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लंबा है असम की अस्मिता का संघर्ष - एनके त्रिपाठी

असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का अंतिम मसौदा सामने आने के बाद बांग्लादेशी घुसपैठियों की समस्या एक बार फिर सुर्खियों में है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं कि असम के मूल निवासी दशकों से इस समस्या से जूझ रहे हैं। मैं भारतीय पुलिस सेवा में रहा हूं और अपने इस सेवाकाल के दौरान मुझे असम के लोगों द्वारा घुसपैठियों के खिलाफ संघर्ष को करीब से देखने का मौका भी मिला। मुझे याद है कि मार्च 1980 में मैं कमांडेंट के तौर पर एसएएफ की 24वीं बटालियन को मय हथियार, गाड़ियां व तमाम साजोसामान लेकर स्पेशल ट्रेन से गुवाहाटी पहुंचा था। 27 नवंबर 1979 से पूरे असम में जबर्दस्त आंदोलन चल रहा था और जगह-जगह धरना-प्रदर्शन हो रहे थे। ऑल असम स्टूडेंट यूनियन तथा ऑल असम गण संग्राम परिषद द्वारा ब्रह्मपुत्र घाटी में चुनाव प्रक्रिया को ठप कर दिया गया था। केंद्र में बैठी तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार की तंद्रा तब टूटी, जब आंदोलनकारियों ने गुवाहाटी की नारंगी रिफायनरी से बिहार स्थित बरौनी रिफायनरी को आने वाली पेट्रोलियम की पाइप लाइन को अवरुद्ध कर दिया। आंदोलनकारियों ने हजारों की संख्या में नारंगी रिफायनरी पहुंचकर उस पर कब्जा कर लिया था। इंदिरा गांधी की योजना इन आंदोलनकारियों को गिरफ्तार करते हुए पूरे गुवाहाटी तथा ब्रह्मपुत्र घाटी में कब्जा कर पेट्रोलियम की आपूर्ति को पुन: बहाल करना थी। वहां पहुंची मेरी बटालियन को नारंगी के सभी आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर अस्थायी जेल पहुंचाने का काम दिया गया था। अन्य 8 बटालियनों को शहर में कर्फ्यू लगाने का काम दिया गया।

आलेख : अवैध नागरिकों पर अखरती सियासत - संजय गुप्त
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निर्धारित रात्रि को सबने अपनी-अपनी पोजिशन ली और तड़के नारंगी रिफायनरी में मेरी बटालियन ने भारी कठिनाइयों के बावजूद हजारों आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। अन्य सभी बटालियनों ने शहर के हर चौराहे पर कर्फ्यू लागू कराना प्रारंभ किया। लेकिन दिन चढ़ते-चढ़ते हजारों की तादाद में वहां की जनता सड़क पर आ गई। नए आंदोलनकारी पुन: नारंगी रिफायनरी जा पहुंचे तथा इंदिरा गांधी की पूरी योजना विफल कर दी। यह आंदोलन पूरी ब्रह्मपुत्र घाटी में फैल चुका था, जो असमियों द्वारा अपनी पहचान, अपनी अस्मिता के संरक्षण की खातिर किया जा रहा था। पूर्वी पाकिस्तान (जो आगे चलकर बांग्लादेश हुआ) से आए विस्थापितों के कारण आबादी की संरचना बदल रही थी। वर्ष 1900 के आसपास पूर्वी बंगाल (जो तब भारत का ही अंग था) से असम की ओर पलायन आरंभ हो गया था। असम में आबादी कम और भूमि अधिक थी तथा वहां के जमींदारों को सस्ते बंगाली श्रमिकों की आवश्यकता थी। देश की आजादी के बाद पूर्वी पाकिस्तान से गरीब बंगालियों (अधिकांश मुस्लिम) का असम आना जारी रहा। असम की बराक घाटी मुस्लिम-बहुल हो गई और ब्रह्मपुत्र की निचली घाटी में नई बसाहटें होना शुरू हो गईं। वर्ष 1951 से 2011 के बीच देश की आबादी 235 फीसदी बढ़ी, जबकि इसी दौरान असम की आबादी में 288 फीसदी इजाफा हुआ।

