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लाल ईंटों की दीवार के परे : हर्ष मंदर

भारत के सबसे बेहतरीन बिजनेस स्कूलों में से एक आईआईएम अहमदाबाद के विशाल छायादार कैम्पस में लाल ईंटों की एक दीवार है। इस दीवार के दूसरी तरफ अनेक बेसहारा लोगों का बसेरा है। इनमें कचरा बीनने वाले, निर्माण श्रमिक और भिखारी शामिल हैं। मेरे एक छात्र ने इस विडंबना को रेखांकित करते हुए कहा था कि महज सौ मीटर के फासले पर दो अलग-अलग दुनियाएं बसी हैं।


एक दुनिया वह है, जहां रोटी के लिए संघर्ष है और दूसरी दुनिया वह है, जहां मोटी तनख्वाह वाली नौकरियां पाने की जद्दोजहद है। लगता है ईंटों की दीवार के इधर और उधर पसरी हुई दो दुनियाएं दो अलग-अलग ग्रह हैं, जिनके बीच कई प्रकाश वर्षो का फासला है।


तीन साल पहले मुझे आईआईएम के एमबीए विद्यार्थियों को ‘गरीबी और प्रशासन’ विषय पर सेमेस्टर कोर्स पढ़ाने का निमंत्रण मिला था। एक ऐसे क्लासरूम में भूख और अभावों के बारे में बात करना बहुत ही चुनौतीपूर्ण था, जहां पढ़ने वाले नौजवान चंद महीनों बाद ही ऐसी नौकरियां कर रहे होंगे, जो उन्हें देश के शीर्ष आय-वर्ग में ला खड़ा कर देंगी।



लेकिन मैंने पाया कि मेरे विद्यार्थी मेधावी, प्रतिबद्ध और सजग हैं। देश के युवाओं का यह विशिष्ट गुण है। कोर्स समाप्त होने के बाद मैंने परीक्षा लेने के स्थान पर विद्यार्थियों से कहा कि वे वंचित समुदाय के व्यक्तियों के जीवन के बारे में जानने की कोशिश करें, उनके बारे में लिखें और अपने विचारों को सहपाठियों से बांटें। विद्यार्थियों की पहली प्रतिक्रिया स्वाभाविकतया हैरानी भरी थी। आखिर वे इतिहास, वर्ग, सत्ता, भाषा द्वारा खींची गई लकीरों को कैसे पार सकते थे। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि जरूरत केवल उस संवेदना की है, जिसे एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के प्रति अनुभव करता है।


विद्यार्थियों के लिए यह एक रोमांचक चुनौती थी। जब वे इन लोगों के बीच से लौटकर आए तो उनके पास मामूली चेहरों के पीछे छिपे अदम्य स्वप्नों और संघर्षो की कहानियां थीं। एक छात्रा पूजा जयरामन की भेंट न्यू आईआईएम कैम्पस में काम कर रही युवा विधवा ज्योति से हुई। उससे मिलने के बाद पूजा ने जो कहा, वह मेरे हर विद्यार्थी के मन की बात थी : ‘अगर हम उनकी जगह होते तो क्या हम इतने साहस का परिचय दे पाते?’ विद्यार्थियों के मन में इन लोगों के प्रति दया नहीं, सम्मान की भावना थी।

जब ये विद्यार्थी मेरी कक्षा में आए थे, तब तक वे कैम्पस में दो साल बिता चुके थे। कैम्पस के बाहर सड़क के किनारे स्ट्रीट फूड, सिगरेट, डीवीडी, अखबारों और पत्रिकाओं के कई स्टॉल थे। शाम के समय विद्यार्थी यहां काफी समय बिताया करते थे। इन दो सालों में वे अनगिनत बार इन स्टॉल्स के समीप रहने वाले उन लोगों के सामने से गुजरे थे, लेकिन यह विचार कभी उनके जेहन में नहीं कौंधा था कि उन लोगों की भी कुछ कहानियां हो सकती हैं।


