआइटी और बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि के हैं. राज्य में ऐसा पहली बार हुआ, जब आइआइटी जैसे संस्थान से इंजीनियरिंग करने के बाद दारोगा के रूप में किसी ने नौकरी की हो.

गढ़वा के एक नवयुवक ने आइआइटी गुवाहाटी से केमिकल इंजीनियरिंग में डिग्री हासिल की थी और अब दारोगा की परीक्षा में सफलता पायी है. स्थानीय कॉलेजों से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले अनेक छात्र दारोगा की परीक्षा में सफल रहे हैं.

उनका कहना है कि उन्हें नौकरियों के लिए भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा था. किसी स्टॉर्ट-अप में नौकरी करने पर वेतन 20 हजार रुपये ही मिल पा रहा था. उसकी तुलना में दारोगा की पक्की नौकरी और 40 से 45 हजार की तनख्वाह कहीं बेहतर है. दरअसल, जाने माने इंजीनियरिंग कॉलेजों में तो कैंपस सेलेक्शन हो जाता है, लेकिन सामान्य कॉलेजों से इंजीनियरिंग करने वाले छात्रों को नौकरी के संकट से दो-चार होना होता पड़ता है.

इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं. एक तो देश में बेरोजगारी बड़ी समस्या है. दूसरा कि निजी क्षेत्र के मुकाबले सरकारी नौकरी आज भी सबसे पसंदीदा नौकरी है.

ज्यादा वक्त नहीं गुजरा है, जब इंजीनियरिंग की डिग्री को सम्मान से देखा जाता था. इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले के लिए होड़ मची रहती थी. अच्छे कॉलेजों में अब भी प्रतिस्पर्धा है, लेकिन नौकरियों की कमी के कारण बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग कॉलेज बंद भी हो रहे हैं. हर साल 15 लाख से ज्यादा छात्र इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिला लेते हैं, लेकिन नौकरी सिर्फ साढ़े तीन लाख को मिल पाती है.

लगभग 60 फीसदी इंजीनियर बेरोजगार रहते हैं. सबसे बड़ी चिंता का विषय यह है कि हमारी शिक्षा प्रणाली रोजगारोन्मुखी नहीं है. केंद्र सरकार कौशल विकास योजना के अंतर्गत रोजगार के अवसर बढ़ाने की कोशिश कर रही है, लेकिन बेरोजगारों की बढ़ती हुई भारी संख्या देश और सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है. केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के श्रम ब्यूरो द्वारा रोजगार-बेरोजगारी पर कराये गये श्रम बल सर्वेक्षण के अनुसार, 15 साल एवं उससे ज्यादा उम्र के लोगों के लिए अनुमानित बेरोजगारी दर वर्ष 2015-16 में 3.7 प्रतिशत आंकी गयी है.

केंद्रीय श्रम एवं रोजगार राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) संतोष कुमार गंगवार ने लोकसभा में कहा था कि सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी प्राइवेट लिमिटेड (सीएमआइइ) के अनुसार, जुलाई 2017 से लेकर जून, 2018 तक की अवधि के दौरान बेरोजगारी दर 3.39 प्रतिशत से लेकर 5.67 प्रतिशत के बीच रही. युवाओं की रोजगार क्षमता बढ़ाने के लिए लगभग 22 मंत्रालय विभिन्न क्षेत्रों में कौशल विकास योजनाओं का संचालन करते हैं. स्व-रोजगार को सुविधाजनक बनाने के लिए सरकार द्वारा मुद्रा और स्टार्ट-अप्स योजनाएं शुरू की गयीं हैं.

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष भी मानता है कि भारत में बेरोजगारी एक बड़ी चुनौती है. साथ ही उम्मीद भी जगाता है कि आगामी कुछ वर्षों के आर्थिक सुधारों से नयी नौकरियां उत्पन्न होंगी. श्रम सुधारों से भी रोजगार के अवसर बढ़ेंगे.

हालांकि यह रातोंरात नहीं होगा. दूसरी ओर लेबर ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार भारत दुनिया का सबसे अधिक बेरोजगारों वाला देश बन गया है. भारत तेजी से तो बढ़ रहा है, लेकिन आर्थिक असमानता और बढ़ती बेरोजगारी उसकी दो सबसे बड़ी चुनौतियां हैं. हालांकि अर्थव्यवस्था के ताजा आंकड़े उम्मीद जगाते हैं. वित्त वर्ष 2018-19 की पहली तिमाही में विकास की गति 8.2 प्रतिशत रही.

जीडीपी देश की अर्थव्यवस्था का एक बुनियादी पैमाना होता है. 2017 के आखिरी तिमाही में विकास दर 7.7 थी, जबकि एक साल पहले समान अवधि के दौरान यह आंकड़ा 5.6 फीसदी रहा था. अधिकांश अर्थशास्त्री मानते हैं कि 2012 से 2014 के बीच अर्थव्यवस्था की स्थिति बेहद खराब थी.

ऐसे में आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार का प्रदर्शन ठीक-ठाक रहा है, लेकिन सरकार पर्याप्त रोजगार उपलब्ध कराने में कामयाब नहीं हो सकी है. मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में 13 फीसदी से ज्यादा की वृद्धि दर इस बात का संकेत है कि हालात सुधर रहे हैं. माना जाता है कि देश में नौकरियां के अवसर में उत्पन्न होते हैं, उनमें से 10 फीसदी मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र का योगदान होता है.

शिक्षा और रोजगार का चोली-दामन का साथ है. शिक्षा को लेकर सर्वे करने वाली संस्था ‘प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन' ने कुछ समय पहले अपनी वार्षिक रिपोर्ट ‘असर' यानी एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट जारी की थी.

इस रिपोर्ट के अनुसार प्राथमिक स्कूलों की हालत तो पहले से ही खराब थी, अब जूनियर स्तर का भी हाल कुछ ऐसा होता नजर आ रहा है. ‘असर' ने इस बार 14 से 18 वर्ष के बच्चों पर ध्यान केंद्रित किया. सर्वे में पाया गया कि पढ़ाई की कमजोरी अब बड़े बच्चों यानी जूनियर लेवल (14 से 18 साल) के बच्चों में भी देखी जा रही है.

सर्वे के अनुसार 76 फीसदी बच्चे पैसे तक नहीं गिन पाते. 57 फीसदी को साधारण गुणा भाग नहीं आता. अंग्रेजी तो छोड़िए, 25 फीसदी अपनी भाषा धाराप्रवाह नहीं पढ़ पाते. करीब 28 फीसदी युवा देश की राजधानी का नाम नहीं बता पाये. देश को डिजिटल बनाने का जोर-शोर से प्रयास चल रहा है, लेकिन 59 फीसदी युवाओं को कंप्यूटर का ज्ञान नहीं है. इंटरनेट के इस्तेमाल की भी कुछ ऐसी ही स्थिति है. लगभग 64 फीसदी युवाओं ने कभी इंटरनेट का इस्तेमाल ही नहीं किया है. यह सर्वे गंभीर स्थिति की ओर इशारा करता है.

दरअसल, 14 से 18 आयु वर्ग के बच्चे कामगारों की श्रेणी में आने की तैयारी कर रहे होते हैं यानी इसका सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ता है. इनकी संख्या भी अच्छी खासी है. देश में मौजूदा समय में 14 से 18 साल के बीच के युवाओं की संख्या 10 करोड़ से ज्यादा है. ये सारे तथ्य इशारा कर रहे हैं कि रोजगार और शिक्षा की स्थिति चिंताजनक है और इस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है.