स्वतंत्रता के बाद असम में 1956 में गोलपाड़ा जिले के विभाजन को लेकर तथा 1972 में भाषा को लेकर हिंसक घटनाएं हुईं। परंतु अस्सी के दशक का प्रारंभिक आंदोलन बहुत व्यापक था, जिसने पूरे देश का ध्यान पूर्वोत्तर राज्यों की ओर आकृष्ट किया। इसी दौर में मेरी बटालियन को गुवाहाटी से हटाकर नलबाड़ी, बरपेटा, कोकराझार, धुबरी और बोंगइगांव आदि के ग्रामीण इलाकों में तैनात किया। वहां रहते हुए मैंने इस आंदोलन की तीव्रता को महसूस किया। इस आंदोलन को समाप्त करने के लिए अनेक समझौता वार्ताएं हुईं और आखिरकार 15 अगस्त 1985 को राजीव गांधी के प्रयासों से असम समझौता हुआ, जिससे आंदोलन पर विराम लगा।


हाल ही में असम में एनआरसी को लेकर उठे विवाद के बाद भाजपा अध्यक्ष व राज्यसभा सांसद अमित शाह ने संसद के इस उच्च सदन में कहा कि 1985 के असम समझौते की आत्मा राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) है। वास्तव में इस समझौते में कहा गया था कि 1961 से पहले आए विस्थापितों को पूर्ण नागरिकता दी जाएगी। 1961 से 1971 के बीच आए लोगों को 10 वर्ष तक मताधिकार से वंचित कर उसके बाद नागरिकता दी जाएगी। मुख्य बिंदु 1971 के बाद बांग्लादेश से आए लोगों को वापस किया जाना था। हकीकत यह है कि इस संबंध में कभी ठोस कार्रवाई नहीं की गई। यह समझौता जरूर हो गया, किंतु असम इसके बाद भी शांत नहीं हुआ।
विडंबना यह है कि भारत में राजनीतिक दल यहां तक कि राष्ट्रीय समस्याओं को भी दलगत हित के हिसाब से देखते हैं। बांग्लादेश से पलायन कर यहां आने वाले लोगों का रुझान हमेशा से कांग्रेस की ओर रहा है। पिछले दिनों बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ पार्टी भी उत्पन्न् हुई है। इनकी वजह से हिंदू वोटों का भी ध्रुवीकरण हुआ है और इसी का नतीजा है कि पूर्वोत्तर राज्यों में हुए पिछले कुछ चुनावों में भाजपा को जबर्दस्त सफलता हासिल हुई है। वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पालन में भाजपा की केंद्र तथा असम सरकार ने एनआरसी का अंतिम मसौदा तैयार किया। इसी मसौदे के आधार पर इस राज्य में रह रहे 40 लाख लोगों की नागरिकता पर प्रश्नचिह्न लग गया है। हालांकि एनआरसी के इस अंतिम मसौदे पर लोगों से आपत्तियां भी आमंत्रित की गई हैं।

एनआरसी के इस अंतिम मसौदे के प्रकाशन से पूरे देश की राजनीति गरमा गई है। पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूण कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने अपने वोट बैंक को सुरक्षित रखने के लिए इसे भाजपा की साजिश करार देते हुए देश में गृहयुद्ध, रक्तपात होने की चेतावनी भी दी है। हालांकि केंद्र सरकार ने आश्वस्त किया है कि इस रजिस्टर के आधार पर फिलहाल कोई कार्रवाई नहीं होगी। वैसे भी इतनी बड़ी संख्या में लोगों को निर्वासित किया जाना नामुमकिन-सा लगता है। पूरे उपमहाद्वीप में बांग्लादेश आज हमारा सबसे करीबी साथी है और उसने इस पूरे प्रकरण को भारत का अंदरूनी मामला बताते हुए दूरी बना ली है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी इस पूरे मामले के मानवीय पक्ष पर दृष्टि रखे हुए है। लगता यही है कि असम को ऐतिहासिक झंझावात के निशानों के साथ ही रहना होगा। 2019 के लोकसभा चुनावों के परिप्रेक्ष्य में असम का ध्रुवीकरण राष्ट्रीय स्तर तक फैल सकता है। ममता बनर्जी इसके माध्यम से जहां एक ओर विपक्षी एकता को मजबूत करने की कोशिश कर रही हैं, वहीं वे कांग्रेस को हल्का करने का कोई मौका नहीं छोड़तीं। असम का एनआरसी आते ही वे नई दिल्ली पहुंचकर राष्ट्रीय विपक्षी राजनीति के मंच पर केंद्रीय स्थान पाने में जुट गईं। तमाम दलों को लगता है कि अपने वोट बैंक के संरक्षण व संवर्धन के लिए जाति-धर्म के मुद्दे को हवा देनी होगी। असम के एनआरसी के जरिए उन्हें यह मौका मिल गया है।

(लेखक रिटायर्ड आईपीएस हैं और असम में छात्र आंदोलन के दौरान वहां पदस्थ रहे हैं)