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रोटी, छुट्टी और चिट्ठी से चलती जिंदगी-- विभूति नारायण राय

अंग्रेजी की एक कहावत है- ‘आर्मी मार्चेज ऑन इट्स बेली'। हिंदी में अनुवाद करें, तो कह सकते हैं कि लड़ने के लिए सेना का पेट भरा होना जरूरी है। बीएसएफ के जवान तेज बहादुर यादव के वायरल हुए वीडियो के अंदर कई अंतर्कथाएं छिपी हैं। वीडियो देखते हुए मुझे बीएसएफ में बिताए अपने दस साल याद आ रहे हैं।


पाठकों की जानकारी के लिए बता दूं कि बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स या सीमा सुरक्षा बल के औसत जवान की ड्यूटी भारत के किसी भी अर्द्ध-सैनिक बल, यहां तक सेना के जवान से भी मुश्किल होती है। सेना में हार्ड एरिया या सॉफ्ट एरिया जैसी तैनाती की जगहें हैं, जहां प्रत्येक दो-तीन वर्ष बाद अदला-बदली से सैनिक को परिवार के साथ सुस्ताने का मौका मिलता रहता है। कच्छ के रन से राजस्थानी रेगिस्तान होकर जम्मू-कश्मीर के बर्फीले पहाड़ों तक पसरी, पश्चिमी और बंगाल व पूवार्ेत्तर के जंगलों में फैली देश की पूर्वी सीमा पर तैनात बीएसएफ के अधिकांश जवानों के लिए सॉफ्ट एरिया में नियुक्ति या परिवार के साथ रहने का मौका किसी सपने जैसा है। यह जानकर आप चौंक सकते हैं कि किन्हीं वर्षों में तो त्रिपुरा के जंगलों में मच्छर काटने से हुए मलेरिया के कारण मरने वाले जवानों की संख्या उग्रवादियों के हाथों शहीद हुए जवानों की संख्या के निकट पहुंच जाती है। ऐसे में, स्वाभाविक ही है कि बल में काफी संख्या ऐसे जवानों की है, जो झुंझलाए, थके-मांदे, चिड़चिड़े और असंतुष्ट दिखते हैं। इससे पिछले कुछ वर्षों में अपने कमांडरों पर बंदूक तान लेने, ड्यूटी से गैर-हाजिर होने और आत्महत्या जैसी घटनाएं भी बढ़ी हैं। इस बात की बहुत संभावना है कि आप किसी जवान से पूछें कि उसे नौकरी करते कितने साल हुए और वह आपको यह बताए कि अभी उसके कितने साल बाकी हैं? लगता है, वह एक-एक दिन गिन रहा है, जब पूरी पेंशन के साथ सही सलामत घर लौट सके।


पश्चिमी सीमा पर पहली नियुक्ति के दौरान अपने बॉस की यह सलाह मुझे आज तक याद है कि जवान को तीन चीजें समय से चाहिए और सीनियर कमांडरों को जांचते रहना चाहिए कि उन्हें ये समय से मिल रही हैं। ये तीन चीजें हैं- रोटी, छुट्टी और चिट्ठी। इन तीनों में से किसी एक की कमी उनमें असंतोष का कारण बन सकती है। रोटी के महत्व का एहसास तो उत्तर प्रदेश पुलिस में नौकरी करते समय मुझे हो ही चुका था, जहां पश्चिम और पूरब के जवानों को आप काली या पीली दाल पर बहस करते या फिर अपने असंतोष को अभिव्यक्त करने के लिए खाना खाने से मना करते देख सकते हैं। आज सैटेलाइट टेलीफोन के जमाने में चिट्ठी का महत्व कम हो गया है, पर छुट्टी व रोटी का जवान के जीवन में अब भी खासा अर्थ है। इन दोनों के लिए आप सेना और अर्द्ध-सैनिक बलों में अक्सर जवानों की अपने कमांडरों के ऊपर बंदूकें तानने की खबरें अखबारों में पढ़ सकते हैं।


