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लूट का अध्यादेश- के सी त्यागी

बाईस दिसंबर को संसद का सत्र समाप्त होने के तुरंत बाद सरकार द्वारा जारी अध्यादेश से जहां बिल्डर समुदाय और कॉरपोरेट घराने गदगद हैं वहीं दूसरी ओर किसान फिर पुरानी शंकाओं से भयभीत हैं। वित्तमंत्री अरुण जेटली कुशल अधिवक्ता हैं, वे अपनी सरकार द्वारा किए गए इन बदलावों को बड़ी चतुराई से शब्दों का ताना-बाना बुन कर किसानों के हित में बताने का विफल प्रयास कर रहे हैं। पर शायद अब देश का किसान अपने हक के लिए जागरूक हो गया है और वह इस चतुराई को स्वीकार नहीं करेगा। किसानों को इस सरकार से यह आशा भी नहीं थी। पिछली लोकसभा में 2013 में संसद के दोनों सदनों में सभी विपक्षी दलों (भाजपा समेत) ने इस विधेयक को पास कराने में काफी परिश्रम किया था।

इससे पहले भट्टा पारसौल, टप्पल और सिंगूर के किसानों के लंबे संघर्ष और अनेक शहादतों के बाद ही सरकार इन कानूनों में परिवर्तन करने को सहमत हो पाई थी। इस नए भूमि अधिग्रहण कानून में किसानों को सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि बिना उनकी मर्जी के उनकी भूमि का जबरन अधिग्रहण नहीं हो पाएगा और भूमि जिस उद्देश्य के लिए अधिग्रहीत की है, उस पर पांच वर्ष तक अगर विकास नहीं हुआ या किसान को मुआवजा नहीं मिला तो वह भूमि किसानों को वापस करनी होगी।

यूपीए और इससे पहले राजग सरकार द्वारा किसानों के साथ जो विशेष आर्थिक क्षेत्र यानी सेज का खेल किया गया उस पर कैग की रिपोर्ट में यह टिप्पणी महत्त्वपूर्ण है, जिसमें सरकार की साजिश और मंशा दोनों का पर्दाफाश किया गया है। संसद को सौंपी रिपोर्ट में उल्लेख है कि ‘‘जो जमीन सेज के लिए अधिग्रहीत की गई या तो उसे बेच दिया गया या उसे अन्य कार्यों में उपयोग किया गया है।'' अब सरकार ने फिर से सेज को परिभाषित किया है, तो किसानों का शंकित होना स्वाभाविक है। इसका मुख्य उद्देश्य एक बार फिर सेज के नाम पर कॉरपोरेट वर्ग को सस्ते दामों पर भूमि उपलब्ध कराने का ही प्रयास है। इतना ही नहीं, केंद्र की वर्तमान सरकार ने सेज विधेयक 2005 में परिभाषित भूमि उपयोग की परिभाषा को बदल कर सेज के गैर-उत्पादित क्षेत्र में दोहरे उपयोग के नाम पर स्कूल, अस्पताल, होटल आदि बनाने की छूट प्रदान कर दी है।

अभी तक सेज में केवल उन्ही कंपनियों को भूमि दी जाती है, जो वहां पर उत्पादित सामान का निर्यात कर देश के लिए विदेशी मुद्रा आय में वृद्धि करें। सरकार के इस कदम से भूमि अधिग्रहण कानून में जल्दबाजी में बदलाव की मंशा का पता चलता है और इस तर्क को और बल मिलता है कि क्रमश: कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक नीतियां सामान हैं और गरीब और किसान विरोधी हैं।

भारत एशिया के उन पहले देशों में एक है, जिन्होंने निर्यात को बढ़ावा देने में निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्र (इपीजेड) आदर्श की प्रभावशीलता को पहचाना और कांडला में एशिया का पहला इपीजेड 1965 में स्थापित किया। नियंत्रणों और अंतरालों की बहुलता को देखते हुए विभिन्न त्रुटियों को दूर कर, विश्वस्तरीय बुनियादी ढांचे के अभाव और अस्थिर वित्तीय व्यवस्था और भारत में बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए अप्रैल 2000 में विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) नीति की घोषणा की गई।