आईआईएम कैम्पस की दीवार से लगे फुटपाथ पर बेघरबार आनंद भाई का बसेरा है। वे मेरे छात्र मनीष वर्मा को फुटपाथ का वह हिस्सा दिखाते हैं, जहां उन्हीं की तरह कचरा बीनने वाले ५क् परिवार रहते हैं। आनंद भाई सुबह छह बजे उठ जाते हैं और अपने साथियों के साथ ‘काम’ पर निकल जाते हैं। उनके बच्चे अशिक्षित हैं और दिन भर भीख मांगते हैं।



मनीष एक बिजनेस स्कूल के छात्र की भाषा में कहते हैं कि इन लोगों के लिए दिन भर के काम के बावजूद रात का खाना बीएसई सेंसेक्स की ही तरह अनिश्चित है। आनंद भाई आम तौर पर एक दिन में पचास रुपए कमा लेते हैं और जिस दिन वे सौ रुपए तक कमा लेते हैं, वह जश्न का दिन होता है। मनीष उनसे पूछते हैं कि उन्होंने अपने बच्चों के भविष्य के बारे में क्या सोचा है? वे जवाब देते हैं : कचरा बीनने वाले के बच्चे हैं, कचरा ही बीनेंगे।

उम्मीद की ऐसी ही गैरमौजूदगी संजय भाई की बातों में भी नजर आती है। आईआईएम विद्यार्थी अभिषेक गोपाल और सौगाता बसु को उनसे बात करने पर पता चलता है कि वे अहमदाबाद की सड़कों पर जन्मे थे और उन्होंने अपना पूरा जीवन सड़कों पर ही बिताया है। उनके परिवार में मां, पत्नी और दो बच्चे हैं।


वे भी अलसुबह काम पर निकल जाते हैं और आनंद भाई की ही तरह वे भी यही मानते हैं कि उनके बाद उनके बच्चों का कोई भविष्य नहीं है। एक अन्य छात्रा मेघा जैन इन बेघरबारों के ‘घर’ का खाका खींचती हैं। फुटपाथ का महज एक कोना। संपत्ति के नाम पर एक पतली-सी चटाई और दो चादरें। साथ ही कुछ बर्तन और एक पुराना रेडियो।


सड़क के किनारे मिट्टी का एक छोटा-सा चूल्हा और दीवार से बंधी हुई एक रस्सी, जिस पर कुछ कपड़े सूखते हैं। जब ये लोग सुबह काम पर निकलते हैं तो अपनी इस तमाम संपत्ति को बोरी में लपेटकर दीवार या किसी झाड़ी के पीछे रख जाते हैं। उन्हें इस बात का डर नहीं है कि यह असबाब चोरी चला जाएगा, क्योंकि उनके पास चुराने लायक कुछ है ही नहीं।

ओवरसीज एक्सचेंज स्टूडेंट मार्ली डायलो ने ३क् वर्ष की सबीना के बारे में लिखा। हाल ही में अपने चौथे बच्चे को जन्म देने वाली सबीना सड़क के सामने एक फुटपाथ पर रहती है। मार्ली लिखती हैं : ‘हम रोज उस सड़क से निकलते हैं, बिना एक बार भी यह सोचे कि सड़क के दूसरी तरफ फुटपाथ पर बसे लोग किस तरह का जीवन जी रहे हैं।

सबीना के पास ज्यादा सामान-असबाब नहीं है, लेकिन जितना भी है, उसे छुपाकर रखने की उसके पास कोई जगह नहीं। जब सिर ही छुपाने को कुछ न हो तो सामान की क्या बिसात है। बारिश के मौसम में जब रात को पानी गिरता है तो उसके परिवार को फुटपाथ पर रहने वाले सभी लोगों की तरह प्लास्टिक की पतली-सी तिरपाल की शरण लेना पड़ती है।’


सबसे अंत में मार्ली लिखती है : ‘मैंने सबीना से पूछा कि क्या हम लोगों के यहां होने से उसे किसी तरह की सुरक्षा का अनुभव होता है? सबीना का जवाब ‘ना’ था। एक स्पष्ट किंतु उदासीभरी ‘ना’। मेरे मन में सवाल उठता है कि क्या हमारी दुनिया और इन लोगों की दुनिया के बीच कोई पुल नहीं है? यह कैसे संभव है कि ये दोनों दुनियाएं एक-दूसरे को देखे-जाने बिना चुपचाप चल रही हों?’ - लेखक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं।