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रोजगारपरक हो शिक्षा प्रणाली-- मोनिका शर्मा

अवसाद और तनाव की सौगात देने वाली हमारी शिक्षा व्यवस्था अब वाकई चिंतनीय हालात पैदा कर रही है। इस बाबत हाल ही में संसद में सरकार द्वारा पेश किये गए आंकड़े डराने वाले हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक देश में हर साल 8 हजार से ज्यादा छात्र आत्महत्या कर लेते हैं। इतना ही नहीं, सफलता और आगे बढ़ने की ललक और दबाव इतना है कि मनपसंद नौकरी या पेशा न मिलने पर रोज 3 युवा अपनी जान दे देते हैं। ऐसे में छात्रों का जान दे देना हमारी शिक्षा प्रणाली की व्यावहारिकता पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाता है।


मौजूदा दौर में अव्वल आने की दौड़ ने विद्यार्थियों को एक खास तरह के भावनात्मक और मानसिक संघर्ष की ओर धकेला है। हर हाल में सफलता हासिल करने और सबसे आगे निकलने का ये संघर्ष परीक्षाओं के दिनों में तो चरम पर होता है। ऐसे में हमारी शिक्षा व्यवस्था का ढांचा तो अव्यावहारिक है ही, अभिभावक भी अपनी ख्वाहिशों के भार की याद दिलाने में पीछे नहीं रहते। इन हालातों में बच्चों को भावनात्मक सम्बल देने के लिए कोई नहीं होता। छात्र दोनों तरफ़ से ही दबाव में रहते हैं।


ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि अब अव्वल रहने का खेल और मोटी तनख्वाह वाली नौकरी पाने के रास्ते का चयन कर पाना ही पढ़ाई का एकमात्र उद्देश्य रह गया है। संभवतः यही वजह है कि कोटा शहर में इंजीनियरिंग और मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों में 100 आत्महत्या के मामलों में से 73 लड़के और 27 लड़कियां हैं। जो कहीं ना कहीं यह भी बताता है कि हमारे सामाजिक-पारिवारिक ढांचे में आज भी करियर में सफल होने को लेकर लड़कियों पर दवाब कम है। जबकि घर के बेटों को हर हाल में ऊंची नौकरी हासिल करनी है, वाली सोच मौजूद है। इन्हीं हालातों में बच्चे भावनात्मक सम्बल के अभाव में कई बार आत्मघाती क़दम भी उठा लेते हैं।


एक रिपोर्ट के अनुसार कोचिंग सेंटर के रूप में विख्यात कोटा शहर में 100 आत्महत्या के मामलों में से 45 केवल परीक्षा में फेल होने के कारण होती हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज भी हमारी शिक्षा व्यवस्था का बुनियादी उद्देश्य ही स्पष्ट नहीं है। असल में शिक्षा प्रणाली का ध्येय होना तो यह चाहिए कि युवाओं को पढ़ने-लिखने के बाद रोजगार मिल सके। उन्हें अपने मनपसंद के पाठ्यक्रम में आसानी से प्रवेश मिल सके, लेकिन हमारी शिक्षा व्यवस्था में बुनियादी कमज़ोरी यही है कि यह न तो विद्यार्थियों को अपनी पसंद का पाठ्यक्रम सहजता से उपलब्ध करवाती है और न ही रोजगार या व्यवसाय के बेहतर अवसर उनके हिस्से आते हैं। पढ़ाई ख़त्म होने पर भी युवाओं का संघर्ष जारी रहता है क्योंकि हमारी शिक्षा प्रणाली रोजगारपरक नहीं है।


अब इस विषय में सोचना आवश्यक हो गया है क्योंकि बच्चों को उनके चुने गए विषयों में शिक्षा मिले और आगे चलकर अच्छे रोज़गार के अवसर उपलब्ध हों तो वे आत्महत्या जैसा क़दम उठाने की सोचें ही नहीं। सच्चाई तो यह है कि हम एक ऐसी शिक्षा प्रणाली को ढो रहे हैं जो विद्यार्थियों के साथ-साथ माता-पिता को भी मनोरोगी बना रही है। अफ़सोसजनक यह भी है कि बीते कुछ बरसों में परिवार और समाज में आगे बढ़ने और सफल होने के जो मापदंड तय हुए, वे सिर्फ आर्थिक सफलता को ही सफलता मानते हैं। नई पीढ़ी ने भी इसी को आधार मानकर सफलता के नये आयाम गढ़े हैं। इसके लिए शिक्षित होने के भी मायने बदल गए। पढ़ाई केवल मोटी तनख्वाह वाली नौकरी पाने का ज़रिया बन कर रह गयी।


कुछ समय पहले अवीवा इंडिया कंपनी द्वारा दस शहरों में 2250 पेरेंट‍्स पर करवाये सर्वे में 93 फीसदी अभिभावकों ने माना कि वे बचत का बड़ा हिस्सा बच्चों की उच्च शिक्षा को ध्यान में रखकर करते हैं। सर्वे में 70 प्रतिशत अभिभावकों ने माना कि उनकी तमन्ना है कि उनके बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर बनें। आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े बताते हैं कि सफल होने की अंधी दौड़ और अभिभावकों की चाहतें जीवन पर भारी पड़ रही हैं। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट बताती है कि भारत में हर रोज़ 707 लोग अपना जीवन खत्म कर लेते हैं। यानी कि हर दूसरे मिनट में एक भारतीय खुदकुशी कर लेता है। आत्मघाती बनने वाले युवा जहां बेरोजगारी और तनाव से जूझ रहे हैं वहीं किसान सूखे और सरकार की उदासीनता की मार झेलते हैं। जिसका सीधा-सा अर्थ यह है कि किसान हों या युवा, समस्याएं उनके जीवन और रोजगार से ही जुड़ी हैं।


अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा करवाए गए सर्वे में भी यही सामने आया था कि आत्महत्या करने वाले लोगों में अधिकतर 15 से 35 आयु वर्ग के लोग हैं। इनमें सबसे अधिक संख्या छात्रों की है। यूनेस्को की एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार भारत में शिक्षा की उपलब्धता तो आसान हुई है लेकिन गुणवत्ता का सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ है। यहां स्कूल जाने वाले बच्चे भी शिक्षा के घटिया स्तर के कारण पिछड़ रहे हैं। अब जबकि हमारे देश में पढ़ाई ज्ञानोन्मुखी न होकर रोज़गारोन्मुखी रह गई है। ऐसे में ये आंकड़े सरकार और समाज को चेताने वाले हैं। साथ ही भारतीय शिक्षा व्यवस्था के लिए कई कसौटियों पर खरा उतरने के लिए बदलाव की राह भी सुझाते हैं।