भारत सरकार ने एक महत्त्वपूर्ण विधेयक, सेज अधिनियम-2005 पारित किया, जिससे निवेशकों में विश्वास पैदा किया जा सके और सरकार की स्थायी सेज नीतिगत व्यवस्था के प्रति वचनबद्धता का संकेत दिया जा सके।
इसके अलावा इसका उद्देश्य सेज व्यवस्था में स्थिरता दिखाना था, ताकि बड़े पैमाने पर आर्थिक गतिविधियों और सेज की स्थापना के जरिए रोजगार के अवसर पैदा किए जा सकें। इसके लिए हितधारकों के साथ विस्तृत विचार-विमर्श के बाद सेज विधेयक का व्यापक प्रारूप तैयार किया गया।

सेज अधिनियम के मुख्य उद्देश्य अतिरिक्त आर्थिक गतिविधियों का संचालन, वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात को प्रोत्साहन, स्वदेशी और विदेशी स्रोतों से निवेश को प्रोत्साहन, रोजगार के अवसरों का सृजन और आधारभूत सुविधाओं का विकास था। उम्मीद थी कि इससे सेज और आधारभूत ढांचे में बड़े पैमाने पर विदेशी और स्वदेशी निवेश को बढ़ावा मिलेगा और उत्पादन क्षमता बढ़ेगी, जिसके परिणामस्वरूप अतिरिक्त आर्थिक गतिविधियां शुरू होंगी और रोजगार के अवसर बढ़ेंगे।

सरकार ने 17 जुलाई, 2013 की स्थिति के अनुसार कुल 576 सेज को स्वीकृति प्रदान की है। इनमें आंध्र प्रदेश में सबसे अधिक 109 सेज हैं। इस अवधि के दौरान महाराष्ट्र में 102 सेज को हरी झंडी मिली। उसके बाद तमिलनाडु में 67, कर्नाटक में 61 और उत्तर प्रदेश में 31 सेज को मंजूरी मिली। पूर्वी राज्यों में पश्चिम बंगाल को 18 सेज का अनुमोदन मिला।

वास्तव में जिस उद्देश्य से सेज की स्थापना की गई थी, वे पूरी तरह विफल रहे हैं। जो भूखंड सेज के लिए अधिग्रहीत किए गए थे, उन पर कोई काम नहीं हुआ और वे या तो खाली पड़े रहे या बिल्डर्स ने उनके भू-उपयोग में परिवर्तन करवा कर वहां हाउसिंग सोसाइटी कांप्लेक्स खड़े कर दिए। ‘‘पिछले छह वर्षों में तिरासी हजार करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान हुआ; सेज पूरी तरह विफल रहे।''

सेज डेवलपर्स ने सरकारी जमीन को गिरवी रख कर बैंकों से ऋण प्राप्त किए। कैग ऑडिट रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2006 में मंजूर और अधिग्रहीत की गई लगभग पचास फीसद जमीन अब तक खाली पड़ी हुई है। रिपोर्ट के अनुसार सेज से जिस प्रकार के लाभ अपेक्षित थे वे उससे बहुत कम रहे, जैसे जितना रोजगार बढ़ने की अपेक्षा थी, जितना निवेश होने की अपेक्षा थी, प्रसंस्करण क्षेत्र में जितनी भूमि के इस्तेमाल की अपेक्षा थी और जितनी विदेशी मुद्रा की आय की अपेक्षा थी, उससे बहुत कम प्राप्त हुआ। हालांकि वाणिज्य मंत्रालय के अनुसार सेज के विफल होने की मुख्य वजह विश्व भर में आर्थिक संकट और न्यूनतम वैकल्पिक कर और लाभांश वितरण कर हटाना था।

सेज बनाने का मुख्य आकर्षण भूमि अधिग्रहण रहा है। जहां 45635.63 हेक्टेयर जमीन सेज के लिए अधिग्रहीत की गई, उसमें मात्र 28488.49 हेक्टेयर भूमि पर काम हुआ। यह भी देखा गया कि भू-माफिया ने सरकार पर दबाव बना कर सेज के नाम पर भूमि अधिग्रहीत कर उसका दूसरे व्यावसायिक कामों के लिए इस्तेमाल किया। सेज एक्ट 2005 के अनुसार सेज के लिए ली गई भूमि पर डेवलपर का अटल अधिकार होता है, जिसको बदला नहीं जा सकता। यह जगजाहिर है कि सेज के लिए किए गए भूमि अधिग्रहण का पूरे देश में विरोध होता रहा है।