भारत में आधुनिक संस्था के रूप में फौज और पुलिस की स्थापना अंग्रेजों ने की थी और इस प्रक्रिया में 1857 के अनुभव ने बड़ी निर्णायक भूमिका निभाई थी। मुट्ठी भर गोरे अफसरों को संख्या में अपने से कई गुना ज्यादा काले अधीनस्थों को न सिर्फ अनुशासित रखना था, बल्कि उन्हें इस हद तक प्रेरित करना था कि वे अपने अफसरों के हुक्म पर मरने-मारने को तैयार रहें। यहां तक कि दुश्मन अगर अपना देशवासी हो, तब भी उनके मन में कोई दुविधा न हो। भारत की सामाजिक संरचना को ध्यान में रखते हुए अंग्रेजों ने अफसर और जवान के बीच माई-बाप जैसे रिश्ते बनाए थे। अफसर जवान को ‘बेटा' कहकर संबोधित करता था। वह शाम को उनके साथ लाइन में जाकर फुटबॉल खेलता था। उसने पुलिस और सेना, दोनों में ऐसा संस्थाबद्ध तंत्र विकसित किया था, जिसमें व्यवस्था थी कि समय-समय पर अफसर बैरकों व लाइनों में जाकर सफाई, मनोरंजन व खाने की गुणवत्ता परखते थे। गलती करने पर वह सजा भी बहुत सख्त देता था, पर कभी सजा जाति या इलाका देखकर नहीं दी जाती थी। चार दशकों तक वर्दी पहनने के बाद मैं पूरे विश्वास से नहीं कह सकता कि आज भी अफसर उतने ही संवेदनशील हैं।


पहले जवान की जिंदगी कठिन जरूर होती थी, पर सेवा की अवधि भी कम होती थी। दूसरे महायुद्ध तक आम तौर से 30 वर्ष से कम उम्र में औसत फौजी पेंशन लेकर घर चले आते थे। साठ के दशक के बाद से हर रैंक पर रिटायरमेंट की उम्र बढ़ी है और अब तो अर्द्ध-सैनिक बलों में ज्यादातर रैंकों पर रिटायरमेंट की उम्र 57 वर्ष है। आज सीमा पर जैसे हालात हैं, उनमें 12 से 14 घंटे ड्यूटी आम बात है। 35-40 की उम्र पार करने के बाद बिना आराम और बिना ब्रेक रोज एक जैसी नीरस व मुश्किल ड्यूटी तोड़ डालती है। कई बार ऐसे सुझाव आए हैं कि 40-45 के बाद अर्द्ध-सैनिक बलों के जवानों को राज्य पुलिस या अपेक्षाकृत कम थकाने वाली सुरक्षा सेवाओं में, जहां उन्हें अपने परिवार के साथ रहने का मौका मिल सके, खपा दिया जाए, लेकिन इस पर कोई निर्णय नहीं हो सका। वर्तमान में परिवार के साथ रहने का महत्व इसलिए भी बढ़ गया है कि अब संयुक्त परिवार एक मजबूत संस्था नहीं रह गई है। पहले जवान अपने बीवी-बच्चों को संयुक्त परिवार की देख-रेख में छोड़ पूरी दुनिया घूमता था, आज उसे ड्यूटी पर उनकी चिंता लगी रहती है और छुट्िटयों के लिए मारामारी होती है या घर से फोन आने पर किसी की आत्महत्या की खबर पढ़ने को मिलती है। कोढ़ में खाज यह कि 2004 के बाद उनकी पेंशन भी खत्म कर दी गई।


युद्ध मानव प्रजाति की सबसे पुरानी विकृति है। इसमें विरोधी की जान लेनी पड़ती है और उन दिनों भी, जब मनुष्य पशु से काफी हद तक मिलती-जुलती परिस्थितियों में रहता था, दूसरे मनुष्य की हत्या उसे दुखी करती थी। दुनिया की सारी क्लासिक भाषाओं के महाकाव्यों में मानव वध के पश्चात उत्पन्न होने वाले दुख, ग्लानि या पश्चाताप जैसे भाव रचनात्मक अभिव्यक्ति का शिखर माने जाते हैं। शायद इसीलिए सृष्टि चल भी रही है, पर युद्ध तो होते ही रहे हैं और माना जाता है कि जब तक राष्ट्र-राज्य, ईश्वर या व्यक्तिगत संपत्ति जैसी संस्थाएं हैं, युद्ध होते रहेंगे। जर्मन कवि ब्रेख्त एक कविता में कहता है कि जनरल, तुम्हारे टैंक बड़े ताकतवर हैं, पर दिक्कत है कि उन्हें चलाने के लिए तुम्हें अदद इंसान की जरूरत पड़ती है। इस इंसान को समय से खाना मिले, वह पर्याप्त आराम कर सके और परिवार की ऊष्मा से भी लंबी अवधि तक वंचित न रहे, यह सुनिश्चित करना राज्य का दायित्व है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)