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लचर शिक्षा, अयोग्य बच्चे! कौन है इसका जिम्मेदार?-- रुचिर गर्ग

राज्य के मुख्य सचिव विवेक ढांड ने एक कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ में स्कूली शिक्षा के हाल पर अपनी व्यथा खुल कर जाहिर की। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी स्कूली शिक्षा की इस बिगड़ी तस्वीर से नाखुश हैं, चिंतित हैं। सरकार के उच्च स्तर से आई इस व्यथा और चिंता से एक बात तो दिखती है कि कम से कम शिक्षा एक ऐसा मसला है जिस पर इस राज्य में विपक्ष से लेकर सत्ता तक और मीडिया से लेकर समाज के अलग-अलग हिस्सों तक सभी सहमत हैं कि दुर्दशा है ! तो हम कैसा छत्तीसगढ़ गढ़ रहे हैं ?

अगर राज्य के मुख्य सचिव को लगता है कि इस राज्य में छठवीं क्लास का बच्चा तीसरी क्लास की किताबें नहीं पढ़ सकता तो इसका जिम्मेदार कौन है ? क्या वो बच्चा, जिसे हम राज्य गठन के डेढ़ दशक बाद अयोग्य और जाहिल ठहरा दे रहे हैं ! या सरकार की ही स्कूली शिक्षा की नीति ?

मुख्य सचिव से लेकर मुख्यमंत्री तक जिस तस्वीर से व्यथित हैं वो सरकारी स्कूलों की ही है। सरकारी स्कूलों की इस दुर्दशा का जिम्मेदार आज किसे ठहराया जाए? उत्तर प्रदेश हाई कोर्ट ने तो अफसरों से कहा है कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने भेजें तभी इन स्कूलों की स्थिति में सुधार आएगा। लेकिन छत्तीसगढ़ में क्या कोई अफसर अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजना पसंद करेगा? वैसे तो यह किसी का अपना अधिकार है पर जवाब तो साफ है-नहीं।

सवाल बहुत सारे हैं। दुर्दशा के कारण जानने के लिए विशेषज्ञों की जरूरत नहीं है। छत्तीसगढ़ का वह आदमी जिसके पास अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए सरकारी स्कूल ही विकल्प है, हर रोज देख रहा है कि कैसे उसके बच्चों की पढ़ाई के केंद्र व्यवस्थित तरीके से तबाह किए जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ का आम आदमी देख रहा है कि कैसे सरकारी स्कूल तबाह हो रहे हैं और कैसे निजी क्षेत्र में पांच सितारा स्कूल खुल रहे हैं और जमकर मुनाफा कमा रहे हैं !

छत्तीसगढ़ में स्कूली ही नहीं, उच्च शिक्षा की तस्वीर भी बहुत लचर है। उच्च शिक्षा के बड़े-बड़े केंद्र आज इस राज्य में खुल गए हैं, लेकिन उनके स्तर से लेकर नौकरियों तक का रिकॉर्ड बहुत खराब है। इंजीनियरिंग शिक्षा के हाल पर तो शायद कुछ कहने की भी जरूरत नहीं बची है ! इस राज्य में शिक्षा की बुनियाद ही बेहद कमजोर है। स्कूली शिक्षा एक ऐसे तदर्थवाद का शिकार है, जिससे पता लगता है कि शिक्षा की गुणवत्ता से किस तरह का समझौता किया जाता रहा है।

स्थायी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षकों के नाम पर तरह-तरह के नामधारी शिक्षक भर्ती कर लिए गए हैं। खबरें यह हैं उन्हें भी सरकार आज तीन-तीन महीने का वेतन नहीं दे पा रही है। क्या सरकार भूखे पेट शिक्षकों से शिक्षा का स्तर सुधरवाना चाहती है? शिक्षक रोज हड़ताल पर हों और हम उम्मीद करें कि शिक्षा का स्तर सुधर जाए ! आखिर सरकार बेहतर वेतनमान के साथ बेहतर शिक्षकों की भर्ती की कोई स्थायी प्रणाली क्यों नहीं विकसित करती ? क्या सरकार को लगता है कि शिक्षा भी आउट सोर्सिंग जैसे खारिज किए जा रहे तौर-तरीकों से सुधर जाएगी ? शायद नहीं !