देश के बड़े हिस्से की भूमि सेज के बहाने अधिग्रहीत करके कॉरपोरेट क्षेत्र को दे दी गई। इस प्रकार एक योजनाबद्ध तरीके से ग्रामीण भारत की संपत्ति को उद्योग जगत के हाथों सौप दिया गया। इतना ही नहीं, सेज के नाम पर करों में दी गई छूट और उपजाऊ भूमि के अधिग्रहण से कृषि उत्पादन में कमी और राजकोष को हुए करोड़ों के नुकसान पर भी प्रश्नचिह्न लगा है।

भारत की सेज नीति मूलत: चीन की तर्ज पर बनी है, पर हमें चीन और भारत की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को समझना आवश्यक है, जिसमें साक्षरता एक महत्त्वपूर्ण विषय है। जहां एक ओर चीन में साक्षरता 95.1 फीसद है वहीं भारत में इसकी दर 74.4 फीसद है। ग्रामीण भारत में आज भी शिक्षा पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता और आजादी के सड़सठ वर्ष बाद आज भी बहुत सारे गांव ऐसे हैं जहां प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था भी नहीं है और महिलाओं में साक्षरता प्रतिशत मात्र 65.5 फीसद है। लोग अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय काम पर भेजना ज्यादा पसंद करते हैं। चीन में सेज के लिए जब भूमि अधिग्रहीत की गई तो वहां के स्थानीय निवासियों को उसी सेज क्षेत्र में लगे उद्योगों में रोजगार के अवसर मिले, क्योंकि वे शिक्षित और कुशल कारीगर थे। पर भारत में ठीक इसके विपरीत है। यहां का किसान न तो शिक्षित है और न ही कुशल कारीगर। वह या तो हल चला सकता है या फिर मजदूरी कर सकता है।

दुर्भाग्यवश भारत में सेज के नाम पर भूमि अधिग्रहीत तो कर ली गई, पर उसमें किसी उद्योग की स्थापना नहीं हुई, जिससे किसान की जमीन भी गई और उसके परिवार के किसी सदस्य को रोजगार भी नहीं मिला और इससे कृषि पर आश्रित परिवारों में भुखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गई। साथ ही केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव करके पांच वर्ष तक खाली पड़ी भूमि किसानों को वापस करने के प्रावधान को भी बदल दिया और जमीन के उपयोग की परिभाषा को बदल कर उसमें स्कूल, मॉल, होटल आदि के निर्माण की इजाजत दे दी।

अभी एक अंतराष्ट्रीय एजेंसी ऑक्सफैम के अनुसार आने वाले आठ वर्षों में विश्व की इक्यावन फीसद पूंजी पर एक फीसद लोगों का कब्जा हो जाएगा जो 2009 में अड़तालीस फीसद था, जिससे आर्थिक विषमता, जो आज भी बहुत अधिक है और भी भयावह हो जाएगी। हम जिस तरह अमेरिका और चीन की तर्ज पर उनकी नीतियों को अपना रहे हैं वहां इस एजेंसी के मुताबिक यह आंकड़ा अमेरिका में सबसे अधिक है। भारत और अमेरिका की अर्थव्यवस्था की मूल आत्मा में बड़ा फर्क है, जो कांग्रेस और भाजपा को समझ नहीं आता। आज देश का बड़ा हिस्सा माओवाद से प्रभावित है, जिसको ये लोग कानून-व्यवस्था का प्रश्न मानते हैं, पर यह वहां जमीन, जंगल और जल की भयानक आर्थिक विषमता का एक प्रतिशोध है।

सरकार का ‘मेक इन इंडिया' नारा तब तक सार्थक होता नहीं दिखता, जब तक इसकी छतरी में ग्रामीण भारत और कृषक समाज की भागीदारी न हो। अगर इसमें गांवों पर आधारित उद्योग-धंधों को बढ़ावा नहीं मिलेगा, जिसकी संभावना न के बराबर है, तो इस मुहिम से ग्रामीण इलाकों में रहने वालों के जीवन स्तर में कोई सार्थक बदलाव आता नहीं दिखाई दे रहा है।
(लेखक राज्यसभा के सांसद हैं)