लेकिन बात इतनी ही नहीं है। छत्तीसगढ़ में शिक्षा का बजट 2002-2003 में 652 करोड़ था और अभी 2015 -2016 में 7412 करोड़, इसी अनुपात में या शायद इससे भी अधिक, केंद्र से प्राथमिक शिक्षा के मद में मिलने वाली राशि में भी इजाफा हुआ होगा। यह राशि जरूरत से कम हो सकती है, लेकिन जिस अनुपात में इसमें इजाफा हुआ है तो यह सवाल उठेगा कि आखिर बजट का सही उपयोग हो रहा है या नहीं ?आमतौर पर यह आरोप लगता है कि सरकारें केंद्र से मिलने वाले पैसे से औने-पौने वेतन पर शिक्षक रख लेती हैं और बाकी पैसों को वोटर लुभाने वाले मदों पर खर्च कर देती हैं।

छत्तीसगढ़ में क्या हाल है यह तो नहीं पता, लेकिन यह जरूर पता है कि शिक्षा विभाग भारी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा रहता है। किताबों की खरीदी से लेकर सप्लाई और छपाई तक ! शिक्षा की गुणवत्ता का भ्रष्टाचार से लेना-देना ना हो यह कैसे हो सकता है?

दरअसल शिक्षा हो या स्वास्थ्य, हकीकत यह है कि इन्हें लेकर सरकारों की लोककल्याण की दृष्टि अब नजर नहीं आती। अब तो इनकी बर्बादी पर निजी क्षेत्र का जश्न जरूर नजर आता है! स्कूली शिक्षा के हजारों करोड़ के बजट के बावजूद सरकारी स्कूलों में बच्चों के लिए पीने के पानी से लेकर फर्नीचर और शौचालयों तक का जो हाल है वो किससे छिपा है ? किसी गांव या बस्तर जैसे इलाकों की तो बात ही ना की जाए !

राज्य के विकास का कोई भी पैमाना बेहतर शिक्षा के बिना अधूरा होगा और जिस राज्य में मुख्य सचिव से लेकर मुख्यमंत्री तक शिक्षा के स्तर को लेकर अपनी निराशा का सार्वजनिक प्रदर्शन करने से खुद को रोक ना पाए, वहां स्थिति कितनी भयावह और तकलीफदेह होगी इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।

यह पूरा मसला केवल बजट और संसाधनों का ही नहीं है। यह मसला बच्चों में वैज्ञानिक चेतना विकसित करने का भी है, लेकिन छत्तीसगढ़ तो वो राज्य है जहां स्कूलों में आसाराम मार्का ज्ञान की किताबें बंट जाती हैं और किसी को खबर भी नहीं होती ! इसी आसाराम के बताये इस राज्य में वेलेंटाइन डे पर मातृ-पितृ दिवस भी मनाया जाता है !

शिक्षा और खासतौर पर स्कूली शिक्षा का मोर्चा बेहद कमजोर और लचर है। सीएम डॉ. रमन सिंह की छवि कम से कम प्रतिगामी दृष्टिकोण रखने वाले मुख्यमंत्री की नहीं है। इस राज्य की शिक्षा को संसाधनों के बेहतर उपयोग से लेकर चेतना के स्तर तक दुरुस्त करने की जरूरत है।

मुख्य सचिव या मुख्यमंत्री का शिक्षा के स्तर पर चिंतित होना उचित है, लेकिन उनकी चिंता का यह सार्वजनिक प्रकटीकरण निजी क्षेत्र को ही लाभ पहुंचाएगा, कम से कम तब तक जब तक यह दिखेगा नहीं कि छत्तीसगढ़ सरकार ने शिक्षा के स्तर में क्रान्तिकारी सुधारों के लिए कमर कस ली है !